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हमारे समय की बेचैनियों से उपजी शाहनाज की कविताएं

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🔳 साहित्य जगत में रखती हैं खासा मुकाम

हिंदी की जानी मानी कवयित्री शाहनाज इमरानी भोपाल के एक स्कूल में अध्यापक हैं और वहीं रहते हुए रचनाकर्म में जुटी हुई हैं। प्रगतिशील परिवार में जन्मी शाहनाज की अनेक कविताएं देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इन्हें कविता के लिए रोचना विश्वकीर्ति पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।

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आप नियमित रूप से ब्लाॅग्स भी लिखती रही हैं जिसे व्यापक सराहा जाता है। वामपंथी सोच से आबध्द शाहनाज की कविताएं साहित्य जगत में खासा मुकाम रखती हैं। आपको ’कृति ओर’ पुरस्कार भी प्रदान किया जा चुका है।

गहरी हताशा के साथ कौंधती उम्मीद की रौशनी भी मौजूद

शाहनाज की कविताएं गुस्से, खीज, गहरी करूणा, स्मृतियों और हमारे समय की बेचैनियों से बनी कविताएं हैं। इनमें गहरी हताशा के स्वर हैं तो कहीं उसके बीच कौंधती उम्मीद की रौशनी भी मौजूद है। यहां रौशनी की एक बूंद को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने का खेल है तो यह प्रश्न भी कि आजाद चीजों को कैद करने का ऐसा खेल क्यों होता है।

हिंदी उर्दू की मिली-जुली जबान का स्वाद

यहां कभी नहीं लौट सकने वाले बचपन की स्मृतियां हैं और यह सुख भी कि उस समय जब घर में सब होते थे, मतलब दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े पापा, चाचा, मामी, खाला उस संयुक्त परिवार के हम आखरी गवाह हैं। इनकी कविताओं में तेजी से बदल रहे शहर, रिश्ते और गुम हो रही चीजें और चिट्ठियां हैं, जिनका शायद कुछ आंखों को अभी भी इंतजार है। शाहनाज की कविताएं अपनी बात कहने के लिए किसी कविताई कौतुक, अलंकारिता या भाषायी बंतुपन का आसरा नहीं खोजतीं। इनमें हिंदी उर्दू की मिली-जुली जबान का वह स्वाद है जो शाहनाज को अपने शहर की बोलचाल से प्राप्त हुआ है।
शाहनाज के पांव अपनी जमीन को पहचानते हैं और अपने आसमान को भी।

शाहनाज की कविताएं

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लकड़ी को जलने

और जलाने में

जब चांद पर घर और
अंतरिक्ष में फसल
उगा रहे हैं
उसके पास एक
कोना भी नहीं है

आंखों को जिंदगी
दिखेगी कैसे
अगर सामने पानी हो,
खारा पानी
भीगा चूल्हा गीली लकड़ी

कितनी तकलीफ है
लकड़ी को जलने
और जलाने में
जैसे बीमार जिंदगी
बुखार से भरी हुई नसें
आदिवासी स्त्रियों का
शोक-गीत।

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🔳 अब्बू की याद में

तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारे साथ बिताया
समय और अनुभव
बदल गए स्मृतियों में

तुम छोड़ गए मेरे लिए
अपने शब्दों में
बहुत-सी रौशनी और साहस
आम आदमी के संघर्ष की
लाल स्याही से लिखी इबारत

कुछ समय बाद लगा
सब कुछ सामान्य हो गया
पर सब कुछ सामान्य नहीं होता
वही है असमानता
और अन्याय
धर्म जाति के नाम पर नफरत
और पूर्वाग्रह के वही अंधेरे

आज भी बिकती है मेहनत
आज भी पसीना दागदार
आज भी जुल्म करने वालों और
जुल्म सहने वालों की वही कहानी है

वही हैं राजनीतिक झगड़े
और कुर्सी की खींचतान
कौन जीता है और
किसकी हुई है हार
कब रूका है यह सिलसिला
जंगों की है लम्बी श्रृंखला

नगर बदले हैं
महानगरों में
रफ्तार से कम होते
गए हैं फासले
नई सदी नई टेक्नोलाॅजी की
मशीनी दुनिया में
आदमी भी मशीन हो गया
हर दिन संवेदना से
दूर होता गया

इन अस्वाभाविक दिनों में
मैं तुम्हारी यादों में चलते हुए
बहुत दूर तक आ गई हूं
मौसम के बदलने की
सूचनाओं के साथ

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🔳 बूंद भर एक ख्वाब

बूंद भर एक ख्वाब
पलकों की रिहाइश छोड़कर
दरिया नहीं, नहर नहीं
और न बंधता है किनारों में

झरना होना चाहता है
चट्टानें तोड़कर
पत्थरों के बीच फूटकर
बहता है जंगल में
अंजान रास्तों पर
कंकड़-पत्थर वाली जमीन पर

बहता है प्रेम के क्षितिज पर
अलग- अलग रंगों से बनाता है
अपनी छवियां।

🔳 प्रस्तुति : नरेंद्र गौड़

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