विचार सरोकार : मैं भोजशाला हूँ

अब सुनती हूँ, कोर्ट-कचहरी में मेरी पेशी होगी। मुझे एक मौका हाथ लगा है अपने इतिहास की गवाही देने का। मैं अपनी पैरवी खुद ही करूँगी। मेरे पास छिपाने के लिये कुछ नहीं है। पिछले एक हजार साल का इतिहास मेरे सामने चलचित्र की तरह है। बस, वही एक बार सब देख लें। अब मैं विश्वविद्यालय का स्वप्न तो नहीं देख सकती, लेकिन वाग्देवी का श्रृंगार और उसका वसंत तो भरपूर देख सकती हूँ। ⚫

डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला

मैं भोजशाला हूँ। इतिहास में दफन हूँ, किन्तु मुझे खोद-खोद कर निकालते रहने वाले खुद भी नहीं जानते कि मैं अभी और कितनी भीतर हूँ। मैं दसवीं सदी में ही राजा मुंज के समय में बनकर तैयार हो चुकी थी। नालंदा और तक्षशिला के बाद सबसे बड़ा विश्वविद्यालय मैं ही थी। दूर-दूर से विद्वान् मेरा वैभव देखने आते, फिर यहाँ से जाने का नाम नहीं लेते। मेरी आत्मा में वाग्देवी सरस्वती बैठी हुई है। मुंज ने मेरी बहुत सेवा की। तभी तो जब वह नहीं रहा, तब पूरे भारत के विद्वानों के मुँह से यही एक वाक्य निकलता था-‘गते मुंजे यशःपुंजे निरालम्बा सरस्वती'( यशस्वी मुंज के जाने बाद सरस्वती निरालम्ब हो गई)।

मुंज के बाद राजा भोज ने मेरे ऐश्वर्य में चार चाँद लगा दिये। वह महान् पराक्रमी सम्राट् होने के साथ-साथ सच्चा सरस्वती पुत्र था। अपने समय में वह राजा से भी अधिक भोजशाला का कुलपति था। मेरे पास वे चौदह सौ पंडित थे, जो अलग-अलग विषयों के विद्वान् थे। मैं चार मंजिला विशाल और भव्य इमारत थी, जिसमें अनवरत वेदपाठ गूँजते रहते। मेरे पास कवि थे, वैज्ञानिक थे,शिल्पी थे, वेदों के महान् आचार्य थे। धनंजय ने यहीं बैठकर दशरूपक लिखा, जो भरत मुनि के बाद नाट्यशास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। मेरी ख्याति सुनकर उव्वट काश्मीर से पैदल चलकर यहाँ आया, और  यहीं उसने सबसे पहला वेद-भाष्य लिखा। तब मुझे अखंड भारत की काशी कही जाता था। यहाँ शास्त्र-चर्चाएँ होतीं, एक साथ कई वीणाएँ झनझनातीं, मेरे विशाल प्रांगण में आकाशचारी विमान का प्रदर्शन होता और ‘समरांगण सूत्रधार’ की विवेचना होती। मेरे परिसर के बीचों-बीच वह विशाल यज्ञशाला अब भी है, जहाँ राजा भोज सहस्रों ब्राह्मणों के साथ बैठकर देवों का आह्वान करते थे।

बहुतों को नहीं मालूम, कि मेरे पास भी ‘ज्ञानवापी’ है। इस वापी को धारा नगरी के बच्चे-बूढ़े अब भी ‘अकल कुई’ के नाम से जानते हैं। इसका अमृत जल पीकर कई लोग तर गये। यहाँ कभी वाग्देवी की बहुत सुंदर प्रतिमा स्थापित थी। वह वाग्देवी ही इस विश्वविद्यालय की कुलस्वामिनी कहलाती थी। सच तो यह है, कि तब मैं भोजशाला नहीं, वाग्देवी सरस्वती का ऐसा भव्य मंदिर थी, जैसा इस धरती पर और कहीं भी नहीं था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर को लूटने के बाद मुझे ही लूटने का मन बनाया था, लेकिन मुंज और भोज के प्रतापी सैनिकों ने उसके धार में घुसने के सब रास्ते रोक दिये, और वह मालवा को छोड़कर कच्छ-सिन्ध होकर भाग गया। राजा भोज ने मेरा यश इतना बढ़ा दिया था, कि मैं और वह एक हो चुके थे। पाश्चात्य विद्वान् तो आज भी भोज को भारतीय आगस्टस कहते हैं।

राजा भोज के बाद जयसिंह उदयादित्य, लक्ष्मणदेव, नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव, अर्जुनवर्मदेव और देवपाल देव ने मेरी सुरक्षा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। मेरे प्रांगण में आज भी व्याकरण की शिक्षा से जुड़े हुए जो दो सर्पबंध पत्थर पर खुदे हुए हैं, वे भोज के इन परवर्ती राजाओं की रुचि और कौशल के प्रतीक हैं। ‘पारिजातमंजरी’ नाम का एक पूरा नाटक ही मेरी भित्ति पर उत्कीर्ण है। तेरहवीं सदी में मेरा नाम काशी और अवंतिका के विद्वानों में पूजा भाव से लिया जाता था। उस लकड़हारे की चर्चा होती थी, जिसने संस्कृत भाषा के एक अशुद्ध प्रयोग पर राजा भोज को टोक दिया था, वही लकड़हारा बाद में मेरा द्वारपंडित नियुक्त हुआ।

चौदहवीं सदी की शुरुआत में अलाउद्दीन खिलजी मुझे लूटने और तहस-नहस करने के इरादे से आया। राजा महलकदेव और उसकी सेना ने अलाउद्दीन खिलजी को रोकने की पुरजोर कोशिश की, किन्तु सफल नहीं हुए। अलाउद्दीन मेरे भीतर तक घुस आया। उसके हुक्म पर मेरे प्रांगण में रखी हुई देव-प्रतिमाएँ और प्रस्तर-शिल्प खंड-खंड कर दिये गये। जब वह आया, तब मेरे यहाँ बारह सौ विद्वान् पंडित स्वाध्याय में थे। वे वेदाभ्यास कर रहे थे। अलाउद्दीन ने मेरे ही प्रांगण में मेरे ही पुत्रों का खुला कत्लेआम किया। मैं चीत्कार उठी, किन्तु मेरी चीख़-पुकार सुनने वाला तब कोई नहीं था। मेरी आत्मा ने जो क्रंदन किया, उसकी प्रतिध्वनि अब भी दूर-दूर तक सुनाई देती है। अलाउद्दीन तो अपने गुलामों को यहाँ तख्त पर बैठा कर चला गया। उसके जाने के बाद दिलावर गौरी खान, हुशंगशाह, गजनी खाँ, महमूद खाँ ने बारी-बारी से मुझे नोंचा। इन्होंने आधी सदी तक इतने आघात दिये मुझे, कि आईना सामने हो, तो मैं स्वयं को पहचान नहीं सकती। वर्ष 1457 में महमूद खान ने मेरे परिसर में भारी उत्पात मचाया। वेद और धर्म शास्त्र की महत्वपूर्ण पांडुलिपियाँ जला डालीं, महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शिलालेखों के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें दफ्न कर दिया। पत्थरों पर उकेरे हुए पवित्र स्तोत्रों को नीचे पटक कर उनकी मर्यादा को तार-तार कर दिया। मैं मूक थी, किन्तु वह सब मैंने बेबस होकर देखा है।

राजा भोज की देहत्याग के बाद एक-दो नहीं चार सदियों तक मैंने तूफान झेला है। आखिरी की दो सदियों में तो मेरे यहाँ सनातन धर्म को मानने वालों का प्रवेश भी वर्जित था। वर्ष 1724 में एक बार फिर परमारों के हाथ में बागडोर आई। मुझे कुछ आस बंधी। उदाजीराव पवाँर ने अपना युद्ध कौशल तो खूब दिखाया, लेकिन मेरी सुध नहीं ली। न उन्होंने, न उनके बाद के परमारों ने। मैं पूरी तरह खंडहर में तब्दील हो गई। मेरे अहाते में गाय-ढोर बंधने लगे। चारा और गोबर के ढेर लगने लगे। एक वक्त तो ऐसा भी आया, जब मैं धारा नगरी की सबसे गंदी और प्रदूषित जगह थी। मुझसे अच्छे तो मुंज के बनवाये गये बारह तालाब थे। ब्रिटिश शासन ने मुझे एक बार देखा जरूर। उसने अपनी पारखी नजर से मेरी अस्मिता को पहचान लिया था, लेकिन मैं इतनी लुटी-पिटी थी, कि मुझे हजार बरस पहले की दशा में लौटा पाना किसी के लिये सम्भव नहीं था। ब्रिटिश सरकार ही मेरे यहाँ से वाग्देवी की प्राणप्रतिष्ठित और पूजित प्रतिमा को उठाकर लंदन ले गये, जहाँ वह आज केवल शोभा की वस्तु है और अपने घर लौटने को कसमसा रही है। इधर मुझे सहेजने के छुटपुट प्रयास राज्य स्तर पर हुए, होते भी रहे, जो नाकाफी थे।

फिर एक दौर वह भी आया, जब इस्लाम धर्म को मानने वालों ने मुझे नमाज पढ़ने के लिये उपयुक्त जगह समझी। वे आने लगे, बार-बार आने लगे, और फिर आते चले गये। धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि मेरी जगह उन्हींकी है, उन्हींके लिये खुदा ने बख्शी है। अब वे इस जगह के लिये दावा भी करने लगे। उन्होंने मुझे किसी कमाल मौलाना की दरगाह तक बता दिया। मुझे सब ओर से इस तरह ढँक दिया गया, कि मैं बाहर से आने वालों को एक बड़ी और मजबूत मस्जिद ही दिखूँ। यह सब दिखावा इन बीते सौ सालों के भीतर का है। पहले मुझे मुस्लिम हुक्मरानों ने सताया, अब मजहबपरस्तों के निशाने पर बनी हुई हूँ। आजाद भारत में सरकारें आईं, गईं। सब आँख मूँद कर तमाशा देखती हुई अपनी कुर्सी बचाने में लगी रहीं।

हाँ, मेरी ओर से संघर्ष करते रहे हैं धारा नगरी के वे बाशिंदे, जो आज भी स्वयं को राजा भोज की प्रजा मानते हैं। उन्होंने मेरे लिये न्यायमंदिर के द्वार खटखटाये। बार-बार खटखटाये। सनातन धर्म की जयजयकार करने वाली मौजूदा सरकार भी अब इनके साथ खड़ी हुई दिखाई दे रही है।

अब सुनती हूँ, कोर्ट-कचहरी में मेरी पेशी होगी। मुझे एक मौका हाथ लगा है अपने इतिहास की गवाही देने का। मैं अपनी पैरवी खुद ही करूँगी। मेरे पास छिपाने के लिये कुछ नहीं है। पिछले एक हजार साल का इतिहास मेरे सामने चलचित्र की तरह है। बस, वही एक बार सब देख लें। अब मैं विश्वविद्यालय का स्वप्न तो नहीं देख सकती, लेकिन वाग्देवी का श्रृंगार और उसका वसंत तो भरपूर देख सकती हूँ।

⚫ डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला
7, प्रियदर्शिनी नगर,
रतलाम (मध्यप्रदेश)
457001
मोबाइल नंबर 9424869460

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *