इंतज़ार

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🔲 आशीष दशोत्तर

उस के हाथों में केतली की जगह थरमस था। कांच के गिलास का स्थान कागज के गिलास ने ले लिया। हाथ में दस्ताने पहने हुए थे। पास आते ही उसने पूछा, बाबू जी चाय पीएंगे क्या ? बीच बाजार में कहां से चाय ले आया है? मेरे पूछने पर बोला, घर से बना कर लाया हूं। ‘ घर कहां है ?’ कहने लगा यहां से काफी दूर। उसके इस कथन पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी दूर से थरमस में चाय लेकर आया है और इस तरह बाजार में बेच रहा है।

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पूछने पर बोला, क्या करें बाबू जी मजबूरी है। पहले चाय की होटल पर काम करता था। रोज तीन सौ रुपए मजदूरी मिल जाती थी। सुबह-शाम नाश्ता मिल जाता था। पिछले दो महीनों से सारा काम बंद है। अब होटल खुली भी है तो होटल मालिक ने काम पर रखने से मना कर दिया है। अभी उतनी ग्राहकी नहीं हो रही है। मालिक खुद ही अभी होटल चला रहे हैं। किसी नौकर को नहीं रखा। पहले होटल पर कांच के गिलास धोने का भी काम होता था, अब डिस्पोजल गिलास होने से गिलास धोने वाला भी नहीं आ रहा है। हम चाय दुकानों पर ले जा कर देते थे। हमें भी काम पर नहीं बुलाया जा रहा है , क्योंकि अब लोग चाय मंगवा ही नहीं रहे। ऐसे में कुछ तो करना ज़रूरी है, इसलिए घर से बड़े थरमस में चाय भर कर निकलता हूं और इसी तरह दुकानों पर घूम-घूम कर चाय का पूछता हूं।
मैंने पूछा कि इससे कितनी आमदनी हो जाती है। रुआंसा होकर कहने लगा, आमदनी की छोड़िए साहब। चाय जितनी लेकर आता हूं उतनी भी नहीं बिकती। चार-पांच घंटे घूमने के बाद भी थरमस में चाय ले जाना पड़ती है।

उसकी स्थिति को देख महसूस हुआ कि उसके जैसे न जाने कितने ही मजदूर हैं जो ऐसे छोटे-मोटे काम कर अपना जीवन यापन कर रहे होंगे। जो इस लॉक डाउन की स्थिति के बाद पूरी तरह बेरोजगार हो गए हैं। इनके पास कोई काम नहीं है। आने वाले समय में भी इन्हें कोई काम मिल जाए, इस बात की अभी कोई संभावना नहीं दिखती है। ऐसे में ये करें तो क्या और कहां जाए? एक छोटे से शहर ये हाल है तो अन्य बड़े शहरों और पूरे देश भर में इस तरह के लोगों की गुजर कैसे हो रही होगी, यह सोचा जा सकता है। लॉक डाउन के दौरान जो संस्थाएं, समाजसेवी भोजन के पैकेट या राशन का वितरण कर रहे थे, वो भी भी अब बंद हो चुका है। उस सहारे के न होने से इनके सामने बडा संकट खड़ा हो गया है।

कहने के लिए इन्हें राशन मिल रहा है लेकिन सिर्फ राशन मिलने से जीवन की दूसरी ज़रूरतें पूरी नहीं होती है। इस चाय बेचने वाले लड़के ने बताया कि उसके घर में अभी कोई काम नहीं कर रहा है। उसके दो और भाई भी होटल पर काम करते थे। उन्हें भी अभी कोई काम नहीं मिल रहा है। पिता मजदूरी का काम करते थे, उन्हें भी कोई नहीं बुला रहा है। मां घर में ही छोटा-मोटा काम किया करते थी, वह भी बंद है। यानी पूरा परिवार बेरोजगार है। ऐसे कितने ही परिवार होंगे जो अपनी ज़िंदगी पर पड़े ताले के खुलने का इंतज़ार कर रहे हैं।

🔲 आशीष दशोत्तर

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