क्या थे, क्या हो गए

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🔲 आशीष दशोत्तर

जूना, पुराना सामान, रद्दी वाला……… आवाज़ लगाता हुआ वह घर के सामने रुका । पूछने लगा रद्दी, अटाला, भंगार.. है क्या बाबू जी? मैंने नहीं में सिर हिला दिया। घर का दरवाज़ा खुला हुआ था और घर के भीतर सामने की तरफ अख़बार की रद्दी का ढेर लगा हुआ था जो उसकी नज़र में आ गया। उसने उस तरफ देखते हुए कहा, बाबूजी यह रद्दी पड़ी तो है। इसे दे दीजिए न। मैंने कहा , नहीं मेरा रद्दी वाला हर माह आता है और वह ले जाता है। अभी तीन माह से नहीं आय है इसलिए यह ढेर लग गया है। फिर तुम इसके वह भाव नहीं दोगे जो वह देता है। कुल मिलाकर मेरी मंशा उसे रद्दी अख़बार देने की नहीं थी ।
उसने फिर आग्रह किया। बाबूजी दे दो आपके हाथ से बोनी हो जाए। मैडम ( हमारी बातें सुन भीतर से झांक रही पत्नी की तरफ इशारा करते हुए) से पूछ लीजिए, अभी दो महीने पहले ही आपके यहां जीरा, धनिया और सौंफ में ही देकर गया था।

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उसकी इस बात पर मुझे हैरानी हुई । एक कबाड़ी का जीरा, धनिया और सौंफ से क्या संबंध ? मैंने पूछा कि तुम जीरा, धनिया, सौंफ कैसे देकर गए थे ?

उसने बताया, उसका धंधा तो सौंफ, जीरा और धनिया बेचने का ही है । बाहर से सामान लाता है । ठेला गाड़ी पर मोहल्ले- मोहल्ले जा कर बेचता है । पिछले दो महीनों से हालत इतनी बुरी है। न तो बाहर से सामान आ रहा है और नहीं पास में इतना सामान है कि उसे बेचकर अपने दिन गुज़ारा जा सके, इसलिए और कुछ धंधा सूझा ही नहीं दिया , तो आज से यह कबाड़ी का काम ही शुरू किया है ।इसीलिए कह रहा हूं कि आपकी रद्दी दे दीजिए ताकि इस नए धंधे की शुरुआत आपके हाथों से ही हो जाए। उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव , हालात से उपजी विवशता और उसके आग्रह को मैं टाल नहीं सका । सारी रद्दी उसे दे दी , वह भी उसके कहे भाव पर।

तकरीबन एक माह पूर्व जबकि लॉकडाऊन का तीसरा दौर जारी था, तब घर की तरफ एक अख़बार बेचने वाला हाकर आया। उसका चेहरा देख मैं उसे पहचानने की कोशिश करने लगा। उस समय तो नहीं पहचान पाया लेकिन बाद में मुझे ख्याल आ गया कि वह बाज़ार में सिंगदाने , चने बेचने का ठेला लगाता है। अगले दिन जब वह आया तो मैंने पूछ लिया, तुम तो वही हो न जो चने , सिंग दाने बेचते हो ? उसने कहा आपने मुझे पहचान लिया । मैंने पूछा, यह भी काम करते हो? उसने कहा नहीं यह तो मजबूरी का धंधा है। अभी काम बंद है। घर में फाके पड़े हैं । बची- खुची रकम से जैसे-तेसे गृहस्थी चल रही है, तो क्या करें। कुछ नहीं है तब तक यही काम करते हैं । इन दो वाकयों ने एक ऐसे भयानक दृश्य को आंखों के सामने ला दिया जिसने कई सारे सवाल पैदा कर दिए । अपने छोटे से शहर के यह दो प्रकरण जो मेरी निगाह से गुज़रे , ऐसे कई प्रकरण होंगे ,जिनसे आप भी दो-चार हुए होंगे । इन्हें देखते हुए किसी बड़े शहर , महानगर या पूरे देश में लोगों के रोजगार के परिवर्तन और मजबूरियों का अनुमान लगाया जा सकता है।

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‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसे जुमलों पर गर्व करने वाले हम अब ‘स्टेप डाउन ‘ जैसे पीड़ादायक वाक्यों पर चिंता करना शुरू कर दें । विशेषज्ञ बताते हैं कि देश में इस वक्त रोज़गार की स्थिति बड़ी खराब है। लाखों लोग जो इस तरह का छोटा-मोटा काम कर अपना जीवन यापन कर रहे थे वह सब अपने काम से अलग हो चुके हैं। उनके सामने अब यह संकट है कि वे क्या करें, कहां जाएं और किस धंधे से अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करे। लोग जो दिहाड़ी व्यवसाय करते हैं, ठेले लगाकर, खोमचे लगा कर छोटे-मोटे धंधे कर अपना जीवन यापन करते हैं उनके सामने अपने धंधे को बदलने का और नए धंधे शुरू करने का संकट खड़ा है। इस वक्त उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वे क्या करें और क्या न करें। कल तक जो अपने को छोटा-मोटा धंधा कर सुरक्षित महसूस कर रहे थे, आज वे ऐसे धंधे करने पर विवश है जिसकी कल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी।

इस संक्रमण काल ने हर व्यक्ति को अपने कार्य से इतर कार्य करने के लिए मजबूर किया है। अभी तक ऐसे व्यवसाय से विमुख हुए लोगों की तरफ ध्यान देने की फुर्सत किसी सरकार ने नहीं निकाली है । कहीं पर ऐसे लोगों की चिंता नहीं है जो अपने मूल व्यवसाय को छोड़ने पर मजबूर हुए हैं। इन्हें इनके मूल व्यवसाय की तरफ लौटाया जा सकेगा, इसकी गारंटी देने वाला भी कोई नहीं है। ये अपने ज़िंदगी को ठीक तरह चला पाएंगे, इसका भरोसा जताने वाला भी कोई नहीं है। इनके घर में सुख शांति बनी रहे इस बात को लेकर भी कहीं कोई फिक्र नहीं है। देश में ऐसे लाखों लोग कहां से कहां आ गए , पहले क्या थे अब क्या हो गए और आनेवाले वाले भयानक दौर में और क्या हो जाएंगे , इसकी कल्पना करने वाला भी कोई ज़िम्मेदार नज़र नहीं आता है।

🔲 आशीष दशोत्तर

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