जीवन की चाहत – बनाम पलायन

जीवन की चाहत – बनाम पलायन

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जीवन की चाहत हर किसी को होती है। वह मनुष्य हो या पशु पक्षी हो। जीने के लिए भोजन और पानी की मुख्य आवश्यकता है और इसी चाहत के चलते वह खोजता है सुरक्षित जगह इसलिए वह जगह बदलने को मजबूर होता है। इसे पलायन कहते है। इसको करने वाले को पलायन वादी कहा जाता है । उच्च शिक्षित को भारत में पर्याप्त अवसर नहीं मिलते है तो वह विदेशो में पलायन करता है।
पशु-पक्षी भी अपनी जरूरत की पूर्ति हेतु सुरक्षित जगह पलायन करते है और मौसम बदलता है तो फिर लौट आते है। मजदूर भी काम की तलाश में पलायन करते है अपनी आवश्यकता की पूर्ति न होने पर पलायन करते है जैस अभी कोरोना वाइरस की वजह से इधर का उधर पलायन हुआ जो सक्षम थे वे अपने साधनो से व असक्षम का हश्र पूरे देश ने देखा और लॉकडाउन कुछ हद तक उद्देश्यहीन हो गया। 

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देश के मुखिया ने अपना काम किया और लोगो ने सराहा और कुछ इंतजार किया जब हर ओर से असहयोग मिला तो वे अपने जीवन की चाहत में निकल पड़े अपने पैरों के सहारे अपने अपने घरों की ओर। कई यक्ष प्रश्नो के उत्तर दब गए जैसे स्थानीय प्रशासन, प्रदेश सरकार और समाज सेवियो ने इनकी कठिनाइयों को समझा होता तो शायद यह नहीं होता । जिसके साथ काम कर रहे थे उन्होंने तन मन और धन से अपने आप को अलग कर लिया, कुछ प्रदेश सरकारों का व्यवहार तो ऐसा लगा कि पड़ोसी राज्य हमारे देश का हिस्सा नहीं है तब मरता क्या नहीं करता तो उनको लगा पहले तो भूख से ही मर जाएंगे। उससे अच्छा है अपने घर /गांव जाकर कुछ करेंगे कोरोना से बाद में निपटेंगे क्योंकि इस महामारी की भीषणता का ज्ञान नहीं था । सांसद , विधायक और नेता राजनीति छोड़कर सही संदेश निचले स्तर तक पहुंचाने में असफल रहे और सोशल मीडिया तक सीमित हो गए क्योंकि वे उनके वोटर थोड़े ही है, इससे लगता है मानवता से ज्यादा वोट जरूरी है।

वोट और भूख में भूख ही भारी है और सही कदम में अपनों का साथ नहीं मिलता है तो मुखिया को शर्मिन्दा हो कर माफ़ी मांगनी पड़ती है माफ़ी के बाद भी जन प्रतिनिधि अपनी जवाबदारी को पूर्णतया निभाने में असफल हो रहे है सोशल मीडिया पर वार चालू है जो मजदूर की पहुंच से बहुत दूर है। प्रिन्ट मीडिया ने सही संदेश दिए पर पहुंचे कैसे यह बड़ी समस्या है दृश्य मिडिया ने असरहीन भूमिका निभाई और पलायन को बढ़ा दिया। स्थानीय प्रशासन और प्रदेश सरकारों ने समय रहते देश के मुखिया की बात को गंभीरता से लेते तो पलायन की यह विकट त्रासदी इतने बड़े स्तर पर नहीं फैलती। देश की सर्वोच्य न्यायालय द्वारा भी इस पर अपनी चिंता व्यक्त की गई ।

जब पलायन करने वाले मजदूरों से उनकी पीड़ा को सुना तो लगा की उनको दोष देना बेकार है। पीड़ा बताते हुए बताया गया कि सबसे पहले तो जिनके साथ काम कर रहे थे सहयोग के नाम उन्होंने हाथ ऊँचे कर दिए और गुमराह किया सो अलग। बची खुची उम्मीद स्थानीय शासन के लोगो के नकारात्मक व्यवहार ने तोड़ दी , भूख की कगार पर जाकर ही वहां से निकलने की अंतिम राह चुनकर अपनी रिस्क पर चल पड़े फिर हमने देखे ह्रदय विदारक दृश्य। सब दोष मजदूरों को ही दे रहे है जबकि दोष न देश के मुखिया का है और नहीं मजदूरों का बीच की कड़ी की असफलता है जो इतने बड़े पलायन के लिए जिम्मेदार है तथा ऐसी जिम्मेदारों ने देश को बड़ी मुसीबत में धकेल दिया है उनका कुछ होगा क्या ? या सारा कलंक मजदूरों को ही झेलना है –तुलसी दास जी ने कहा है –“समरथ को नहिं दोष गोसाई”

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