उम्मीद परिंदे की

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🔲 मंजुला पांडेय

काल खड़ा है
देख सामने
लौट रहा है
आज परिंदा
अपनी नीड़ के
कुछ बचने की
उम्मीद लिए।

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पैरों में चलते-चलते
पड़ गए छाले
माथे भरा है
आज खूब पसीना…
काफुर हुई है
भूख भी आज
कुछ पल जी लेने की
उम्मीद लिए।

बोतल गठरी
झोला -झम्टा
बक्से में टूटे
शेष उम्मीदों के
कुछ पंख लिए।

आस का तिनका
चौंच में लेकर
गिरकर फिर उठने की
उम्मीद लिए।

अब लौट आया
उस और परिंदा
जिसे छोड़ चला था
इक रोज परिंदा
नैनों में भर
कुछ स्वप्न सुनहरे
नीड़ को अपने नव सृजन से
गढ़ने की उम्मीद लिए।

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दान

अरे! भरे हुए को
क्या भरना ??
कुछ मुफलिसी
का भी ध्यान रहे

अंदर के तो
अपने हैं
हमें हर वक्त
उनका ध्यान रहे

अपने लिए भी
हम जी रहे
कुछ पड़ोस में आए
परदेशी की भूख का
भी भान रहे

ना लाया था
न ले जाएगा
पाया-खोया सब
यहीं रह जाएगा

संवेदनाओं के भाव
जो तुममें न उभरे
गर ह्रदय ही
तेरा संज्ञा शून्य हुआ ?

तो जीते जी
तेरे जानिब से
सारा जग
शमशान हुआ।

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🔲 मंजुला पांडेय

रचनाकार परिचय
🔲 जी.जी.आई.सी मूनाकोट में प्रवक्ता गणित पद पर कार्यरत।

🔲 जन्म व शिक्षा, नैनीताल में।

🔲 शिक्षिका होने के नाते छात्र-छात्राओं के लिए लेख, कविता, नाटक, गीतों की रचना।

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