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ग़ज़ल : ऐसी लू है कि शहर मेरा झुलस उट्ठा है

अब तो हर एक बशर मेरा झुलस उट्ठा है ,
ऐसी लू है कि शहर मेरा झुलस उट्ठा है।

आशीष दशोत्तर

अब तो हर एक बशर मेरा झुलस उट्ठा है ,
ऐसी लू है कि शहर मेरा झुलस उट्ठा है ।

अपने फन को मैं भला और संभालूं कितना ?
तेरी दुनिया में हुनर मेरा झुलस उट्ठा है ।

मेरे चेहरे की हंसी पर न यकीं कर लेना ,
कोई देखे तो जिगर मेरा झुलस उट्ठा है ।

तुमने काटा जो शजर बस वो मेरा साया था ,
उस पे होता था जो घर मेरा , झुलस उट्ठा है ।

चैन दिन में न सुकूं भी है कहां रातों में ?
अब तो हर एक पहर मेरा झुलस उट्ठा है ।

घर में नफ़रत की ये दीवार उठी है जब से ,
नींव हिलते ही शिखर मेरा झुलस उट्ठा है ।

तुमने ‘आशीष’ उधर अपनी कहानी लिक्खी ,
और क़िरदार इधर मेरा झुलस उट्ठा है।

आशीष दशोत्तर, रतलाम
      9827084966

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