‘मालवा के मुरलीधर’ : राजशेखर व्यास
मालवा के मुरलीधर
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🔲 राजशेखर व्यास
मुरलीधर चाँदनीवाला इस युग के ऋषि कवि हैं। आत्म-प्रसिद्धि और आत्म-प्रचार से दूर नि:स्पृह भाव से सृजनरत संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ और संवेदनशील कवि मुरलीधर जी का नया संग्रह ‘विरासत के फूल’ मेरे हाथों में है और मेरी आँखों से झर-झर आँसू। वैदिक ऋचाओं सी मंत्रबद्ध ये कविताएँ कभी माँ की गोद में झूला झुलाती हैं, तो कभी पिता के श्रीचरणों में बैठा देती हैं। कभी बहन की ममतामयी आँचल की छाँव में, मानो बेटी आई हुई है इन दिनों।
दरअसल जब मैं बहुत छोटा था, तो पूज्य पिता के आवास ‘भारती भवन’ में डाॅ.भगवतशरण उपाध्याय लिखित और अनूदित ‘कालिदास के सुभाषित’ पढ़ते हुए मेरा बचपन बड़ा हो रहा था, तब ‘नवनीत’ में आचार्य मंगलदेव शास्त्री, डाॅ.पृथ्वीनाथ शास्त्री जैसे मनीषियों द्वारा ऋग्वेद , यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के भावानुवाद पढ़ते हुए बड़ा हुआ। यह भी एक सुखद संयोग है कि डाॅ. मुरलीधर चाँदनीवाला मेरे ज्येष्ठ अग्रज डाॅ.रश्मिकान्त व्यास के सहपाठी और बालसखा रहे, इसी कारण स्वतः ही मेरे प्रातःस्मरणीय पिता पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास के सहज ही पुत्रवत स्नेहभाजन भी थे। इन अर्थों में मुझसे ज्यादा सौभाग्यशाली भी वे रहे कि उन्हें पूज्य व्यास जी का स्नेह और आशीर्वाद मुझसे ज्यादा ही उपलब्ध हुआ। बालकवि बैरागी , प्रभाकर श्रोत्रिय, डाॅ. विष्णु श्रीधर वाकणकर, डाॅ.भगवतशरण उपाध्याय, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ ये सब व्यास जी के ‘नवरत्न नक्षत्रलोक’ में थे, और इन सभी का सहज स्नेह डाॅ. मुरलीधर चाँदनीवाला को उपलब्ध था। सौभाग्य से इन सभी की आत्मीयता का सुपात्र मैं भी रहा हूँ।
मुरलीधर जी के पिता पं. कमलाकांत जोशी प्रसिद्ध खगोल-शास्त्री थे और उज्जैन की वेधशाला के आरम्भिक अधीक्षकों में से एक थे। इनके पितामह पं. रामचंद्र केशव जोशी भी दैवज्ञ किस्म के वेदज्ञ थे। फिर ये जोशी परिवार ‘चाँदनीवाला’ कैसे हुआ, यह भी एक दिलचस्प प्रसंग है। दरअसल घर के ऊपर जो छत बनी रहती है, उसे हमारे मालवा में ‘चाँदनी’ कहते हैं। इनकी ‘चाँदनी’ इतनी बड़ी थी, कि महाराजा धार से लेकर राजा भोज की धारा नगरी के सामान्य जन भी इन्हें ‘चाँदनीवाला’ नाम से पुकारने लगे। आज उसी चाँदनी पर इनकी मर्मस्पर्शी और गहन अन्तर्भेदी कविताएँ ऐसी अद्भुत चाँदनी बिखेर रही है, जो विरासत में इन्हें अपने पिता और पितामह से मिली। अपनी परम्परा को मुरलीधर जी ने छू कर पवित्र, उज्ज्वल और दुग्ध-धवल कर दिया है। कभी-कभी तो लगता है , मानों इनकी कविताएँ वैदिक ऋचाओं की तरह सीधे-सीधे नक्षत्रों से उतरी हैं।
बहुत बरस पहले डाॅ. मुरलीधर चाँदनीवाला की कविता ‘ बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर’ सम्भवतः नईदुनिया या इंटरनेट पर पढ़ी थी, तब आँखों से झर-झर आँसू बह निकले थे। हमारे बचपन के संस्कारों में पूज्य पिता और मेरी माँ बहन-बेटियों का अपार आदर करते थे। एक बार दोनों ज्येष्ठ अग्रजों के किसी व्यवहार से आहत होकर दोनों बड़ी बहन किरण दीदी और कुमुद दीदी ‘भारती भवन’ न आईं तो यह कविता फिर याद हो आई और मैं बहनों को ले आया। आप भी पढें और अपनी आत्मा को निर्मल आँसुओं में स्नान करने दें-
बेटियाँ पीहर आती हैं
अपनी जड़ों को सींचने के लिये,
वे तलाशने आती हैं
भाई की खुशियाँ ,
ढूँढने आती हैं अपना सलौना बचपन,
वे रखने आती हैं
आँगन में स्नेह का दीपक,
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर।
बेटियाँ तावीज बाँधने आती हैं दरवाजे पर,
कि नजर से बचा रहे घर,
वे नहाने आती हैं
ममता की निर्झरिणी में,
देने आती हैं अपने भीतर से
थोड़ा-थोड़ा सबको,
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर।
बेटियाँ जब भी लौटती हैं ससुराल,
बहुत कुछ यहीं छूट जाती हैं,
तैरती रह जाती है
घर भर की नम आँखों में
उसकी प्यारी मुस्कान,
जब भी आती हैं वे
लुटाने ही आती हैं अपना वैभव,
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर।
संस्कृत साहित्य के विद्वान् मुरलीधर जी ने योगी श्री अरविन्द के साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है, और श्री अरविन्द रचित संस्कृत काव्य ‘भवानी भारती’ का हिन्दी अनुवाद भी किया है। दरअसल इसे अनुवाद मात्र कहना इन कविताओं का सम्मान नहीं है। इधर वैदिक ऋचाओं का अनुवाद और रूपान्तर अनेक लोगों ने किया है, जिसमें जैसा मैंने ऊपर कहीं कहा है, डाॅ.भगवतशरण उपाध्याय, मंगलदेव शास्त्री , बशीर अहमद मयूख से लेकर डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, केदार जी तक अनेक रचनाकारों ने इस विधा में हाथ आजमाया, पर इन सबसे अलग डाॅ. मुरलीधर जी ने हाथ नहीं, हृदय आजमाया। उन्होंने तो वैदिक ऋचाओं के अधरों पर अपनी मुरली रख दी है। उनकी वैदिक कविताओं को रूपान्तर या भावानुवाद कहना न्याय नहीं होगा। वे अपने आपमें शब्दानुवाद, भावानुवाद की मर्यादा से बाहर निकल कर मानो मुरलीधर की रचना हो गईं हैं। अब तो हालत यह है कि उनकी मौलिक हिन्दी कविताएँ भी वैदिक ऋचाओं का सा आस्वादन देती हैं। न मानें आप , तो इस संग्रह की ‘प्रार्थना’, पढ़ जाएँ, ‘मुझे वह अमृतलोक चाहिए’, ‘अपनी अपनी मुक्ति’, ‘ओ मेरे विद्यार्थियों’ भी देखें।
माता और पिता उनकी कविताओं में बार-बार झाँकते हैं। उनकी कविता ‘घट्टी पीस रही है माँ’, ‘पिता’, ‘मैं माँ का जीवित स्मृतिचिह्न’ , ‘डरी हुई है माँ’, ‘बहुत कसमसाते हैं पिता’, ‘खोज रहा हूँ पिता! तुम्हारे पदचिह्न’ भाव-विह्वल कर देते हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में अपने गुरु को, बच्चों को, स्त्री को पिता से कम मान नहीं दिया है। गाँव, घर और वहाँ की स्मृतियाँ उनकी कविताओं में बार-बार उमड़-घुमड़ कर आती हैं। ‘डरी हुई है माँ’ कितनी सामयिक रचना है यह, स्वयं देख लें-
कुछ दिनों से बहुत डरी हुई है माँ,
बेटी घर से निकलती है स्कूल के लिये
माँ ताकने लगती है शून्य में,
घबराने लगती है कुछ ऐसा-वैसा सोच कर,
देखती है कि दुनिया भर की सड़कें
खाई में उतर गई हैं,
सबने हाथ ऊँचे कर दिये हैं,
बंद पड़ी मुट्ठियाँ खुली हुईं
और एक बड़ा सा अजगर
घुसता चला आ रहा घर के अंदर।
‘विरासत के फूल’ डाॅ. चाँदनीवाला की मौलिक कविताओं का शायद यह पहला संग्रह है। यूँ उनकी कविताएँ वर्षों से -कादम्बिनी, अहा! जिंदगी, साक्षात्कार, वीणा, वागर्थ, कथादेश और नईदुनिया जैसी विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, लेकिन क्या यह चिंतन और विस्मय का विषय नहीं कि प्रसिद्धि से दूर , लोकप्रियता के लोक से बाहर, पद और पुरस्कार के पाश से भी दूर मुरलीधर जी हिन्दी के कवि-आलोचकों और कभी-कभी तो पाठकों की भी घनघोर उपेक्षा के शिकार रहे। उनकी उम्र के 70वें वर्ष में आया यह कविता संग्रह तो यही प्रमाणित करता है।
चार कविता लिख कर चालीस संग्रह प्रकाशित करवाने वाले, चार सौ पुरस्कार झटकने वाली इस पीढी के लिये सम्भवतः वे खुद ही अपने आपमें कबीर की कुंडलिनी की तरह अनसुलझी ऋचा हैं। हम हिन्दी वाले भी अजीब हैं। हरीश निगम व्याख्याता हैं तो छोटे कवि, डाॅ. सुमन कुलपति हैं तो बड़े कवि (कृपया प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित मेरा संस्मरण ‘याद आते हैं’ का एक संस्मरण ‘व्याख्याता कवि’ देख जाएँ।) ऐस हिसाब से तो बालकवि बैरागी सांसद थे तो उन्हें और बड़ा कवि होना चाहिए और अटलबिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री होने के नाते ‘कवियों का कवि’ या ‘कवि कुलगुरु’ कह देना चाहिए।
‘पद से कद’ मानने वाले हिन्दी कविता के समालोचक अगर ‘विरासत के फूल’ देख लें, तो इसकी गंध उन्हें मदहोश कर देगी, और उस अमृतलोक में ले जायेगी जहाँ कुँवरनारायण, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेन्द्र मिश्र और नरेंद्र शर्मा रहते हैं। एक कविता मैं समालोचकों को मुरलीधर जी की तरफ से भेंट करता हूँ-
साजिश है तुम्हारे खिलाफ,
मतलब तुम जिंदा हो।
साजिश है तुम्हारे खिलाफ,
मतलब तुम शिखर के करीब हो।
साजिश है, तो सम्भावना है।
साजिश है, तो मौका है युद्ध में विजय का।
साजिश है, तभी तो सपने पनपते हैं आँखों में।
साजिश के खिलाफ
तुम्हें करना कुछ नहीं।
जो कर रहे थे,
उसीमें उसीका गुणा करते चले जाना।
चींटियाँ कुछ नहीं करती
साजिश के खिलाफ,
गिराई जाती हैं जितनी बार
उत्तरोत्तर उठती हुई
पहुँच ही जाती हैं शिखर तक।
मरने के बाद भी
साजिश चलने लगी है अब।
मूर्तिभंजन के इस दौर में
गुनाह है झाँक कर देखना
बंद खिड़की से।
साजिश चलती है, चलती रहेगी,
शिखर चूमती रहेगी महत्वाकांक्षाएँ।
साजिश है तुम्हारे खिलाफ,
मतलब तुम्हारी जीत पक्की है।
‘विरासत के फूल’ निःसंदेह संस्कृत साहित्य के तपःपूत मुरलीधर जी की मार्मिक कविताओं की ऐसी विरासत है जो बरसों बरस हिन्दी साहित्य के काव्य जगत में रजनीगंधा के फूलों की तरह महकती रहेंगी। इसी मंगल भावना और शुभ कामना के साथ संस्कृत साहित्य के राजशेखर की जगह हिन्दी के राजशेखर बिदा लेते हैं।
🔲 राजशेखर व्यास
अपर महानिदेशक, दूरदर्शन एवं आकाशवाणी महानिदेशालय संसद मार्ग, नई दिल्ली