पुस्तक चर्चा : व्यापक और विविध व्यंग्य हैं आशीष जी के
निरन्तर सृजनरत युवा रचनाकार आशीष दशोत्तर व्यंग्य के सशक्त समकालीन हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं । वे विज्ञान, हिन्दी, शिक्षा, कानून में उपाधियां प्राप्त हैं। साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओ ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचान कर उन्हें सम्मानित भी किया है। परिचय की इस छोटी सी पूर्व भूमिका का अर्थ गहरा है। आशीष जी के लेखन के विषयों की व्यापकता और वर्णन की विविधताभरी उनकी शैली में उनकी शिक्षा का अपरोक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। किताब की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी है , वे लिखते हैं ” आशीष दशोत्तर के लेखन में असीम संभावनाएं है, उनके पास व्यंग्य की दृष्टि है और उसके उचित प्रयोग का संयम भी है। “
मैंने इस किताब के जो कुछ व्यंग्य पढ़े हैं और जितना इस चर्चा से पहले से यत्र -तत्र उन्हें पढ़ता रहा हूं, उस आधार पर मेरा दृष्टिकोण भूमिका से पूरी तरह मेल खाता है। व्यंग्य तभी उपजता है जब अवगुन चित में धरे जाते हैं। दरअसल अवगुणों के परिमार्जन के लिए रचे गए व्यंग्य को समझकर अवगुणों का परिष्कार हो तो ही व्यंग्य का ध्येय पूरा होता है। यही आदर्श स्थिति है।
इन दिनो व्यंग्य की किताबें और उपन्यास, किसी जमाने के जासूसी उपन्यासो सी लोकप्रियता तो प्राप्त कर रही हैं पर गंभीरता से नही ली जा रही हैं। हमारे जैसे व्यंग्यकार इस आशा में अवगुणो पर प्रहार किए जा रहे हैं कि हमारा लेखन कभी तो महज पुरस्कार से ऊपर कुछ शाश्वत सकारात्मक परिवर्तन ला सकेगा। आशीष जी की कलम को इसी यात्रा में सहगामी पाता हूं ।
किताब के पहले ही व्यंग्य पेड़ पौधे की अंतरंग वार्ता में वे लिखते हैं ” पेड़ की आत्मा बोली अच्छा तुम्हें जमीन में रोप भी दिया गया तो इसकी क्या गारंटी है कि तुम जीवित रहोगे ही ” … पेड़ की आत्मा पौढ़े को बेस्ट आफ लक बोलकर जाने लगी तो पौधा सोच रहा था उसे कोई न ही रोपे तो अच्छा है। ऐसी रोचक नवाचारी बातचीत विज्ञान वेत्ता के मन की ही उपज हो सकती थी।
पुराने प्रतीकों को नए बिम्बों में ढ़ालकर, मुहावरो और कथानकों में गूंथकर मजेदार तिलिस्म उपस्थित करते आशीष जी पराजय के निहितार्थ में लिखते है ” कछुये को आगे कर खरगोश ने राजनीति पर नियंत्रण कर लिया है, कछुआ जहां था वहीं है , वह वही कहता और करता है जो खरगोश चाहता है ” वर्तमान कठपुतली राजनीति पर उनका यह आब्जरवेशन अद्भुत है। जिसकी सिमली पाठक कई तरह से ढ़ूंढ़ सकता है। हर पार्टी के हाई कमान नेताओं को कछुआ बनाये हुये हैं, महिला सरपंचो को उनके पति कछुआ बनाए हुए हैं , रिजर्व सीटों पर पुराने रजवाड़े और गुटो की खेमाबंदी हम सब से छिपी नही है, पर इस शैली में इतना महीन कटाक्ष दशोत्तर जी ही करते दिखे।
शब्द बाणों से भरे हुए चालीस ताकतवर तरकश लिए यह एक बेहतरीन संग्रह है जिसे मैं खरीदकर पढ़ने में नही सकुचाउंगा। आप को भी इसे पढ़ने की सलाह है।
🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲
मोरे अवगुन चित में धरो
व्यंग्यकार : आशीष दशोत्तर
बोधि प्रकाशन , पृष्ठ 184
मूल्य : 200 रुपए
🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲
समीक्षक :
विवेक रंजन श्रीवास्तव
शिला कुंज , नयागांव , जबलपुर
(समीक्षक श्री श्रीवास्तव, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं।)