सिर्फ समय बिताने का माध्यम नहीं, सृजन की प्रेरणा देता है फेसबुक : देवकी भट्ट नायक ‘दीपा’
🔲 नरेंद्र गौड़
शाजापुर, 31 मई। सोशल मीडिया खासकर ब्लाॅग और फेसबुक जैसे माध्यम, साहित्य के लिए बहुत सी संभावनाएं और आशंकाएं लेकर आए हैं। ‘फेसबुक और आभासी दुनिया’ जैसे जुमले इसके लिए आम तौर पर सुने जा सकते हैं। लेकिन इसी दुनिया में एक उभरता हुआ नाम देवकी भट्ट नायक ‘दीपा’ का है।
साहित्य जगत में न केवल स्वयं का नाम रोशन किया है वरन् अपनी सखी सहेलियों को भी श्रेष्ठ साहित्य रचने की दिशा में प्रेरित कर रही हैं। आप स्व. रुद्रदत्त भट्ट आनरेरी केप्टन भारतीय सेना तथा उनकी पत्नी स्व. कमला देवी भट्ट की बेटी है। यह एक विरल संयोग है कि देवकी भट्ट हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य तथा अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर उपाधि की त्रयी से विभूषित हैं। साहित्य सृजन की शुरुआत दीपा भट्ट के नाम से की है।
मिलता रहता है पत्र-पत्रिकाओं में विशिष्ट स्थान
आपका मानना है कि फेसबुक सिर्फ समय बिताने का माध्यम नहीं है वरन् यह नवोदित रचनाकारों को सृजन की प्रेरणा भी देता है। आपने पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स किया है, इनकी अनेक रचनाएं दैनिक नवदुनिया, नारी संबल, दैनिक आचरण, नाइस डे, अबला नारी, साहित्य सरस्वती आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है।
भारतीय महिला फेडरेशन की है संयोजक
इनकी कहानी एवं कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी सागर एवं दूरदर्शन भोपाल से होता रहा है। आपने कई गोष्ठियों में अपनी रचनाओं का पाठ किया है। आप भारतीय महिला फेडरेशन की भी संयोजक हैं। आपका लेखन एवं जीवन महिला विमर्श, बाल विकास एवं शिक्षा के लिए समर्पित है। इन दिनों आप शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय महारानी लक्ष्मीबाई सागर मप्र में शिक्षिका हैं। इन्हें 2015 में राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से नवाजा गया है।
चुनिंदा कविताएं
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खिलना फूल का
सोचती हूं सोचती ही रह जाती हूं
कली व फूल के बारे में
दुनिया के व्यवहार पर
अंकुर से लेकर वृंत पर
कली से फूल बनने की
सम्पूर्ण प्रक्रिया के बाद
जब उनके खिलने का क्रम आता है
तब कोई न कोई हाथ
बढ़ ही जाता है उसकी ओर
लगता है दुनिया रंग और गंध का
सबसे विक्रत प्रयोग
फूल को तोड़कर ही करती है
हर श्रद्धा उसे देव के
सिर पर चढ़ाना चाहती है
वृंत पर खिला रहना पसंद ही नहीं है जैसे
मैं सोचती हूं कि यदि
सलामत रहे फूल
तब भी बाधित नहीं हो सकती श्रद्धा
खाली जुढ़े का भी
अपना अलग सौंदर्य होता ही है
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एक पूरी जमात
भोगती अमंगल
एक पूरी की पूरी जमात है
यह मंदिर, यह देव स्मरण
किस लालसा की पूर्ति की आकांक्षा है
जो नहीं है, जो नहीं है ऐसा क्या है
जिसके लिए उठ भुनसोर
नहा रही है कड़कड़ाती ठंड के बावजूद
कतारबद्ध है मंदिरों में
मंदिर क्यों बुलाता है बारम्बार
क्या फिर से ही सबकुछ बिगड़ कर है
जिसे बनाने के पल में
खुल रहा है मौन अंदर ही अंदर
बुदबुदाहट में, परम्पराओं, मर्यादाओं,
नैतिकताओं के हर स्वरूप के स्वीकार
और उसमें पूर्णतः भागिता के
बावजूद लोकगीतों में क्यों हुमकती है उनकी हूप।
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दहेज
मैंने आत्मा को नहीं मारा
गला घोंटा नहीं जमीर का
इसलिए आज बेचैन हूं
आज जब मेरी सहेली की शादी की
पक्कियात की बात हो रही है
उसमें हो रही है खुलकर सौदेबाजी
कितनी बरेक्षा कितना फलदान
और कितना दहेज
किस किस जिंस में दिया जाएगा
बता रहे हैं वर पक्ष की ओर से आए हुए मध्यस्थ
एक एक रेशा उघाड़ा जा रहा है
सीवन का और मैं अपने घर में
पड़ोस से मांग कर लाए गए सौफे में
बैठे वे अपनी विषबुझी तमन्नाओं के तीर से
विदग्ध कर रहे हृदय
धरती पर पूत के जन्मने के बाद से
जारी खुशियों का यह चरम पल है
खुश हैं लड़के के पिता दादा मामा
वे एक एक कर फेक रहे हैं पासा
ब्याह की जमी हुई चोपड़ पर।