ग़ज़ल : ऐसी लू है कि शहर मेरा झुलस उट्ठा है
⚫ अब तो हर एक बशर मेरा झुलस उट्ठा है ,
ऐसी लू है कि शहर मेरा झुलस उट्ठा है।⚫
⚫ आशीष दशोत्तर
अब तो हर एक बशर मेरा झुलस उट्ठा है ,
ऐसी लू है कि शहर मेरा झुलस उट्ठा है ।
अपने फन को मैं भला और संभालूं कितना ?
तेरी दुनिया में हुनर मेरा झुलस उट्ठा है ।
मेरे चेहरे की हंसी पर न यकीं कर लेना ,
कोई देखे तो जिगर मेरा झुलस उट्ठा है ।
तुमने काटा जो शजर बस वो मेरा साया था ,
उस पे होता था जो घर मेरा , झुलस उट्ठा है ।
चैन दिन में न सुकूं भी है कहां रातों में ?
अब तो हर एक पहर मेरा झुलस उट्ठा है ।
घर में नफ़रत की ये दीवार उठी है जब से ,
नींव हिलते ही शिखर मेरा झुलस उट्ठा है ।
तुमने ‘आशीष’ उधर अपनी कहानी लिक्खी ,
और क़िरदार इधर मेरा झुलस उट्ठा है।
⚫ आशीष दशोत्तर, रतलाम
9827084966