सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विद्रुपताएं उजागर करना रचनाकार का दायित्व : गीता सिंह
🔲 नरेंद्र गौड़
विगत अनेक वर्षों से प्रयागराज निवासी गीता सिंह की कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है। इनकी रचनाएं उससे, खीज, गहरी करूणा, स्मृतियों और हमारे समय की बेचेनियों से बनी है। इनमें गहरी हताशा का स्वर है तो कहीं उसके बीच उम्मीद की रोशनी भी मौजूद है। इनकी रचनाओं में बचपन की स्मृतियां और अपने परिवेश को लेकर कई सवाल भी है।
गीता सिंह की कविताएं उन दृश्यों को सामने रखती है, जो अतिपरिचित हैं और सभी के देखे भाले हैं। इनका मानना है कि कवि की रचनाएं जब तक पाठक की स्मृति का हिस्सा नहीं हो जाती, तब तक उनका लिखा जाना सार्थक नहीं है। अपने आसपास बिखरी सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विद्रुपताएं उजागर करना लेखक का दायित्व है।
गृहिणी दायित्व के साथ साहित्य सृजन
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद के गांव रावनिया में जन्मी गीता सिंह ने बीए, बीएड, एमए, एमएड और पीएचडी तक शिक्षा प्राप्त की है। इसके बावजूद आप नौकरी करने के बजाय गृहिणी का दायित्व निर्वाह कर रही हैं। इनके द्वारा रचित गीत, गजल, कविता, मुक्तक, कहानी इत्यादि अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
प्रकाशन और पुरस्कार
अभी तक इनके दो साझा काव्य संकलन एवं एक साझा कहानी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। राष्ट्रीय मंचों पर शानदार प्रस्तुति की वजह से इनकी कविताएं श्रोता समूह द्वारा सराही जाती रही है। सूरीला कंठ होने की वजह से सुधिजनों द्वारा प्रशंसित होती रही है। अभी तक इन्हें भारतीय परिषद प्रयाग द्वारा प्रज्ञा भारती सम्मान, साहित्य एवं कला को समर्पित रंग बीथिका सम्मान, नमामी गंगे तथा अंतरराष्ट्रीय रामायण द्वारा काव्य प्रवीण सम्मान भाषा सहोदरी, साहित्य रथी, काव्य रांगोली, अग्निशिखा अरूणोदय सम्मान, अंतरलय द्वारा काव्य संध्या सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
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चुनिंदा कविताएं :
बुझे कभी न आग जिसकी
बुझे कभी न आग जिसकी ऐसी ही मशाल दे,
जल उठे धधक धधक के, तेजवंत ज्वाल दे।।
भले न कोई साथ दे परंतु तुम डटे रहो,
अनुगमन करेगा जग,इक नया खयाल दे।।
कमल ये सूखने लगे,सजल सरोवरों को कर,
मनस में जो रमण करे तड़ाग में मराल दे।।
छू सकेगा आसमां तूँ हौसले बुलंद कर,
चंद्र से संवाद हो समुद्र को उत्ताल दे।।
विनाश धर्म का हुआ अनीतिमय ये जग हुआ,
प्रलय निशा को चीरकर पहाड़ को उछाल दे।।
पार्थिव भी चल पड़ें अर्थियां मचल पड़ें,
शौर्य गीत रचो कोई और वीर ताल दे।।
मातृ भूमि के लिए रखे जो प्राण हाथ पे,
है वीर भूमि !देव भूमि! पूत तू कमाल दे।।
धरा को झूम झूम के ,अरावली को चूम के,
प्रताप सा सपूत हो मेवाण को निहाल दे।।
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बलात्कार की पीड़ा
बलात्कार उसके साथ एक बार …
किन्तु पीड़ा की अनुभूति अनगिनत बार,।
सांय सांय करती अंधियारी में-
बलात्कारी राक्षस दरिंदे
वहशी हबसी भेड़िये की मुखाकृति
वक्त-बेवक्त नोचती खसोटती है ।
उस शारीरिक चोट से अधिक चोट करती है-
मान मर्दन और अस्तित्व विखण्डन की चोट।
एक आतंक प्रतिपल स्याह परछाईं सा
उसके साथ चलता है।
भीड़ में भी, एकाकीपन में भी
वह भोगा हुआ पल डंक मारता है,
घाव पुनः हरा हो जाता है।
लुटी हुई अस्मिता ,भूखी नंगी आत्म शक्ति के साथ
जीना अभिशाप लगता है य किन्तु जीती है-
इस विवेक के अवलंब पर कि….
शरीर के साथ कुछ पल की बेमानी
पूर्ण मानसिक विकलांग कृत्य था
परंतु ,
परंतु फिर भी गहरे कहीं बहुत गहरे में ,
कुछ लुटने ध्कुछ खोने का बोध सताता है,
और जीवन अभिशाप लगता है।।