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शख्सियत : पैरोडी गाने वालों को ’राष्ट्रकवि’ कहे जाने का दौर

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डॉ. शिप्रा मिश्रा का मानना

चर्चित कहानी ’बाबुल की देहरी’ रही है। मंच संचालन के क्षेत्र में पारंगत डॉ. शिप्रा को 50 से अधिक सम्मान मिल चुके हैं। इनमें नारी शक्ति, पद्मनाभ साहित्य साधक, महादेवी वर्मा शक्ति , लोक चिंतन विशिष्ट सेवा, वाराही इंद्रधनुष, पर्यावरण संरक्षक, साहित्य त्रिवेणी सारस्वत सम्मान, महिला रत्न पुरस्कार, एमिनेंट फेस ऑफ चम्पारण अवार्ड आदि शामिल हैं।⚫

नरेंद्र गौड़

‘मंचीय और प्रकाशित होने वाली कविता में जमीन आसमान का अंतर है, लेकिन आज जनसामान्य उसे ही असल कविता मान बैठा है जो मंच पर चुटकुलों के साथ ठहाके मार सुनी सुनाई जाती है। ऐसी कविता में हंसी मजाक ठलुवाई के अलावा कुछ होता नहीं होता! वक्त एक दौर था जब डॉ. हरिवंशराय बच्चन, महादेवी वर्मा, डॉ. शिवमंगलसिह ’सुमन’, बालकवि बैरागी, गोपाल दास नीरज, बाबा नागार्जुन आदि मंच से कविता पाठ किया करते थे, तब उन्हें सुनने के लिए श्रोता सुबह का सूरज देखे बिना, उठने का नाम नहीं लेते थे। अब उस दौर के न कवि रहे न श्रोता!  साहित्य की सर्वश्रेष्ठ किताबों की बात करें तो उन्हें पढ़ने वाली पीढ़ी अतीत का हिस्सा हो चुकी है। इसी व्यथा को लेकर शैलेंद्र सागर ने लिखा भी है-’दिनकर पंत निराला को आले में दीमक खाती हैं, छंद विधान, मात्रा गणना पौंगापंथ बताते हैं, डटे मसखरे, काव्य मंच पर, कविता दुबकी कोने में, पैरोडी गाने वाले अब राष्ट्रकवि कहलाते हैं।’


यह बात ’चंपारण की काव्य वीणा’ के नाम से सुप्रसिध्द कवयित्री  डॉ. शिप्रा मिश्रा ने हरमुद्दा से चर्चा में कही। इनका कहना था कि ’साहित्य समाज का दर्पण कहा गया है, लेकिन हम देख रहे कि समाज चालीस पचास साल वाला नहीं रहा। टीवी, इंटरनेट सहित आधुनिक संसाधनों की वजह से लोगों की सोच में आमूल चूल परिवर्तन हो चुका है।

उनकी याद में होते हैं साहित्यिक का आयोजन

अपने बारे में पूछे जाने पर डॉ. मिश्रा ने बताया ’मेरा जन्म 26 जून 1969 में बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले के बेतिया शहर में हुआ, जहां की स्मृति आज भी तरोताजा है। वहां की सौंधी माटी की सुगंध, भोजपुरी लोकसंगीत भूल नहीं सकती। मेरी कविता और लघुकथाओं में वहां का बहुत बड़ा हिस्सा रहा है। मेरे पिता डॉ. बलराम मिश्र शिक्षाविद् थे, उन्होंने अनेक भाषाओं पर काम किया है। 35 वर्षों तक वे बेतिया के महारानी जानकी कुंवर महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे। उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं जो आज भी चर्चित हैं। वर्ष 2016 में उनका निधन हो गया। कई छात्रों ने उनके निर्देशन में शोध कार्य किया है। उनके छात्र आज भी प्रतिवर्ष उनकी याद में साहित्यिक आयोजन करते हैं। शायद ही उनके जैसा कर्मयोगी कोई प्राध्यापक दूसरा रहा होगा। मेरी माताजी डॉ. सुशीला ओझा भी पीएचडी हैं जो कि एमएमएम कॉलेज में व्याख्याता रह चुकी है, वे इन दिनों स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। उनके व्दारा रचित अनेक कृतियां हैं जिनमें ’मैं समन्विता हूं’, ’नारी संबोधन का शास्त्रीय अध्ययन’ शोधग्रंथ के अलावा ’भोजपुरी कहानी संकलन’, ’हिंदी कथा संग्रह’, ’कविता संकलन’ और ’लोकगीत संग्रह’ शामिल हैं। उन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

वर्तमान में रहती कोलकाता

एक सवाल के जवाब में डॉ. शिप्रा ने बताया  उन्होंने स्नातकोत्तर तक सभी परीक्षाएं श्रेष्ठ अंकों के साथ उत्तीर्ण की हैं। बिहार विश्वविद्यालय के डॉ. सतीश राय ’अनजान’ के निर्देशन में वर्ष 1999 में पीएचडी किया। कुछ वर्षों तक बेतिया के आलोक भारती शिक्षण संस्थान में शिक्षण कार्य किया। 28 फरवरी 1993 में छपरा निवासी उज्ज्वल कुमार पांडे के साथ विवाह हुआ, पति की नौकरी की वजह से कुछ वर्ष बैंगलोर रही, जहां वे कॉफी बोर्ड में सुपरवाइजर थे। पति के जॉब के बदलने और पारिवारिक कारणों से इन दिनों कोलकाता रह रही हूं।

50 से अधिक मिल चुके हैं सम्मान

डॉ. शिप्रा ने बताया कि उनकी कविता ’परिधि’ राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका ’कादम्बिनी’ में छपी जो चर्चित हुई। इसके अलावा इनकी रचनाएं विचार मीमांसा, बूंद-बूंद सागर, लोक चिंतन, चम्पारण चंद्रिका आदि में छपती रही हैं। अगर संख्या की बात करें तो 100 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में 500 से अधिक रचनाएं छप चुकी हैं। इनकी चर्चित कहानी ’बाबुल की देहरी’ रही है। मंच संचालन के क्षेत्र में पारंगत डॉ. शिप्रा को 50 से अधिक सम्मान मिल चुके हैं। इनमें नारी शक्ति, पद्मनाभ साहित्य साधक, महादेवी वर्मा शक्ति , लोक चिंतन विशिष्ट सेवा, वाराही इंद्रधनुष, पर्यावरण संरक्षक, साहित्य त्रिवेणी सारस्वत सम्मान, महिला रत्न पुरस्कार, एमिनेंट फेस ऑफ चम्पारण अवार्ड आदि शामिल हैं। डॉ. शिप्रा का कहना था कि वह कक्षा छठी से ही कविता कहानियां लिखने लगी थी। इनका पूरा परिवार ही साहित्य प्रेमी रहा है। छोटी बहन शुभ्रा मिश्रा, भाई कुमार अनुपम तथा कुमार अनुभव भी अच्छे रचनाकार हैं।

डॉ. शिप्रा की चुनिंदा कविताएं

“परिधि”

प्रेम एक आवेग है
जो उमड़ता है,
घुमड़ता है
बरसता है

हर तरफ़ शीतलता ही शीतलता
अद्वितीय सुख की चाह में

एक अनंत छाँव की कल्पना में
जिसमें मन उरझ- उरझ जाता है

प्रेम की सीमाएं
अनंतर, निरंतर, निर्बाध बढती ही
चली जाती है

फ़िर एक चरम स्थिति
जहाँ सब कुछ उमड़- घुमड़ कर
शांत स्तब्ध हो जाता है

जहाँ न कोई आवेग
न कोई जड़ता
बस एक स्थिर शून्य

जहाँ उछाला हुआ एक कंकड़ भी
अंत: स्थल में लहर नहीं उठा पाता

प्रेम की परिभाषा नहीं
प्रेम की पहचान नहीं, सीमा नहीं

फ़िर भी इतना
कुछ तो है
जो प्रेम की परिधि में
समा जाता है…

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अकिला फुआ

अब उनकी
कोई जरूरत नहीं

पड़ी रहती हैं
एक कोने में
अपनी खटार्रा मशीन लेकर

सुतरी से बँधे चश्मे को
कई बार उतारती और
पहनती हैं और
लगीं रहती हैं
सूई में धागे लगाने की
निरर्थक कोशिश में

एक जमाने में
सलाइयों पर तो जैसे
उनकी अँगुलियाँ
थिरकती रहती थीं

रिश्तेदारी के सारे
नव जन्में बच्चे
और तो कुछ बड़े भी
उन्हीं की सिली हुई
झबले, स्वेटर, कुलही
पहन कर पोषित हुए

खानदान भर के
पोंतड़े, फलिया, गदेली
सिलती रहीं बच्चों के

अब तो सब कुछ
मिल जाता है रेडिमेड
सुन्दर, आकर्षक, सुविधाजनक

कौन सिलवाए ऐसी
फटी-पुरानी साड़ियों
और बदरंग चद्दरों के
बेकार की जहमतें

एक जमाने में
गाँव भर में
अकिला फुआ की
हुआ करती थी
खूब पूछ

बेटी का सगुन या
बेटे का परछावन
नहीं होता था
उनके बिना

अकिला फुआ
पुरनिया- सी बैठ कर
सलाह दिया करती थी
मुफ्त की

लेकिन अफसोस
अब खत्म हो गई
उनकी पूछ
हाल-चाल भी नहीं
जानना चाहता कोई

दम्मे की खाँसी ने
परास्त कर दिया उन्हें
अपनी धुँधली रोशनी में
भींग- भींग जाती हैं
उनकी बूढ़ी आँखें
अपने पुराने दिनों को
याद करते हुए

काश!
अब भी कोई
विचारता
रेडिमेड के चलन से
टूट गए, बिखर गए
न जाने कितने परिवार
न जाने कितनी बूढ़ी आस..

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मेरी कविते

बरसों पहले..
लिखी गई मेरी कविताएंँ

मुझे मुंँह चिढ़ा रही थीं
व्यंग्य से मुस्कुरा रही थीं

कहो!! अब कैसी हो?
बहुत उड़ती थी..
उछलती थी..
तितलियांँ पकड़ती थी..

कोयल की मीठी तान में
तान मिलाती थी..
जुगनुओं को डिब्बे में
बंद करती थी..

चिड़ियों-सी चहकती थी
फूलों- सा महकती थी
चांँद को डोली में
बिठा कर..

सितारों से
बारात सजाती थी..
बात-बात पर
ठुनकती थी..

अब क्या हुआ??
मैंने कहा-
ज्यादा चिढा़ओ मत
और इतराओ भी मत

आज भी..
मैं उड़ती हूं..
मेघ-सा बरसती हूंँ
धरती की प्यास बुझाती हूंँ

पहले थी मैं कोमल
और अब–
अपने मजबूत इरादों से
पत्थर पर लकीर
बनाती हूंँ..

अपने डगमगाते
कदम को साध
कांँटों में भी राह बनाती हूंँ

गहरे पानी में उतर
मोती चुन कर लाती हूंँ
और मत भूल

मेरी कविते!!
कल तू भी मेरी अंग थी
मैंने ही अपनी भावनाओं से

तुझे जन्म दिया था
तुझे पोषण दिया था
अपना आधार ही भूल जाएगी
तो दुनिया को क्या दिखलाएगी

तुझे पहचानने के लिए
मेरा होना जरूरी है
और मुझे पहचानने के लिए
तेरा होना जरूरी है..

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एमकी फगुआ

(भोजपुरी)
फगुओ में ना
अइब का हो
मनवा छछनत जियरा दहकत
सुभ संदेस ना ल‌इब का हो

बगियारी में मोजर गमके
बोले कोइलिया लोगवा ठमके
फेर फिफकाल मच‌इब का हो

मंदिर-मस्जिद में लोगवा उलझल
मार-काट से मति ना सुलझल
एही में हमरा मुअइब का हो

अबकी आव फगुआ गाव
तोहरे अइले भरी ई घाव
बिरहे में जिअइब का हो

कमे खाइब कम में जियब
तनिके माड़-भात हम पियब
अबहूंँ फसरी लग‌इब का हो

जोर-चेत एगो चुनरी ले अइह
हंँसी-हंँसी जीभर रंग उड़‌इह
च‌इता घुली-मिली गइब का हो

ईहो फगुआ अइसही जाई?
हमर जिनगिया ना सझुराई
पियरी हमरा ना ओढ़‌इब का हो

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