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आदिवासी सांसदों के होने के बाद भी आदिवासी हाशिए पर

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आदिवासियों को अब भी अलग-थलग रहना चाहिए या मुख्यधारा का हिस्सा बन जाना चाहिए! यह बहस बाहरी समाज द्वारा पैदा की हुई है। बाहरी समाज अपनी शर्तों पर आदिवासियों को शेष समाज से घुलाना-मिलाना चाहता है। ठीक है, आज शायद किसी समाज का शेष समाज से अलग-थलग रहना मुश्किल हो, लेकिन हम आदिवासियों के बारे में संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र का अनुसरण कर सकते हैं, जो विभिन्न राष्ट्र-राज्यों की भौगोलिक सीमाओं में रह रहे आदिवासियों के लिए आत्मनिर्णय’ के अधिकार की वकालत करता है।

देश की संविधान सभा में जयपाल सिंह तथा अन्य आदिवासी नेताओं ने पुरजोर तरीके से आदिवासी स्वायत्तता तथा अन्य सवालों को रखा था, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आदिवासी सांसदों के होने के बाद भी आदिवासी हाशिए पर है।

आदिवासियों की जमीनी राजनीति फलने-फूलने की पूरी संभावनाएं

आदिवासी मुद्दों पर बात करते वक्त मध्य और पूर्वी भारत की चर्चा अधिक होती है, जबकि इस वक्त आदिवासी समाज और राजनीति में पश्चिमी भारत से अधिक सक्रियता देखने को मिल रही है। पश्चिमी भारत के आदिवासियों ने अपने नायकों की खोज तेज कर दी है। पिछले वर्षों में बिरसा मुंडा, टंट्या भील, गोविंद गुरू, कप्तान छुट्टनलाल आदि की प्रतिमाएं लगायी गई हैं।
गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमाएं जहां मिलती हैं, वह इलाका भीलों का है। चूंकि भीलों का क्षेत्र व्यापक है, इसलिए इसमें आदिवासियों की जमीनी राजनीति फलने-फूलने की पूरी संभावनाएं हैं। अब पश्चिम भारत के आदिवासी शेष भारत के आदिवासियों से भी संपर्क में हैं।

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फिर भी हैसियत एक दिहाड़ी मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं रही

आदिवासी को बचाने से है। आदिवासियों का सवाल आर्थिक से ज्यादा सांस्कृतिक है। आदिवासियों के बीच संस्कृतीकरण की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। आदिवासी जिन विशेषताओं से परिभाषित होते हैं, वे ही उनसे छिनती जा रही हैं। उनको उनके ही इलाके से बेदखल किया जा रहा है। पूंजीवादी विकास की तमाम प्रक्रियाओं में उनकी हैसियत एक दिहाड़ी मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं रही। विस्थापन से भाषा, संस्कृति व परिवेश से उनका रिश्ता टूटता जा रहा है। वे अस्तित्व की रक्षा के लिए गैरों की शर्तों पर जीने को मजबूर हैं।

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