सागर की डॉ. चंचला दवे की रचना : प्रकृति के डाकिये
प्रकृति के डाकिये
🔲 डॉ. चंचला दवे
बहुत पहले
जब मोबाइल, टेलिफोन
नहीं थे
डाकिये चिठ्ठी लाते थे
मां ने बताया
चिट्ठी के इंतजार में
मां खड़ी रहती थी
दरवाजे पर
एक दिन, सुबह उठकर
मैंने देखा, मेरी बगिया में
इमली, गुलमोहर के
छोटे-छोटे पौधे
उग आए हैं
मैंने पापा से पूछा
ये कहां से, आ गये
पापा ने कहा
ये प्रकृति के, डाकियों
ने भेजे है
जो बीज हम, यहां वहां
फेंक देते हैं
उन्हें चिड़िया, गौरैया, मिट्ठु
अपनी चोंच में दबाकर
उड़ते उड़ते
छोड़ जातें हैं
और पौधे उग आते हैं
फिर बारिश होती हैं
प्रकृति के डाकिये
पानी को
झरनों में, नदियों में, तालाबों में छोड़ आते हैं
🔲 डॉ. चंचला दवे, सागर मप्र