रामायण उनका स्वप्न भी था और संतोष भी
🔳 स्मरण- रामानन्द सागर
अपने दौर के अलहदा फिल्मकार रामानंद सागर के कई आयाम थे। रामायण की लोकप्रियता के बाद जन-जन के लबों पर उनका नाम आ गया लेकिन एक पत्रकार के रूप में, लेखक के रूप में, कहानीकार के रूप में, संवाद लेखक के रूप में, निर्माता -निर्देशक के रूप में और इन सब से बेहतर एक संवेदनशील इंसान के रूप में उनकी अपनी अलग पहचान रही।
मुझे रामानंद सागर साहब के साथ दो बार साक्षात्कार का मौका मिला। दोनों बार उनसे लम्बी बातचीत हुई। इन साक्षात्कारों में सागर जी ने अपने जीवन के कई सारे पहलुओं को सामने रखा। उसे जानकर यह महसूस हुआ कि एक व्यक्ति जो जीवन के प्रारंभ से संघर्ष करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है और एक दिन सर्वाधिक लोकप्रिय होता है उसके साथ उसकी मेहनत, लगन और परिश्रम भी होता है, जिसे दुनिया देख ही नहीं पाती है।
🔳 जिन दिनों रामायण टेलीविजन पर सर्वाधिक लोकप्रिय था, उन दिनों सागर जी से हुई मुलाकात मैं मैंने सहसा यही सवाल पूछा कि फिल्मों से अचानक रामायण की तरफ आप का रुख कैसे हुआ?
उन्होंने कहा कि रामायण मेरा स्वप्न भी था और संतोष भी। मन में कभी से यह भावना थी कि रामायण के चरित्रों को जन-जन तक पहुंचाया जाए, क्योंकि रामायण में जीवन जीने के आदर्श मौजूद है। यह मेरे लिए संतोष का विषय भी था क्योंकि मुझे प्रारंभ से ही सामान्य जन की चिंताओं और उनके दुख-दर्द के साथ साझा होने में संतोष प्राप्त होता रहा। रामायण को लोगों ने पसंद किया और उसे समझा यह मेरे लिए प्रसन्नता की बात है।
🔳 रामायण के प्रसारण के समय सड़कें सूनी हो जाया करती थी और लोग टीवी के सामने जमे रहते थे। लोगों की इस आस्था ने मुझे बहुत बल दिया।
🔳 सागर जी का जीवन एक पत्रकार के रूप में प्रारंभ हुआ और उसके बाद वे लेखन की तरफ भी प्रवृत्त हुए । कई नामों से उन्होंने अपना लेखन किया और सागर ने उन्हें स्थायित्व प्रदान किया। उन्होंने छोटी कहानियां, लघु कहानी, बड़ी कहानियां और नाटक लिखे। उन्होंने इन्हें अपने उपनाम चोपड़ा, बेदी और कश्मीरी के नाम से लिखा लेकिन बाद में वह सागर तखल्लुस के साथ हमेशा के लिए रामानंद सागर बन गए।
🔳 वे फिल्म क्षेत्र से जुड़े और 1950 में खुद की प्रोडक्शन कंपनी सागर आर्ट्स बनाई जिसकी पहली फिल्म मेहमान थी। 1985 में वह छोटे परदे की दुनिया में उतर गए। उनके द्वारा निर्मित सर्वाधिक लोकप्रिय धारावाहिक रामायण ने लोगों के दिलों में उनकी छवि एक आदर्श व्यक्ति के रूप में बना दी। बाद में उन्होंने अनेक फिल्मों और टेलिविजन धारावाहिकों के लिए भी पटकथाएँ लिखी। फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उनकी फिल्में आज भी मील का पत्थर मानी जाती है
🔳 सागर जी ने मेरे कई सवालों का जवाब देते हुए एक सवाल मुझसे ही पूछा कि आप पत्रकारिता क्यों कर रहे हैं ? सवाल था तो सामान्य लेकिन जवाब सामान्य नहीं हो सकता था। मैं समझ चुका था कि सागर जी के भीतर का पत्रकार मुझसे यह सवाल पूछ रहा है । यह मुझे पता था कि सागर जी विद्वान थे और उनकी विद्वता उनकी बातों से ही झलकती थी। विद्यार्थी जीवन में मेधावी होने के कारण उन्हें यूनिवर्सिटी से स्वर्ण पदक मिला था और फारसी भाषा में निपुणता के लिए उन्हें मुंशी ए फजल के खिताब से नवाजा गया था। इसके बाद सागर जी एक पत्रकार बन गए और एक अखबार में समाचार संपादक के पद तक पहुंच गए। उनके भीतर अब तक मौजूद पत्रकार ने ही यह सवाल किया था। उनके सवाल पर मैंने कहा, लेखन के प्रति रुझान और प्रतिदिन कुछ नया करने में मिलने वाला संतोष ही इस पेशे की तरफ लाया है। सागर जी मुस्कुराए। उन्होंने कहा, पत्रकारिता ऐसा माध्यम है जिसके जरिए हम आम आदमी के दुख-दर्द को, उसकी समस्याओं को, उसकी आकांक्षाओं को सामने ला सकते हैं और जीवन में हमारा उद्देश्य भी यही होना चाहिए ।
🔳 सागर जी ने बातों ही बातों में कई सारे संदर्भों को उल्लेखित भी किया और फिल्म निर्माण की शुरुआत उस दौरान परसाई परेशानियां और उससे निकलने में सहयोगियों द्वारा मिले स्नेह के प्रति अभिभूत नजर आए। उन्होंने बताया कि फिल्म निर्माण हो धारावाहिक निर्माण हो या कोई भी महत्वपूर्ण कार्य जब तक आपके साथ आप की एक टीम नहीं होती आप किसी भी कार्य को पूर्ण नहीं कर सकते। चर्चा के दौरान उनके साथ रामायण में संगीत दे रहे गीतकार, संगीतकार और गायक रवींद्र जैन भी मौजूद थे। उन्होंने रवीन्द्र जैन की ओर इंगित करते हुए कहा कि अब हमारे दादा को ही देख लीजिए इनके गीत, इनकी आवाज और इनका संगीत रामायण में न हो तो उसमें जान ही न आए। यह सुन रवींद्र जैन भी मुस्कुरा दिए और वातावरण में मुस्कुराहट फैल गई। सागर साहब अपने साथियों के साथ कितने आत्मीय रहे होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने कभी अपने टीम के मेंबर्स को खुद से अलग नहीं समझा । यही कारण रहा कि उन्होंने जितनी भी फिल्में बनाई वे दर्शकों के बीच में लोकप्रिय स्थान पा सकीं।
🔳 रामानंद सागर का सफर दिसंबर से प्रारंभ हुआ और दिसंबर में ही वे हमसे जुदा हुए। लाहौर के नजदीक असल गुरु नामक स्थान पर 29 दिसंबर 1927 को जन्मे और नाम मिला चंद्रमौली। लेकिन नानी ने उनका नाम बदलकर रामानंद रख दिया। शिक्षा के साथ वे संघर्ष भी करते रहे। वे दिन में काम करते और रात को पढ़ाई। इसके साथ ही उनका लेखन कार्य भी चलता रहा।बंटवारे के समय 1947 में वे भारत आ गए। उस समय उनके पास संपत्ति के रूप में महज पांच आने थे, लेकिन उन्होंने अपनी अलग पहचान बाई। उनका निधन 12 दिसंबर 2005 को हुआ।
🔳 उनकी प्रमुख फिल्मों में आंखें, बगावत, प्रेमबंधन, चरस, गीत, घूंघट हैं। आंखें के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। उन्होंने प्रसिद्ध टीवी धारावाहिकों रामायण, विक्रम बेताल, दादा-दादी की कहानियां, कृष्णा, अलिफ लैला और जय गंगा मैया के माध्यम से छोटे पर्दे पर पौराणिक धारावाहिकों के लिए जमीन भी तैयार की। रामानंद सागर की कमी आज हमें खलती है, मगर उनका कार्य नई प्रेरणा भी प्रदान करता है।
🔳 आशीष दशोत्तर के साथ रामानंद सागर
लेखक साहित्यकार है।