किसान आंदोलन में शामिल नहीं टुकड़े-टुकड़े गैंग : सरोज दाहिया
🔲 नरेंद्र गौड़
समकालीन हिंदी के अनेक रचनाकारों की पृष्ठभूमि अर्ध शहरी तो कइयों की ठेठ ग्रामीण रही है। जाहिर है देहातों में जीवनयापन की स्थितियां शहरों के मुकाबले कठिन हैं। वहां लेखकों आसपास के परिवेश के पिछड़ेपन और अनेक दकियानूसी परंपराओं, मान्यताओ तथा अतार्किक वर्जनाओं विडम्बनाओं का भी सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद ग्रामीण अंचलों से आए लेखकों की लम्बी श्रंखला है। इनमें मुंशी प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, केदारनाथ अग्रवाल से लेकर हाल ही में दिवंगत मंगलेश डबराल तक शामिल हैं। यहां सवाल उठता है कि आखिर वह कौन-सी विशेषताएं हैं जो शहरी रचनाकारों को ग्रामीण रचनाकारों से अलग करती हैं। पहली तो यही कि ग्रामीण रचनाकार शहरी जनजीवन के बीच भले ही रहने लगे, लेकिन वह अंततः वहां मिसफिट ही रहता है और बारबार वह गांव लौटने की उत्कुंठा और इच्छा के उहापोह से भरा रहता है।
हरियाणा के जिले सोनीपत स्थित ग्राम हलालपुर में रहते हुए रचनाकर्म कर रही सरोज दाहिया का यह कहना था। इनका मानना है कि सदियों से महिलाएं शोषण की शिकार रही हैं और आज भी स्थिति में खास बदलाव नहीं आया है। हमारे समाज में दलित महिलाओं को आज भी हिंसा तथा बलात्कार का शिकार बनना पड़ता है। विगत दिनों उत्तरप्रदेश के हाथरस की घटना इसका ताजा उदाहरण है। ऐसी घटनाओं के परिपेक्ष यही कहा जा सकता है कि महिलाओं को स्वयं एकजुट होना पड़ेगा। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों को इन्होंने किसान विरोधी बाते हुए कहा कि दिल्ली की सीमाओं पर चलाए जा रहे आंदोलन में हमारे हरियाणा राज्य के किसान भी बड़ी संख्या में भाग ले रहे हैं। मांगें नहीं माने जाने तक यह आंदोलन जारी रहेगा और सरकार का आरोप निराधार है कि आंदोलन में टुकड़ा-टुकड़ा गेंग के लोग शामिल हैं।
विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों का सामना
चर्चा के दौरान सरोज दाहिया ने बताया कि इन्हें वर्ष 1978 से 2018 तक अनेक पारिवारिक संकटों का सामना करना पड़ा। वहीं विवाह के बाद भी दिक्कतों का अंत नहीं हुआ। एक तरफ जहां कहा जाता है कि विवाह के बाद महिला का जीवन सुखी हो जाता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इनके जीवन की शुरूआत खेती तथा पशुपालन से हुई थी और यही कारण है कि इनकी रचनाओं ग्रामीण जनजीवन के विविध और जीवंत चित्र मिलते हैं। बाद में कुछ विपरित स्थिति के कारण खेती और पशुपालन का धंधा छोड़ देना पड़ा। इनका कहना था कि वर्ष 1978 में विवाह हुआ और वर्ष 1984 से केंद्रीय शासन में लिपिक के पद पर कार्य किया, लेकिन पारिवारिक दबाव के कारण 1993 में यह अच्छी खासी नौकरी भी छोड़ देना पड़ी। इसके बाद अपने गांव में ही अपनी शिक्षण संस्था का सफलता पूर्वक संचालन किया, लेकिन किन्हीं कारणों से यह संस्था एक सहयोगी के सुपुर्द कर चंद माह पूर्व ’सरोज प्रकाशन संस्थान’ की शुरूआत की है।
अनेक पुस्तकें प्रकाशित
इनके दो उपन्यासों ’सरोज शतदल’ तथा ’कहां-कहां पैबंद लगाऊं’ की चर्चा साहित्य जगत में होती रही है। इसके अलावा इनकी श्रेष्ठ रचनाओं में ’हरियाणवी श्रीराम कथा’ एवं ’हरियाणवी गीता ज्ञान’ शामिल है। वर्ष 2015 इनके ’पटराणी’ नामक हरियाणवी प्रबंध काव्य को हरियाणा साहित्य अकादमी व्दारा पुरस्कृत किया जा चुका है। सरोजजी ने एक और कृति ’वेदना के स्वर’ की भी रचना की है, जिसमें नव्य विधा चोका शतक का बखूबी इस्तेमाल किया गया है। इनके द्वारा रचित खंड काव्य ’स्वयंवरा’ को भी हिंदी साहित्य जगत ने बहुत सराहा है। इनका एक प्रबंध काव्य ’कूप-कानन,’ ’यादों के सिलसिले’, दोहा सहस्रधारा में रची ’पावनी’ नामक किताब सहित कुछ अन्य पुस्तकों की पांडुलिपि तैयार है, वहीं ’प्रेम परी’ नामक खंडकाव्य अभी प्रेस में है।
सरोज दाहिया की चुनिंदा कविताएं
मां का दर्द
झोली लेकर मांग रही मां, सामाजिक गलियारे में,
हल्की सी मुस्कान मुझे भी, दे दो आज उधारे में।
अनदेखा तन, पेट काट कर, जो परिवार बनाया था,
अपने हित की कभी न सोची, सबको पाल बढ़ाया था;
नहीं कभी तब मन में आई, ऐसे दिन भी आयेंगे,
अपने बच्चे दबे पांव से, निकल पास से जायेंगे;
देख रही मां टुकुर टुकुर कर, बैठी एक ओसारे में,
हल्की सी मुस्कान मुझे भी दे दो आज उधारे में।
क्या बस नाता शेष यहीं तक, दो रोटी की बात रही;
दूर बैठकर टुकड़े खाना, क्या होता सम्मान कहीं;
कैसे बेटा बचपन भूला, भूल चुका है बात सभी;
क्या अच्छा लगता था कुछ भी, गई छोड़ कर कहीं कभी;
आज लाल की सभी जरुरत सिमटी एक चौबारे में;
हल्की सी मुस्कान मुझे भी, दे दो कोई उधारे में।
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कहां से कहां
आज सभी एकाकी हैं,
लिख दूं देखी जो झांकी है;
वह प्रेम कहां जो होता था,
अपनी आंखों जो देखा था ;
सब दूर दूर बच रहते थे,
तो भी तो प्यार अनोखा था ।
बच्चों के सम्मुख मात-पिता भी शर्माते से रहते थे,
मां दादी के संग सोती थी,
वे दादा के संग सोते थे ,
चाचा-बुआ का प्यार सभी बच्चों के लिए अनोखा था ।
बुआ जब घर में आती थी,
एक रौनक सी छा जाती थी;
मां का वह हाथ बंटाती थी,
दोनो घुल-मिल बतियाती थी;
बीबी-भाभी का यह प्यार, सचमुच ही बड़ा अनोखा था ।
गांवों के बच्चे और बेटी,
सबके सांझे होते थे,
जब बच्चों में झगड़ा होता, कोई भी डपट हटाता था,
बच्चे भी तभी मान जाते,
अपनापन ऐसा होता था।
अपने गांव की कोई भी बेटी बाहर मिल जाती थी,
तब हाथ जेब पर खुद जाता,
एक रुपया हाथ में आ जाता;
सबकी बेटी अपनी बेटी, रिश्ता यह बड़ा अनोखा था ।
देखो, सोचों, परखों, जानों,
हमने इस जीवन में देखा;
वह प्रेम-स्नेह-सद्भाव- लाज,
क्या तुमने आज कहीं देखा ?
बोलो क्या कहीं अभी देखा ?
कवि कुछ ऐसा गीत बनाओं , सोये हुए लोग जग जाये;
फर्जी बने किसान आज जो पैर बिवाई से फट जाए;
रात खेत में भले न बीते, विषधर बिस्तर पर चढ़ जाये ,
चीख चीखकर भागें दौड़े ,उनकी पोल स्वयं खुल जाये ।
तब कवि उनसे हंसकर पूछे, “तुम कितने पैसों में आये,
खेतिहर तो कभी न डरते, तुम नकली खेतिहर पाये।”