क्या थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी शिक्षक
अपनी गरिमा को धूल धूसरित कर रहा शिक्षक समाज
देश में मनाए जा रहे शिक्षक दिवस की धूमधाम के बीच आइए, जरा यह सोचें कि हमारे समाज में आज शिक्षा और शिक्षक के पेशे को कितना सम्मान दिया जाता है? देखा जाए तो शिक्षा व्यवसाय बन कर रह गई है। यह कटु सत्य है कि शिक्षक समाज ने स्वयं ही अपनी गरिमा को धूल धूसरित कर रहा है।
जबकि शिक्षक एक जीवंत विद्यालय होता है। बच्चे शिक्षकों से पढ़ाई के अलावा उनके आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को ग्रहण करते हैं। अपने जीवन को सफलता के शिखर की ओर ले जाते हैं। मगर दुख है कि आज शिक्षक अपने मान-सम्मान को, गरिमा को, संस्कार को, संस्कृति को भूल गया है। नतीजतन विद्यार्थियों की नजरों में भी शिक्षकों की वह अहमियत नहीं रही है, जो कि होना चाहिए इसके लिए विद्यार्थी नहीं अपितु स्वयं शिक्षक ही दोषी है। शिक्षकों का बुरा प्रभाव विद्यार्थी समाज पर हो रहा है।
शिक्षक भी सामाजिक बुराइयों के मकड़जाल में
फंस चुका है। वह सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू, पाउच, सहित नशे की तमाम बुरी लत लग चुकी है। इसके साथ ही विद्यालयों में नैन मटक्का की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसका प्रभाव विद्यार्थियों के जीवन पर भी पड़ता है और वह भी वही सीखते हैं जो शिक्षक करते हैं।
अब स्थितियां हो गई विपरीत
मुद्दे की बात तो यह है कि शिक्षकों ने अपनी गरिमा को तिलांजलि दे दी है वे केवल मोटी तनखा के लिए स्कूल जाते हैं और आते हैं। उनका पढ़ाई से कोई लेना देना नहीं होता है। नहीं नवाचार के बारे में सोचते हैं। यह बात अलग है कि हजारों में एकाध कोई मिल जाए तो उससे वह असर नहीं होता है। एक समय था जब शिक्षक समाज में कोई बिरला व्यक्ति ही मिलता था जो कि अपने कर्म से दोगलापन करता था मगर अब स्थितियां विपरीत हो गई है।
यह विडंबना नहीं तो और क्या
सच माने तो वर्तमान दौर में शिक्षक काम का नहीं, नाम और सम्मान का भूखा हो गया है और सम्मान भी समाज नहीं देता बल्कि वह खुद सम्मान मांगता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है। मुद्दे बात तो यह है कि सम्मान भी मांगने से नहीं अपितु खरीदने से मिलता है। ऊपर के स्तर पर जिसकी सेटिंग अच्छी है उसे पुरस्कार के लिए योग्य मान लिया जाता है भले ही वह….।
दुख है कि आज शिक्षक इस अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं सम्मान के लिए जिसके वह असली हकदार है ही नहीं।
तो बड़े गुणात्मक परिवर्तन संभव है क्या इसके बिना
भारतीय अर्थव्यवस्था अभी हाल ही में सकल राष्ट्रीय उत्पादन के आधार पर दुनिया में पांचवें नंबर पर पहुंच गई है। अगले कुछ वर्षों में हम तीसरे स्थान पर भी पहुंचने की उम्मीद रखते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बनाने का लक्ष्य रखा है। क्या शिक्षा व्यवस्था में बड़े गुणात्मक परिवर्तन और सुधारों के बिना यह संभव होगा? चौथी औद्योगिक क्रांति हमारे दरवाजे खटखटा रही है, किंतु हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली अभी भी 19वीं सदी में हुई दूसरी औद्योगिक क्रांति से पैदा हुए रोजगार के ढांचे के अनुरूप कवायद कर रही है। पिछले एक दशक में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में ऐसे युगांतरकारी परिवर्तन आए हैं कि विश्व स्तर पर उद्योगों, व्यवसायों, बाजारों, समाज, शिक्षा, मीडिया और राजनीति में सब कुछ उलट-पलट रहा है। यह ‘सब कुछ’ इतनी तेजी से घटित हो रहा है कि कभी-कभी हमें लगता है कि हम कोई वैज्ञानिक उपन्यास पढ़ रहे हैं, कोई सपना देख रहे हैं या कोई हॉलीवुड की एवेंजर जैसी फिल्म देख रहे हैं।
शिक्षक की महत्ता और भूमिका में आएंगे बड़े बदलाव
सूचना क्रांति ने दुनिया को बदलने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी, किंतु चौथी औद्योगिक क्रांति ऐसे बड़े बदलाव लाने जा रही है, जिनकी कोई कल्पना नहीं कर पाएगा। पर क्या हमारे राजनेता, नीति-निर्माता, शिक्षक और विद्यार्थी इस कटु सत्य से वाकिफ हैं कि आजकल उपलब्ध अधिकांश रोजगार वर्ष 2030 तक खत्म हो जाएंगे और जो नए रोजगार पैदा होंगे, उनकी तैयारी के लिए आवश्यक शिक्षा, पाठ्यक्रम, उपकरण, शिक्षक और पढ़ाने के तौर-तरीके हमारे पास नहीं हैं। आज विश्व स्तर पर चौथी औद्योगिक क्रांति के अनुरूप ‘शिक्षा 4.0’ की बहुत चर्चा हो रही है, जिसे मोटे तौर पर चौथी शैक्षणिक क्रांति का नाम दिया जा सकता है। वर्ष 2030 तक पहुंचते-पहुंचते दुनिया में शिक्षक का पेशा खत्म नहीं होने जा रहा है, लेकिन यह तय है कि शिक्षक की महत्ता और भूमिका में बड़े बदलाव आएंगे।
शिक्षा के प्रति शिक्षकों की उदासीनता
मुद्दे की बात यह है कि आजादी के बाद साल दर साल भारतीय समाज ज्ञान-विज्ञान, समानता, चरित्र-निर्माण, सामाजिक सद्भाव और सामाजिक सरोकार जैसे मूल्यों के प्रति अपनी निष्ठा लगातार खोता गया है। इसके विपरीत भ्रष्टाचार, धनलिप्सा, स्वार्थ, चालाकी और अवसरवादिता जैसे नकारात्मक मूल्य हमारे समाज पर हावी होते चले गए। इस दौर में शिक्षकों की पेशागत प्रतिबद्धताओं और योग्यताओं में भी लगातार क्षरण होते देखा गया। आजादी के बाद के प्रारंभिक दशकों में शिक्षकों की कार्यदशाएं व वेतन-भत्ते अन्य पेशों की तुलना में कम थे। नतीजतन, पूरे देश में प्राथमिक, स्कूल और कॉलेज-यूनिवर्सिटी शिक्षकों के संगठनों ने शिक्षकों को लामबंद करके लगातार आंदोलन किए। शिक्षकों को राजनीतिक दलों, विधायिका में नामित किया गया और उन्हें चुनाव लड़ने की छूट भी दी गई। शिक्षक संघों के आंदोलनों सेे जहां उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आया, वहीं दूसरी ओर, उन्हें शिक्षा के उन्नयन से लगातार विमुख होते हुए भी देखा गया। क्या स्कूल, कॉलेज तथा यूनिवर्सिटी के शिक्षकों से जुडे़ राष्ट्रीय व प्रादेशिक संघ शिक्षा के प्रति शिक्षकों की उदासीनता है।
पेशेगत प्रतिबद्धता में कमी
पिछले तीन दशकों में चौथे वेतन आयोग से लेकर सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने से सरकारी कर्मचारियों की तरह शिक्षकों के वेतनमान में बढ़ोत्तरी हुई तो समाज में शिक्षकों की प्रतिष्ठा में गिरावट आती गई। इस कारण उनके आर्थिक स्तर में सुधार के साथ-साथ उनकी पेशागत प्रतिबद्धता में कमी होना भी है। देश के कई राज्यों के जाने-माने विश्वविद्यालयों में अकादमिक सत्र के दौरान कक्षाएं 100 दिन भी न लगना, इसका दुष्परिणाम ही कहा जाएगा।
नहीं मिली खास अहमियत
पिछले कई दशकों में कई बार शिक्षा और शिक्षकों के पेशे से संबंधित अनेक नीतियां और कार्यक्रम बनाए गए। सात बार शिक्षकों के वेतनमान को सुधारा गया, किंतु न तो शिक्षा में कोई व्यापक बदलाव आया और न ही शिक्षक के पेशे को समाज में कोई खास अहमियत मिल पाई। यह तभी मुमकिन हो पाएगा, जब हम यह समझें कि शिक्षा में होने वाले किसी भी बड़े बदलाव को सफल बनाने में उनकी केंद्रीय भूमिका होनी चाहिए। मुद्दे की बात तो यह है कि क्या थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी शिक्षक। खोए हुए सम्मान को प्राप्त करने के लिए स्वयं शिक्षकों को ही जतन करना होगा