वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे ज़िन्दगी-10 : ताकड़ी : आशीष दशोत्तर -

 ताकड़ी

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🔲 आशीष दशोत्तर

” गाड़ी पर या ताकड़ी नी संभले है’… यह कहते हुए उसने अपने पति से कहा कि गाड़ी स्टेंड पर लगा ले ताकि बार-बार ताकड़ी(तराजू) नहीं संभालना पड़े। ये पति -पत्नी सब्जी बेचने वाले हैं। मोटरसाइकिल पर इन दिनों सब्जी बेच रहे हैं। मोटर साइकिल के पीछे बांस के सहारे दो कैरेट लगवा लिए हैं। तीन-चार सब्जी की पोटलिया आगे हैंडल पर लगी है। पति गाड़ी चलाता है। पत्नी पीछे थोड़ी सी जगह में बैठ जाती है। आवाज़ लगा लगाकर मोहल्लों में सब्जी बेचते हैं।

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कल सब्ज़ी खरीदने के लिए रोका। पति ने गाड़ी खड़ी कर दी।पत्नी गाड़ी से उतर गई। पति ने गाड़ी पर बैठे-बैठे ही अपनी ताकड़ी यानी तराजू को हाथ में पकड़ा और सब्जी तोलने लगा। मोटरसाइकिल पर बैठकर सब्जी तोलना, वह भी पुरानी तरह की तराजू पर, बड़ा मुश्किल है। मैंने सहज ही कहा एक इलेक्ट्रॉनिक तराजू गाड़ी के आगे हैंडल पर लगवा लो, संभालना भी नहीं पड़ेगा और कोई परेशानी भी नहीं होगी। तोल सही होगा सो अलग।

पति कुछ बोलता उसके पहले ही पत्नी बोल पड़ी, क्या-क्या करें बाबू जी। पिछले दो महीनों से समझ ही नहीं रहा आ रहा है कि हमें क्या करना है और क्या नहीं? जितना करो उतना कम लग रहा है। पहले सब्जी बेचने के लिए मैं अकेले सर पर टोकरा लिए गली-गली फिरती थी। सब्जी बिक जाती थी। परिवार पल रहा था।

पिछले दिनों हालत इतनी बिगड़ गई कि पैदल घूम कर सब्ज़ी बेचना मुश्किल हो गया। गाड़ी पर सब्जी बेचने की शुरुआत की। गाड़ी पर सब्जी ले कर घूमना मेरे बस में नहीं तो पति को भी साथ लिया। पहले दो लोग कमाकर लाते थे । हम दोनों मिल कर एक ही काम कर रहे हैं। गाड़ी पर सारी व्यवस्था की। गांव से आना, पेट्रोल का खर्चा, इसके बाद कहते हो कि इलेक्ट्रॉनिक तराजू उस पर लगा लो। अब कहां से लगाएं बाबूजी।

लोग सब्ज़ी के भाव वही देते हैं जो बाजार में है। पहले पैदल घूम कर सब्जी बेचते थे तो पेट्रोल का खर्च नहीं लगता था। अब पेट्रोल का खर्च लगता है। लोग दस सवाल पूछते हैं। किस गांव से लाए हो, सब्जी कब की है, पानी कहां से लेते हो, सफाई रखते हो या नहीं, किस – किसको क्या-क्या जवाब दें।

हर दिन नई मुश्किल सामने आती है। कभी लगता है कि आज यह किया है, कल यह भी कर लेंगे, लेकिन करते-करते हम तो थक गए हैं। कमाई आधी रह गई है। मेहनत दुगनी हो गई है। खर्चे बढ़ गए हैं। बचत कुछ नहीं हो रही है। जीने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, वह अलग।
ये सारी बातें महिला एक सांस में कह गई। उसकी बात सुनकर लगा कि वह शायद इन सब मुश्किलों से दो-चार होते होते थक गई है। लगा कि जो बातें उस महिला ने कही वे सारी बातें हम सभी पर ठीक बैठती है। सब्जी खरीद रहे चार लोग भी वहां मौजूद थे। किसी ने उस महिला की बात को ग़लत नहीं बताया, बल्कि सभी ने उसकी बातों का समर्थन किया। यानी हर कोई इन बदली परिस्थितियों से खुद को बहुत असुरक्षित और असहाय महसूस कर रहा है।

उस महिला की बातों को सुनकर लगा कि एक सामान्य सब्ज़ी बेचने वाला परिवार जो इस बदलते वक्त में खुद को ढाल कर यह कोशिश कर रहा है कि वह किसी तरह अपनी ज़िंदगी को ठीक तरह चला ले, फिर भी समय के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा है। ऐसे लाखों लोग हैं जो इस बदलते समय के साथ खुद को बदलने की कोशिश करते हुए भी असहाय महसूस कर रहे हैं। ऐसे लोग किसकी फ़िक्र में है? ऐसे लोगों पर कौन ध्यान दे रहा है? इनकी चिंताओं में कौन शामिल है? इनकी ताकड़ी को कौन संतुलित करेगा?

🔲 आशीष दशोत्तर

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