समाज की पीड़ित महिलाओं के पक्ष में संघर्षरत मेरा लेखन : मीरा मेघमाला
🔲 नरेंद्र गौड़
फेसबुक के अस्तित्व में आने के बाद हमारे देश में महिला लेखिकाओं की बाढ़- सी आ गई है। ऐसा दस-बारह बरस पहले नहीं था। आज हर दूसरी तीसरी फेसबुकीय महिला कविता, कहानी आलेख ही नहीं पैंटिंग तक दुनिया में कदम रख चुकी हैं। आए दिन इनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपती हैं और संकलनों के प्रकाशन होते हैं। समारोहपूर्वक किताबों के विमोचन भी होते रहते हैं। इतना ही नहीं अनेक मीडियाकर भी अपनी दुकान खोले बैठे हैं जो कविता के नाम पर मैराथन दौड़ कराते रहते है और रेवड़ी की तरह प्रमाण पत्र बांटा करते हैं। भले ही ऐसे आयोजकों की एक भी रचना ने छापेखाने का मुंह तक नहीं देखा हो। वक्त का एक निर्मम दौर ऐसा भी था, जबकि बरसों कलम घीसने के बावजूद रचनाकारों की कविता कहानियां प्रकाशित नहीं हो पाती थी।
मुक्तिबोध का पहला कविता संकलन ’चांद का मुंह टेढ़ा है’ तब छपा जब वह मरणासन्न हालत में थे। रचाव का यह उत्स और अपने को अभिव्यक्त करने का यह दौर सुखद है। अभिव्यक्ति की यह सहज सुविधा महिलाओं के लिए एक प्रकार की नियामत और इंटरनेटिव दुनिया का चमत्कार भी है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन इसके जरिए अथाह कचरा भी साहित्य के नाम पर फैल रहा है।
साहित्य की दुनिया में मीरा मेघमाला की अलग पहचान
सखी-सहेली साहित्य के इस फेसबुकीय कोहराम के बीच बेहतर रचनाकार महिला लेखिकाएं भी सामने आई हैं। जिनकी रचनाओं को उनके कत्थ और कहन की मौलिकता की वजह से अलग पहचाना जा सकता है। ऐसी ही रचनात्मक दुनिया में बहुत तेजी से उभरा एक नाम मीरा मेघमाला का भी है जिन्होंने कत्थ के नए अंदाज की वजह से अपनी अलग पहचान बनाई है। कर्नाटक राज्य के हासन जिला निवासी मीरा मेघमाला मुख्यरूप से कविताएं लिखती हैं। इनकी रचनाओं में अधिकांश भारतीय स्त्री के जीवन सत्य को पूरी शिद्दत के साथ उजागर होते देखा जा सकता है। एक सवाल के जवाब में मीराजी ने कहा कि ‘हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था कुछ ऐसी है, जहां स्त्री को गाय से अधिक कुछ भी नहीं समझा जाता। यहां गाय की तरह निरीह, मौन होकर स्त्री सभी के लिए मंगलकामना करती हुई मर जाती है। बावजूद इसके सामाजिक और पारिवारिक हर तरह की हिंसा की शिकार स्त्री ही होती है। वह कहीं भी जलाई जा सकती है, बलात्कार की शिकार बनाई जा सकती है और उसे कई तरह से छला जा सकता है। उसकी सुरक्षा में बने कानूनों की धज्जियां उड़ती रहती हैं। जाहिर है मेरा लेखन ऐसी स्थितियों में महिलाओं के साथ खड़ा है’। मीराजी का कहना था कि मैं फैशन के तहत लेखन नहीं कर रही हूं, अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठाते हुए सार्थक तथा रचनात्मक साहित्य के रचाव की दुनिया से ताल्लुक रखती हूं। मेरा लेखन पीड़ित तथा शोषित महिलाओं के पक्ष में आजीवन खड़ा रहेगा और संघर्ष करता रहेगा।
अनेक भाषाओं का ज्ञान
यह आश्चर्यजनक है कि मीरा मेघमाला को अनेक भाषाओं का आधिकारिक ज्ञान है। जो कि अपने आप में चकित कर देने वाली बात है। इन्हें अंग्रेजी, हिन्दी, कोंकणी, कन्नड़ भाषाओं का न सिर्फ ज्ञान है, वरन इन भाषाओं में लिखती भी हैं। इन्होंने कर्नाटक के कन्नड़ साहित्य क्षेत्र में ’कादम्बिनी रावी’ नाम से वर्ष 2014 से लिखना शुरू किया था। 2017 में गीतांजलि पब्लिकेशन कर्नाटक ने इनका 384 पन्नों का कविता संकलन ‘हलगे मत्तु मेदुबेरलु’ नाम से प्रकाशित किया था, जोकि साहित्य जगत में खासा चर्चित रहा था। आज भी उस संकलन का लोग इनकी श्रेष्ठ कृति के रूप में याद किया करते हैं। उस संकलन की रचनाएं सामाजिक सरोकारों से जुड़े जीवन यथार्थ का बोध कराती है। आम आदमी के बहुआयामी रूपाकारों को उस किताब में देखा जा सकता है।
‘काव्य कुसुम’ में सरलता का नया सौंदर्यशास्त्र
बैंगलोर के सुंदर प्रकाशन ने वर्ष 2018 में इनके ‘काव्य कुसुम’ नामक कविता संकलन का प्रकाशन किया। इस किताब में पश्चिम से आयातित विचारों के अंत की घोषणा के बजाए लोकप्रिय साहित्य तथा मनोरंजक साहित्य के बीच की दूरी को समेटने की कोशिश की गई है। यह किताब भी साहित्य के सुधिजनों द्वारा बहुत सराही गई। इस संकलन की भाषा अलंकारों तथा विवरणों के बोझ तले कराहती हुई नजर नहीं आती। इसमें सीधे ढंग से आम आदमी की तकलीफ को पारिभाषित किया गया है। मीरा मेघमाला ’सारवादी’ परंपरा की अत्यंत सरल रचनाकार हैं। इनकी कविताओं में नारी जीवन की विडम्बनाओं का सादगीपूर्ण चित्रण होता है। प्रकाशन की ऐसी ही उपलब्धि को जारी रखते हुए वर्ष 2019 के दौरान मेघमाला प्रकाशन ने ‘कल्लेदेय मेले कूत हक्कि’ नामक कविता संकलन का प्रकाशन किया। इनका लेखन मानव जीवन की विडम्बनाओं को पारिभाषित करता है और इस मायने में मीराजी सफल भी हुई हैं। इनकी सृजनात्मकता का उत्स दरअसल इनकी विशिष्ट संवेदना में ही है। मीरा मेघमाला ने इतिहास विषय के साथ मैसूर विश्वविद्यालय से एमए किया है। इनकी अनेक रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पोर्टल्स पर छप चुकी हैं। कविता के साथ ही इन्हें कहानियां, आलेख, कालम, तथा ललित लेख लिखने में भी महारथ हासिल है। मीराजी इन दिनों कर्नाटक के महिला एवं बाल विकास विभाग में कार्यरत हैं।
चुनिंदा कविताएं
भरी बरसात की शाम
सुगंध पोतकर आनेवाली हवा
आज गन पाउडर लगाकर आई है
न जाने क्यूं मेरा पिया
अब तक घर नहीं लौटा है!
लोग कह रहे थे
कि, भारी बरसात की शाम
नजदीकी पार्क में
एक लड़की की नंगी लाश तैर रही है!
स्कूल छूटते ही घर दौड़ती
मोहल्ले की एक बच्ची
अंधेरे में
भीगी हुई, काँपती हुई
देर से सही आख़िर घर लौटी!
सौभाग्य से
रेल से टकराकर कुचला हुआ
अंजान शख्स की जेब में से
मिली पर्ची में
मेरे गाँव का नाम नहीं था!
अब तक मेरे पिता रेल से उतरकर
घर का रास्ता पकड़ चुके होंगे!
अभी-अभी टी वी पर
सुबह सप्लाई हुए दूध की कुछ पैकेटों में
किसी ने जहर घोलने की आशंका
जताती हुई सनसनी ख़बर!
उसका बच्चा तो
दूध पीकर कब का सो चुका था
अब बच्चे को ज़बरन जगाना है या
उसका जगने तक इंतज़ार करना है
माँ दुविधा में उलझी है!
हर सुबह
झाडू-पौचे के बाद रंगोली खिलती
देहली पर
चार दिनों के अख़बार
और दूध के पैकेटों की ढेर!
वो अकेली औरत
गाँव गयी है
या फ़्लैट में ही थी
ये कोई नहीं जानता है!
उस अपार्टमेन्ट के रहनेवाले
आदमी ने एक फोन लगाया और
ईवेंट मैनेजमेंट वालों को बुला लिया
पत्नी के अंतिम संस्कार में
रोनेवाले, सजानेवाले
शोक जतानेवाले, नाचनेवाले
और जनाज़े को कांधा देनेवाले
सब का इंतजाम
जट से हो गया!
“इसी पल मर जाऊंगा”
इस तरह एक फेसबुक पोस्ट
जिस लड़के ने लिखा था,
रात भर उसका फ़ोन
स्विच्ड आफ सुना रहा था!
सुबह हुई कि नही
उसके प्रोफ़ाइल पर
“गुड मॉर्निंग”
स्टेटस अपलोड हुआ है!
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एक पलायन की रात!
इस विकराल रात के घोर अंधेरे में
बिना शर्माए हाथ कसके पकड़ो तुम
ताकि, चलते चलते हम कहीं बिछड़ न जाएं!
तुमने देखा ही है, कि
किस तरह कड़ी से कड़ी जुड़ा कर
जंजीर बन जाती है
और हाथी तक को काबू में कर लेती है!
तुम्हें याद है?
इसी सड़क के उस पार
गाँव का बढ़ई रहता था
और बैलगाड़ी, हल, जुआ बनाना
कब का छोड़ भी दिया था!
अब उसने शहर में एक
बड़ी दुकान खोल रखी है
और ताबूत बनाकर बेच रहा है!
इस दहशतगर्द काली रात
की नीरव को चीरती हुई सी
किसी पंछी की एक भीषण चीख़!
डर से निकली आहट ही डरावनी लगी
धीरज और हिम्मत जुटाकर
निकल तो गये थे हम इस राह पर,
पर रूह भी कांपने लगी!
चारों ओर छाया हुआ मौन सन्नाटा
हड्डियों को कतरती सर्द हवा
कुत्तों का यूँ रोना
बर्फ़ का गिरना
और नस-नस में खून का जम जाना,
ऐसी एक असहनीय रात में
भरोसा दिलाती है
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी गर्म सांसें!
दिन चढ़ते ही गला काट देगें
यह जानते हुए भी
खिल कर महकने वाली
जिद्दी कलियाँ भरी पड़ी हैं
घर घर के बगीचों में!
दो प्रेमियों का इस तरह फ़रार होना
रक्षा करने वाले हाथों से ही
कुचल दिए जाने के लिए नहीं बल्कि
प्रेम भरी दुनिया की शुरुआत करने के लिए!
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चूल्हे पर….
तुम्हारे ताज़े हैं जख्म
मेरे तो पुराने हैं घाव के निशान
सुन लो,
भूखे बच्चों के खातिर
पत्थरों को उबालने बैठी माँ!
तुम्हारी ही तरह
जलते चूल्हे की आंच पर
खुद सिझती
एक माँ मेरी भी थी!
वो मन ही मन
भगवान से मन्नत मांगती थी
कि चूल्हे पर बर्तन में
उबालने रखा जो पत्थर है
वो चावल बन जाए!
और मुझे रात भर सुनाती थी
पत्थर सोना बनने वाली
एक कहानी
ताकी मुझे
जल्दी से नींद आ जाए!
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चुंबन के सुराग
तुम ने जब मेरा नकाब उतारा था,
उसके बाद
आज मैं अपना चेहरा
वैसे ही देख रही हूं
जैसे पहली बार देख रही थी
इतना करीब से!
जैसे, एक असीम सुंदरी
अचंभित आँखों से कुछ ढूंढ रही हो
कुछ ऊपर उठीं आश्चर्यचकित भौंह
चहरे पर प्रौढ़ कांति लायी हैं!
हल्के से कांप रहे इन गुलाबी होंठों पर
खेलती मंद हंसी,
आंखों से आँखे मिलाकर देखा तो
दीपक के तरह जल रहें हैं वो।
सीधी नाक, कोमल गाल और ललाट पर
तुम्हीं से मिले इन घाव के निशानों की वजह से
मुख पर मोहक नशीलापन छाया हुआ है।
इन दागों पर नाचते घुंघराले बालों ने तो
खूबसूरती को और आकर्षक बना दिया है।
तुम कुछ भी कह दो,
एक बार मुझे नंगा करने की अतीव चाह से
तुमने मेरा नकाब जब से उतारा
मैं एक गहरी महक बिखेरने वाले
फूल की तरह खिल उठी हूँ!
जब तक चहरे को इस नकाब ने घेर रखा था,
शर्म और अपमानों से
कुचली हुई सी
मै अपना मुंह छुपाकर बैठी थी,
कुछ ताज़ा और कुछ पुराने घावों के निशान
देखकर
मैं अपना धीरज खो बैठी थी
ये व्याकुलता और ये दर्द का रिसना
ये भली दुनिया कहीं देख न लें
इस आतंक को!
और हाँ! इस नकाब को
जब तुमने उतार ही फेंका है
जिसे कभी तुम्हीं ने पहनाया था!
और अब इस कटघरे में लाकर
प्रियतम के दिए चुंबन के सुराग ढूंढ कर
दुनिया के सारे मर्दों को
दिखाने के लिए बेचैनी से खड़े हो!
गर ऐसा ही है, तो
मेरे इन होंठों की लाली और मंद हास में छुपे
सारे सुराग चुनकर गवाही में दे दो!
और इस तरह
तुमने इस नकाब को उतार फेंक कर….
तुम्हारी मर्दाना चोटों से निकला खून
चेहरे के आकर्षण
और तन की सुंदरता को
बढ़ाता ही जाएगा!
और यह चोट, ये पत्थर
मेरे इस शरीर से
जब तक कि मेरी आखरी साँस को
उखाड़ कर फेंके
मै अपने कांतिमय सम्मोहक सौंदर्य को
टकटकी लगाए देखती ही रहूंगी!
और तुम,
इस नकाब को उतार फ़ेंकने के बाद
इस महान कार्य के लिए
जिंदगी भर सर झुकाते ही रहोगे!
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कैसे मर जायें झट् से!
ऐसे में गर मरने को कहा जाए
तो कैसे मर जायें झट् से!
अंतिम दर्शन के लिए
आये लोग हंसेंगे,
झाडू-पोचा नहीं लगाया है
बर्तन, कपड़े नहीं धोये हैं
साफ़ नहीं कर पाई घर का शौचालय
पेड़ पौधों को भी पानी नहीं दिया है
कुत्ता और बिल्ली भूखे बैटे हैं
कल के नाश्ते के लिए
अब तक नहीं सोचा है।
तो कैसे मर जायें झट् से!
बेटे और पति को
घर में आते ही
घर की माल्किन को
ढूंढ ने की आदत पहले भी नहीं थी।
घुस जायेंगे रसोई में
खाना अब तक बना नहीं।
भूखे आदमियों का गुस्सा
आप ने देखा नहीं!
तो कैसे मर जायें झट् से!
बेटी की प्रसूति नहीं हुई है
पाल-पोस कर बड़ा नहीं किया है
नाती-पोतों को।
बेटे की परीक्षा अभी नहीं हुई है
पति की रूटीन चेकअप की तारीख
अभी दूर ही है।
तो कैसे मर जायें झट् से!
एक गृहणी की आवश्यकता
अब तक खत्म नहीं हुई है
काम वाली का मिलना भी
आजकल मुश्किल सा ही है।
यह भी मैं जानती तक नहीं
कि बूढ़े पति
दोबारा शादी करेंगे या नहीं।
और
ऐसे में गर मरने को कहा जाए
तो कैसे मर जायें झट् से!
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सुगंध की गलियाँ
सांझ के समय
उन सुगंध के गलियारों में से
होकर गुज़रती हूँ तो
एक कविता आँखों में चिपकती है।
पेट पर लात मारते हुए
सूखा थन चूसता दूधमुँहा बच्चा
खिलौने की ज़िद करता
पीट पर लटक कर रोता हुआ पोता
ऊंची शिक्षा की उम्मीद लेकर
छाती पर बैठी कालेज जानेवाली बेटी
बाइक की मांग करके
सर चढ़कर नाचता उतावला बेटा
बेवक्त हवस बाहों में निचोड़ता पति
नोच-नोचकर खाने वाली बीमारियाँ
क्षुधा बाधा से चीखता छेद तल का उदर
चिंताओं से घेरी इंद्रियाँ
अकाल जैसे सूखी आँखें
और
तेज़ी से चमेली के कलियों को
धागे में गूंथने वाली चतुर उंगलियां
घर-घर के आंगन में…
और इस तरह
सांझ के समय
उस सुगंध की गलियारों में से
होकर गुजरते वक़्त
एक कविता आँखों से उतर कर
दिल में चुभ जाती है
और आँखे नम हो जातीं है।
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वह खाना बनाती है
वह खाना बनाती है
सुबह का नाश्ता
दोपहर का खाना
रात का भोजन
वह खाना बनाती है।
वह खाना बनाती है
शुद्ध और स्वादिष्ट
समय – समय पर
अनाज – सामान हो
या न हो
वह खाना बनाती है।
बेटे की पसंद
बेटी की न पसंद
पति की चाहत
सब कुछ याद रख कर
वह खाना बनाती है।
त्योहारों के दिन हो
या मेहमान आये हो
ज्यादा से ज्यादा नमूनों का
ज्यादा से ज्यादा खाना
ज्यादा से ज्यादा स्वादिष्ट
कम से कम समय में
वह बना देती है
वह खाना बनाती है
कोई किसी जल्दी में
रसोई की तारीफ़ न करें
या किसी परेशानी में
खाने मे कंकड़ ढूंढें
फिरभी हंसते मुस्कुराते
वह खाना बनाती है।
हर दिन सब के बाद ही
खाने पे बैठना पड़ता है
कभी कभी कल का बचा
बासी खाना खाना पड़ता है
एक निवाला मुंह में डाला नहीं,
कोई उठा देता है
किसी काम का याद दिला कर।
ऐसी चीजों को
ज़हन में कभी न रखते हुए
वह खाना बनाती है।
छुट्टीयों का नाम उसने
न कभी सुना है, न कभी देखा है
वह खाना बनाती है
कल भी, आज भी और आगे भी
वह खाना बनाती रहती है।
एक सुदीर्घ तपस्या के तरह वह
रसोई के बारेमें ही सोचती है
रसोई के बारेमें ही पढ़ती है
टीवी पर रसोई के कार्यक्रम ही देखती है
सब सीखती है
सब बनाकर परोसती है।
खाना बनाती है वह
तंदुरुस्त हो या बीमार हो
साँस रुकने तक
वह खाना बनाती है
“तुम भी वक्त पर खाया-पीया करो”
यह भूलकर भी कभी न पूछता वो
ऐसे शख्स के लिए
वह खाना बनाती है।
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तकिया
मैं बार बार सिर्फ तकिए का
कवर बदल लेती हूँ
बाक़ी सारे आँसू
तकिया छुपा लेता है।
सारे बच्चे अपनी
माँवों के सीने में
चिपक कर सो गये
मैने तकिये में
मुंह छुपा लिया।
जब तक जागे थे तब तक
एक तकिये के लिए
लडते-झगड़ते रहे वह दो बच्चे
अब सो गये हैं
तकिये के बिना!
यह तकिया भी
न जाने कितने रहस्य
छुपा लेता है अपने अप में
पहले वह लडकी
तकिए में प्रेम पत्र छुपाती थी
अब अलमारियों की चावियाँ।
हल्के से चाँपने से भी
सिकुड़कर मुरझने वाले
हम-तुम जैसा नहीं है यह तकिया
विरहन के हाथों मलने पर भी
सीना फूला कर
खिल उठता है यह बहरूपिया।
यूँ आँखे बंद करके
इतनी कोमलता पर
कभी यकीन न करना
एक वक्त ऐसा भी आएगा
इतना नरम-नाजुक तकिया भी
उतना कठोर बन सकेगा
कि दम घुटा कर जान ले लेगा!