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हे महाकाल ! मैं अत्यंत लज्जित हूँ !

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कल दैनिक भास्कर के उज्जैन संस्करण में पेज नम्बर चार पर ‘माँग’ का एक समाचार पढ़कर स्तब्ध रह गया। दिनभर, रातभर ख़ूब सोचा कि इस ख़बर का पोस्टमार्टम कर अपनी जाँघ न उघाडू लेकिन अब ख़ुद को ज़ब्त रख पाने में असमर्थ हूँ।

जिन्हें बुरा लगे वे क्षमा करें, मुझे शाप दे या सरेआम कॉलर पकड़ कर अपनी भड़ास निकालना हो तो वह भी कर लें। सब स्वीकार है।

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ख़बर ये है कि महाकाल के पंडे-पुजारियों की ओर से सूबे के मुख्यमंत्री से माँग की गई है कि कोरोना संकट में उनकी रोज़ी-रोटी मुश्किल में है। सारे पंडे-पुजारी अवैतनिक हैं और यजमानों के दान के सहारे ही जीविकोपार्जन करते हैं, अतः सरकार सभी को और उनके प्रतिनिधियों को मन्दिर की ओर से नकद राशि तथा तीन-तीन माह का राशन उपलब्ध कराएं।

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कमाल हो गया भाई! अभी तो लॉकडाउन को पूरा एक माह भी न हुआ और आप पेट बजाते हुए प्रेसनोटबाज़ी पर उतर आए!

ज़माना जानता है कि महाकाल मंदिर में हर महीने करोड़ों का दान आता है और उसमें से एक बड़ा हिस्सा गर्भगृह में बैठने वाले 16 पुजारियों और उनके परिजनों को अनन्तकाल से मिलता है। मन्दिर के बाक़ी 21 पुजारियों और उनके दर्जनों प्रतिनिधियों को पूजा-पाठ, जाप आदि करने कराने पर यजमानों-श्रद्धालुओं से रोज़ हजारों का दान मिलता है। इतना कि बीते बीस-तीस सालों में हर पुजारी गले-गले तक मालदार हो चुका है। ज्यादातर अपने तोंद वाले मोटी गर्दन के बदन पर दस-दस तौला सोना और शानदार चमकीले दुपट्टे-धोती पहन इठलाते फ़िरते हैं। ज़्यादातर के पास दो-दो, तीन-तीन पक्के सर्वसुविधायुक्त आलीशान मकान हैं। कई सौ-सौ बीघा खेतों के मालिक हैं और कुछ के तो देश के दस-दस शहरों में करोड़ों के बंगलें हैं। महँगी गाड़ियाँ हैं, हवाई जहाजों में सफ़र करते हैं। ब्रिसलरी का पानी पीते हैं और ज़्यादा खाने से बीमार पड़ जाए तो तीन सितारा अस्पतालों के नीचे अपना इलाज नहीं कराते।

घर में बेटे-बेटियों की शादी हो तो पाँच दिन का ब्याव मांडते हैं और मलाईदार पाँच-पाँच मिठाइयों वाला परम राजसी भोजन बनवाते हैं। जिनके घरों में बच्चे की पैदाइश पर सूरज पूजा जैसे छोटे कार्यक्रमों में हजार-हजार लोगों की रसोई होती है।

हद है, ज़रा-सी बुरी बेला क्या आईं, उनके घरों के चूल्हे ठंडे पड़ गए। जो रोज मन्दिर से लौटते समय किलो-किलो प्रसादी मिठाई, सूखे मेवे, फल और अनाज के भरे झोले घर ले जाते हैं, वे एकदम से भूख-भूख चिल्लाने लगे। सरकार से राशन माँगने के लिए लक्ज़री गाड़ी में कर्फ़्यू की लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण कर अख़बारों के दफ़्तरों में पहुँचे और सरकार के सामने कटोरे का प्रेसनोट फैला दिया।

जानता हूँ आपको यह पढ़कर उतनी ही बड़ी मिर्ची भरायेगी जितना ऊँचा और तीक्ष्ण गर्भगृह में महाकाल का त्रिशूल है। सम्भव है तिलमिला कर आप मंत्रों का भूल मुझे गालीगलौज करने से भी न चूके, मगर अपनी आत्मा में झाँककर अपने भीतर के भगवान से पूछिएगा कि यह ‘माँग’ कितनी उचित, कितनी न्याय और धर्म सम्मत है?

तब जब पूरी मानवता एक विषाणु के असर से तड़प रही है, लोक कल्याण के लिए विषपान करने वाले नीलकंठ महाकाल के उपासकों की यह हरक़त किसी के गले उतरने वाली नहीं है।

अरे! यदि आपको ज़रा भी महाकाल की महिमा का बोध हो तो बजाय सरकार से राशन और धन माँगने के अपनी अंटी में दबाया धन उन गरीबों और जरूरतमंदों के लिए निकालिए जिन्हें इस वक्त वास्तव में राशन की ज़रूरत है।

महाकाल के नाम पर माल कमाकर घरों में मख़मली बिस्तरों पर ऊँची टाँग कर पड़े रहने के बजाय अपनी बस्तियों के आसपास निकलिए और असल निर्धनों को अन्नदान देकर उन पापों का प्रायश्चित कीजिए जिनके तहत अपात्र होते हुए भी आपने दान के धन से अपनी तिजोरियाँ भर रखी है।

मत भूलिए, महाकाल सब देख रहा है। वह पत्थर नहीं परमात्मा है। परम प्रकृति पुरुष और चरम चैतन्य। यह जगत, इसका कण-कण प्राणवान है। हमारे हर कर्म प्रतिध्वनित होते हैं। आज तक ऐसी कोई चिट्ठी नहीं, जिसका प्रत्युत्तर न आया हो। विश्वास रखिए हर चिठ्ठी का जवाब आएगा। इस चिट्ठी का भी…महाकाल भोला जरूर हैं मगर मूर्ख नहीं और मूर्ख भी होगा, मगर उतना नहीं जितना आपने उसे समझा है।

हे महाकाल! मैं अत्यंत लज्जित हूँ!

और हाँ, सरकार न दे तो मुझे कहिएगा! मैं जन्मजात सुदामा आपको तीन नहीं, छह माह का राशन भिजवा दूंगा। महाकाल की कृपा से मेरे घर ख़ूब अन्न भंडार भरा है। देने के लिए भाव की जरूरत है, हैसियत की नहीं।

दुनिया में झगड़ा रोटी का नहीं ‘थाली’ का है। भिखारी वो नहीं जो भूखा और याचक है बल्कि वो है जिसकी तृष्णा सदा भूखी है।

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