रचनाएं जनसापेक्ष होना अत्यंत आवश्यक : डाॅ. दलजीत कौर
🔲 नरेंद्र गौड़
पंजाब में हिन्दी साहित्य बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुका है। वहां ऐसे अनेक रचनाकार हैं जो कि पंजाबी में लिखने के साथ ही हिन्दी में भी अपनी रचनाएं प्रकाशित प्रसारित करवा रहे हैं। चंडीगढ़ में रहने वाली डाॅ.दलजीत कौर ऐसी ही एक पंजाबी भाषी साहित्यकार हैं, जो कि विगत अनेक वर्षों से स्वतंत्र लेखन में रत है।
लगभग 10 वर्ष तक आप शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन के पश्चात अपने मौलिक साहित्य सृजन में व्यस्त रहती हैं। एक सवाल के जवाब में डाॅ. दलजीत का कहना था कि साहित्य का जनसापेक्ष होना चाहिए और स्पष्ट विचाराधारा के बिना लिखी गई रचनाएं आगे जाकर धुंध के हवाले हो जाती है।
प्रकाशित कृतियां
हरिशंकर परसाई के साहित्य पर आधारित व्यंग्य रचनाएं, स्वतंत्र काव्य संग्रह 52 कविताओं का, बच्चों के लिए 52 कविताएं, मस्ती की पाठशाला शीर्षक से, काव्य संग्रह सही रास्ते की तलाश, शायद हंसी खिल जाए, बाल कविता संकलन मीठी बोली, चुन्नु मुन्नु तालिया की दुनिया, आंख मिचैली और जादुई पेंसिल पुस्तकें खासी लोकप्रिय हुई है। आपको चंडीगढ़ साहित्य अकादमी द्वारा वरिष्ठ साहित्यकार का पुरस्कार भी मिल चुका है। इसके अलावा छोटे मोटे अनेक पुरस्कारों का यदि जिक्र किया जाएगा तो फेहरिस्त लम्बी हो जाएगी।
चुनिंदा कविताएं
छोड़ दिया मैंने
छोड़ दिया मैनें
दूसरों की कसौटी पर
खरे उतरना
छोड़ दिया मैंने
गहराई में गहरे उतरना
मैं अब मन की करने लगी हूँ
अपनी कठपुतली का धागा
मैंने तोड़ लिया
अपने रास्तों को
मैंने मोड़ लिया
मैं अब मन की करने लगी हूँ
विश्वास किसी पर
मैं नहीं करती
किसी की बातों पर
मैं नहीं चलती
मैं अब मन की करने लगी हूँ
कच्चे थे जो धागे
उनको तोड़ लिया
नाता मैंने खुद का
खुद से जोड़ लिया
मैं अब मन की करने लगी हूँ
मरने के लिए
जरूरी है जीना
मर -मर कर जीना
मैंने छोड़ दिया
मैं अब मन की करने लगी हूँ
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लापता है बसंत
बसंत आया तो है
डाली पर फूल
मुस्काया तो है
वीरान पेड़ पर
हरी कोंपलें
फूटी तो हैं
कोयल ने बसंती गीत
गया तो है
सरसों ने पीला खेत
महकाया तो है
बसंती चुनार
पगड़ी का रंग
लहराया तो है
मगर
लापता है
स्नेह के फूलों का बसंत
नहीं फूटती
प्यार की कोई लता
नहीं आता
अपनेपन का बौर
जाने क्यों ?
बसंत आकर भी
नहीं आता
लापता है बसंत
मेरे मन का बसंत
तेरे मन का बसंत
लापता है बसंत
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चलन
महसूस करती हूँ
खुद को मूर्ख -सा
कि फिक्र करती हूँ
दूसरों की सदा
फिक्र करना ,कराना
अब चलन में नहीं रहा –
स्वार्थी हो जाना
चाहिए मुझे भी
पूछना हाल दूसरों का
और अपना बताना
अब चलन में नहीं रहा –
जरूरी है बहुत
व्यावहारिक हो जाना
सच सुनना ,सुनाना
अब चलन में नहीं रहा –
हो गई दीवारें
सब बहुत ऊँची
खिड़कियां दिलों में
रखना ,रखाना
अब चलन में नहीं रहा –
देखा जाएगा तुम्हारा
रुतबा और औदहा
इंसान होना और
इंसानियत दिखाना
अब चलन में नहीं रहा –
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असफलता
मेरी असफलता का
एक ही कारण था
मुझे हर शख्स को
सही कहना नहीं आया
बगल में रखकर छुरी
राम -राम कहना नहीं आया ।