कोरोना प्रकोप के चलते हर मानव में निर्मित हो दया, सेवा, दान के भाव : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

हरमुद्दा

रतलाम,17 अप्रैल। दया रहित आंख, सेवा रहित हाथ, दान रहित द्रव्य बेकार माना जाता है। ये तीनों चीजें जिसे प्राप्त हो और वह दया, दान और सेवा में अपने आप को समर्पित नहीं करता, तो वह मानव उत्तम मानव नहीं कहलाता। कहने को पशु भी अपना पेट भरते है, इसलिए सक्षम व्यक्ति रूपी मानव दूसरों का पेट नहीं भरता, तो वह पशु तुल्य होता है। कोरोना के प्रकोप के चलते हर मानव में दया, सेवा, दान के भाव निर्मित होने चाहिए और वह सदैव जागृत रहना चाहिए।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों के लिए प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि पशुता और मनुष्यता में यहीं अंतर है। पशु सिर्फ अपने लिए जीता और मरता है,जबकि दूसरों के लिए जीने और दूसरों को बचाते हुए अपने प्राणों का बलिदान करने वाला मानव श्रेष्ठ और महामानव कहलाता है। हर व्यक्ति को याद रखे कि वह आंख, आंख नहीं और वह दिल, दिल नहीं जिसमें किसी की मुसीबत नजर नहीं आती। मनुष्यत्व का यही तकाजा है कि हर मुसीबत से घिरे मानव को वह पहचाने जैसी पहुंच बनाए और उसे सुख का आश्वासन प्रदान करे। समय परिवर्तनशील है। आज जैसा समय कल नहीं रहेगा, लेकिन आज जिसने मनुष्यत्व का परिचय दिया है, कल उसी का इतिहास लिखा जाएगा। जीवन मैत्री से ही जीव मैत्री के द्वार खुलते है। अन्य जीवों में जो अपनी तरह का जीवन देखता है, उसका अनुभव करता है, वह जीव मैत्री के भावों को दया, सेवा और दान में साकार करता है।

खिलाकर खाने में जो मजा है, वो खाकर खिलाने में नहीं

आचार्यश्री ने कहा कि धर्मशालाओं पर अपना नाम खुदवाने वाले कई लोग मिलेंगे, मगर बिना नाम की कामना के दान देने वाले बहुत कम मिलते है। छोटी सी धर्मशाला पर बडा सा नाम खुदवाने वालों के दिल में दान का भाव कम और अहंकार का ज्यादा होता है। कटु सत्य यह है कि जीव जिस चीज का अहंकार करता है, अगले जन्म में उसे उसी का अभाव सहना पडता है। इसलिए मुसीबतों का सामना करने वाले मानवों की पीडा सुनो, समझो और उसका निवारण करने में अपनी ताकत लगा दो, यही धर्म का मर्म है और यही धर्म का मंगल है। खिलाकर खाने में जो मजा है, वो खाकर खिलाने में नहीं। खाकर जो खिलाते है, वो पुण्य बढाते है और जो खिलाकर खाते है, वे अपना धर्म बढाते है। पुण्य सुख देता है, जबकि धर्म आनंद देता है। सुख कभी भी दुख में बदल जाता है, लेकिन आनंद यदि प्राप्त होता है, तो स्थायी बना रहेगा। आनंद आत्मा का स्वभाव है, जो मैत्री भावों से प्राप्त होता है।

प्रकृति की हर घटना सत्य का अनावरण

आचार्यश्री ने कहा कि जीवन में हमेशा दूसरों की आह दूर करना चाहिए। आह दूर नहीं कर सको, तो किसी की आह नहीं लेना चाहिए। अन्यथा वह सुखी जीवन में दाह लगा देगी। जीवन में रूके हुए को गति दो। बिगडे हुए को मति दो। युवाओं को होश दो। बुजुर्गो को जोश दो। बच्चों को संस्कार दो। उजडे हुए को संवार दो। विरोधी को भी साथ दो और दुखियों के हाथ में हाथ दो। अपराधी को क्षमादान दो। हर किसी को इन्साफ दो। लडखडाते हुए को शक्ति दो। इसी में अपने जीवन की महत्ता और विशेषता समझो, अन्यथा यह जीवन कब राख की ढेरी बन जाएगा, कोई पता नहीं है। कोरोना का यह प्रकोप चिंतन को नए आयाम देने वाला बन रहा है। प्रकृति की हर घटना सत्य का अनावरण है। चेतना का जागरण है और शुभ कर्मों का आचरण देने के लिए प्रेरित करती है। वक्त का काम तो गुजर जाना है, इसलिए बुरा वक्त हो, तो सब्र करो और अच्छा हो तो शुक्र करो। वक्त को बदनाम करने के बजाए अपने कर्मों का अवलोकन करना चाहिए। हर अतीत व्यतीत हो जाता है,इसलिए उससे सबक लेकर हर भविष्य से सदैव आशाएं रखनी चाहिए।

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