ज़िन्दगी अब- 25 : ग्रहण : आशीष दशोत्तर
ग्रहण
🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲
🔲 आशीष दशोत्तर
कैसे दुकानदार हो? तुम्हारी दुकान खुली पड़ी है और तुम सो रहे हो। कोई कुछ सामान ले गया तो ? उसे जगाते हुए मैंने कहा। वह पूरी तरह सोया नहीं था। बगीचे की बेंच पर आंखें बन्द कर लेटा हुआ था। उसकी दुकान यानी वह गाड़ी जिसमें उसका सारा सामान रखा हुआ था, बगीचे किनारे ही खड़ी हुई थी। दुकान से आशय उस गाड़ी से ही था। उसकी गाड़ी में कई तरह की चीज़ें थीं, पूरे एक मेले की तरह। इस दुकान को अपने साथ लिए वह हर दिन यूं ही घूमा करता। उस दिन उसे पहली बार गाड़ी एक तरफ़ खड़ी कर बेंच पर लेटे हुए देखा।
वह बोला, इस समय देख रहे हैं ।आस-पास कोई नहीं है। सब अपने-अपने घरों में हैं। आज ग्रहण है न इसलिए। सुबह से अब तक घूम कर मैंने देख लिया। कहीं कोई बिक्री नहीं हुई। सोचा कि ग्रहण खत्म होने तक आराम कर लूं, इसलिए यहाँ रुक गया।
मैंने कहा, जब ग्रहण का पता था तो फिर घर से निकले ही क्यों। ग्रहण खत्म होने के बाद ही निकलते। तुम्हें इस तरह यहां नहीं बैठना पड़ता। वह बोला, हमारे लिए क्या ग्रहण और क्या नहीं। हमारे ऊपर तो इतने ग्रहण लगे हुए हैं कि इस एक ग्रहण का कोई असर ही नहीं होगा।
मुझे लगा शायद उसने अख़बार में ग्रहण से पड़ने वाले असर के बारे में कुछ पढ़ा होगा, इसलिए वह ग्रहण में इत्मीनान से घूम रहा है। मैंने कहा, तुमसे किसने कहा कि ग्रहण का तुम पर कोई असर नहीं होगा?
वह कहने लगा, बोलेगा कौन? हम तो इतने समय से इसे भोग रहे हैं। हम पर जितने ग्रहण लगे हैं उतने ग्रहण के बारे में तो आपने सोचा भी नहीं होगा। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। इतने कितने ग्रहण भोग लिए हैं इसने।
मुझे चुप देख कहने लगा, मेरी यह गाड़ी जिसे आप मेरी दुकान बता रहे हैं इसमें साठ से सत्तर तरह के आइटम हैं। बच्चों के खिलौने, कपड़े, रुमाल, प्लास्टिक के आयटम और भी बहुत सी चीजें। इतनी सारी चीज़ों को लेकर घूमना क्या मजाक है ?
मैंने कहा बिल्कुल यह तो हिम्मत का काम है। इतनी बड़ी दुकान लेकर तुम चलते हो। फिर तुम किस ग्रहण की बात कर रहे हो? उसने कहा, किस-किस ग्रहण की मैं बात करूं। इतने सारे सामान को उधारी पर खरीदना, फिर उन्हें बेचना, खरीदे हुए सामान का भुगतान करना, बचे हुए सामान को संभालना, जो मुनाफा हो उसमें अपने परिवार का पेट पालना। इन सबके बीच कितने ही ग्रहण आ जाते हैं और चले जाते हैं पता ही नहीं चलता। अभी तो इस महामारी का ग्रहण ऐसा लगा है कि हम तो उठ ही नहीं पाए हैं।
वह कहता जा रहा था। कहने लगा, पिछले 3 माह किस तरह बीते न मैं बता सकता हूं न आप सुन सकते हैं। एक-एक दिन एक-एक ग्रहण से गुज़रना पड़ा। उसके बाद भी आज तक वह ग्रहण हमारे पीछे पड़े हुए हैं और न जाने कब इनसे छुटकारा मिलेगा। ऐसे में आप इस ग्रहण की बात कर रहे हैं जो घंटे- दो घंटे में चला जाएगा। आप तो इस ग्रहण से मुक्त होकर खुद को धन्य समझेंगे। दान -पुण्य भी करेंगे। मगर हम पर इस महामारी ने जो ग्रहण लगाया है उनसे हम कैसे मुक्त होंगे?
उसके इन सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। उसकी वह गाड़ी उस दिन के बाद जब-जब जब सामने से गुज़रती है तब- तब उस जैसे सैकड़ों लोगों की जिंदगी पर एक ग्रहण सा नज़र आता है।
🔲 आशीष दशोत्तर