धर्म संस्कृति अध्यात्म : श्रीमद् भगवत गीता संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी में : अध्याय 6 ध्यान योग
श्रीमद् भगवत गीता – अध्याय 6 ध्यान योग
हिन्दी पद्यानुवादक : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
श्री भगवान ने कहा-
जे करता कर्तव्य निज,बिना कर्मफल ध्यान
सन्यासी योगी वही,वह ही सही महान।
जो नहि करता कर्म या कोई यज्ञ-विधान
उसे न संयासी कहें,उसे न योगी जान।।1।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है॥1॥
1. He who performs his bounden duty without depending on the fruits of his actions—he is a
Sannyasin and a Yogi, not he who is without fire and without action .
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
कहलाता सन्यास जो योग उसे ही मान
नहि संकल्प से त्याग बिन योगी की पहचान।।2।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता॥2॥
2. Do thou, O Arjuna, know Yoga to be that which they call renunciation; no one verily
becomes a Yogi who has not renounced thoughts!
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
योगेच्छुक मुनि के लिये,कारण होता कर्म
योगारूढ उसी का पर कारण होता शम।।3।।
भावार्थ : योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है॥3॥
3. For a sage who wishes to attain to Yoga, action is said to be the means; for the same sage
who has attained to Yoga, inaction (quiescence) is said to be the means.
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥
जो न भोगों में तथा कर्मों में आसक्त
संकल्पों को त्याग ही योगारूढ विरक्त।।4।।
भावार्थ : जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है॥4॥
4. When a man is not attached to the sense-objects or to actions, having renounced all
thoughts, then he is said to have attained to Yoga.
( आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण )
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
अपने खुद ही करे नर,अपना खुद उद्वार
गिरे न,अपना शत्रु है,व्यक्ति स्वतः का यार ।।5।।
भावार्थ : अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥5॥
5. Let a man lift himself by his own Self alone; let him not lower himself, for this self alone
is the friend of oneself and this self alone is the enemy of oneself.
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
जीता जिसने स्वतः को, तो वह उसका मित्र
जीत सका न स्वतः को ,तो है स्वयं का शत्रु।।6।।
भावार्थ : जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है॥6॥
6. The self is the friend of the self for him who has conquered himself by the Self, but to the
unconquered self, this self stands in the position of an enemy like the (external) foe.
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥
जीता तो खुद शांति पा,बनता स्वतः महान
सुख दुख गर्मी शीत सम उसे मान अपमान।।7।।
भावार्थ : सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं॥7॥
7. The Supreme Self of him who is self-controlled and peaceful is balanced in cold and heat,
pleasure and pain, as also in honour and dishonour.
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥
इंद्रियजित,तृप्तात्मा,योगी का सम्मान
मिट्टी सोना उसे सम प्राप्त ज्ञान विज्ञान।।8।।
भावार्थ : जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है॥8॥
8. The Yogi who is satisfied with the knowledge and the wisdom (of the Self), who has
conquered the senses, and to whom a clod of earth, a piece of stone and gold are the same, is said to
be harmonised (that is, is said to have attained the state of Nirvikalpa Samadhi).
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
मित्र शत्रु मध्यस्थ रिपु सब को एक समान
साधु पापी तक किसी का करता न अपमान।।9।।
भावार्थ : सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है॥9॥
9. He who is of the same mind to the good-hearted, friends, enemies, the indifferent, the
neutral, the hateful, the relatives, the righteous and the unrighteous, excels.
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
खुद को रख एकांत में करे आत्म संधान
संयम मय जीवन जिये,लगा योग में ध्यान।।10।।
भावार्थ : मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥
10. Let the Yogi try constantly to keep the mind steady, remaining in solitude, alone, with
the mind and the body controlled, and free from hope and greed.
( विस्तार से ध्यान योग का विषय )
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥
उचित उच्च आसन लगा, देख शुद्ध स्थान
विध्न दर्भ मृगचर्म से वेदी कर निर्माण।।11।।
भावार्थ : शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके॥11॥
11. In a clean spot, having established a firm seat of his own, neither too high nor too low,
made of a cloth, a skin and kusha grass, one over the other,
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
उस आसन पर बैठकर मन को कर एकाग्र
आत्म शुद्धि के भाव से ध्यान करे अनिवार्य।।12।।
भावार्थ : उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥
12. There, having made the mind one-pointed, with the actions of the mind and the senses
controlled, let him, seated on the seat, practise Yoga for the purification of the self.
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
सिर ग्रीवा ओै” देह को सम रेखा में ढाल
नासिकाग्र में दृष्टि रख मन के मिटा मलाल।।13।।
भावार्थ : काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ॥13॥
13. Let him firmly hold his body, head and neck erect and perfectly still, gazing at the tip of
his nose, without looking around.
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
शांतचित्त,भ्रम छोड़ सब,ब्रम्हचर्य व्रत पाल
मुझ में स्थिर चित्त रख सारे द्वंद निकाल।।14।।
भावार्थ : ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए॥14॥
14. Serene-minded, fearless, firm in the vow of a Brahmachari, having controlled the mind,
thinking of Me and balanced in mind, let him sit, having Me as his supreme goal.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
जो मन को निर्बाध रख,करता मेरा ध्यान
पाना सुख औ” शांति का उसे बहुत आसान।।15।।
भावार्थ : वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है॥15॥
15. Thus, always keeping the mind balanced, the Yogi, with the mind controlled, attains to
the peace abiding in Me, which culminates in liberation.
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
खाने सोने में सदा जिनकी ज्यादा प्रीति
सिद्ध न होता योग जो इसके अति विपरीत।।16।।
भावार्थ : हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥16॥
16. Verily Yoga is not possible for him who eats too much, nor for him who does not eat at
all; nor for him who sleeps too much, nor for him who is (always) awake, O Arjuna!
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
यथा समय पर जागरण-शयन है जिनकी रीति
योग सुखद पर सहज ही पा लेते वे जीत।।17।।
भावार्थ : दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥17॥
17. Yoga becomes the destroyer of pain for him who is always moderate in eating and
recreation (such as walking, etc.), who is moderate in exertion in actions, who is moderate in sleep and wakefulness
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
हो मन वश में और जब कामनाओं का नाश
तभी योग की सिद्धि का हो सकता विश्वास।।18।।
भावार्थ : अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है॥18॥
18. When the perfectly controlled mind rests in the Self only, free from longing for the
objects of desire, then it is said: He is united.
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
योगी का मन अचंचल रहता स्थिर शांत
वायु सुरक्षित दीप की लौ ज्यों अचल प्रशांत।।19।।
भावार्थ : जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥19॥
19. As a lamp placed in a windless spot does not flicker-to such is compared the Yogi of
controlled mind, practising Yoga in the Self (or absorbed in the Yoga of the Self).
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
योगाभ्यासी अचल मन हो स्थिर सांनद
आत्मा का कर निरीक्षण पाता आत्मानंद।।20।।
भावार्थ : योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ
सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है॥20॥
20. When the mind, restrained by the practice of Yoga, attains to quietude, and when, seeing
the Self by the Self, he is satisfied in his own Self,
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
बौद्धिक सुख अति अतीन्द्रिय,अनुभव कर दिन रात
हो ध्यानस्थ स्वरूप में पाता प्रभु का साथ।।21।।
भावार्थ : इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी
परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं॥21॥
21. When he (the Yogi) feels that infinite bliss which can be grasped by the (pure) intellect
and which transcends the senses, and, established wherein he never moves from the Reality,
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
जिस सुख से बढ़ सुख कोई नहीं समझता और
कठिन प्रसंगों में भी वह विचलित किसी न ठौर।।22।।
भावार्थ : परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥
22. Which, having obtained, he thinks there is no other gain superior to it; wherein
established, he is not moved even by heavy sorrow,—
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
दुख की दुनियाँ से बहुत दूर योग सुख धाम
अनुष्ठान इस योग का मन का पावन काम।।23।।
भावार्थ : जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है॥23॥
23. Let that be known by the name of Yoga, the severance from union with pain. This Yoga
should be practised with determination and with an undesponding mind.
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
संकल्पो से जन्मती कामनाओं का त्याग
मन के वशकर इंद्रियाँ,तज भौतिक अनुराग।।24।।
भावार्थ : संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर॥24॥
24. Abandoning without reserve all the desires born of Sankalpa, and completely restraining
the whole group of senses by the mind from all sides,
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
धीरे धीरे बुद्धि से विषयों को कर दूर
मन को अपने आप में रहने को मजबूर।।25।।
भावार्थ : क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे॥25॥
25. Little by little let him attain to quietude by the intellect held firmly; having made the
mind establish itself in the Self, let him not think of anything.
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
अस्थिर चंचल मन अगर कर सहसा प्रतिरोध
तो फिर फिर वश में करें कर कारण का शोघ।।26।।
भावार्थ : यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे॥26॥
26. From whatever cause the restless, unsteady mind wanders away, from that let him
restrain it and bring it under the control of the Self alone.
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥
ऐसे मन संयमित हो,रजोगुणों से हीन
योगी को दे सरस सुख करता ब्रम्ह अधीन।।27।।
भावार्थ : क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है॥27॥
27. Supreme bliss verily comes to this Yogi whose mind is quite peaceful, whose passion is
quieted, who has become Brahman, and who is free from sin.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
ऐसी विधि से साध मन,कर योगी अभ्यास
जाता पा सुख शांति सब परब्रम्ह के पास।।28।।
भावार्थ : वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है॥28॥
28. The Yogi, always engaging the mind thus (in the practice of Yoga), freed from sins,
easily enjoys the infinite bliss of contact with Brahman (the Eternal).
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
योगी लखता,भेद बिन सबको एक समान
खुद को लख सब प्राणि में, जग को खुद सा जान।।29।।
भावार्थ : सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है॥29॥
29. With the mind harmonised by Yoga he sees the Self abiding in all beings and all beings
in the Self; he sees the same everywhere.
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
लखते जो सब में मुझे,मुझमें सब संसार
मेरे लिये अमर हैं वे,मैं उनका आधार।।30।।
भावार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहिए।) देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता॥30॥
30. He who sees Me everywhere and sees everything in Me, he does not become separated
from Me nor do I become separated from him.
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
सब में स्थित मानते मुझे जो भी तदरूप
कही भी हों योगी वे नित मुझमें आत्म स्वरूप।।31।।
भावार्थ : जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है॥31॥
31. He who, being established in unity, worships Me who dwells in all beings,-that Yogi
abides in Me, whatever may be his mode of living.
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
अर्जुन ! जो सबको सदा लखता आत्म समान
सुख में या दुख में हो कोई,योगी वही महान।।32।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना अपनी भाँति सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है॥32॥
32. He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees equality everywhere, be it
pleasure or pain, he is regarded as the highest Yogi!
( मन के निग्रह का विषय )
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
अर्जुन ने कहा-
मधुसुदन ! जो योग में कहा एकता भाव
मन की चंचलता से मुझे दिखता वहां अभाव।।33।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ॥33॥
33. This Yoga of equanimity taught by Thee, O Krishna, I do not see its steady continuance,
because of restlessness (of the mind)!
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
मन मथने वाला,बड़ा चंचल औ” बलवान
उसे पकड़ रखना कठिन लगता वायु समान।।34।।
भावार्थ : क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ॥34॥
34. The mind verily is restless, turbulent, strong and unyielding, O Krishna! I deem it as
difficult to control as to control the wind.
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
भगवान ने कहा-
निश्चय ही मन है बड़ा चंचल औ” अग्राहय
पर अर्जुन अभ्यास से होता वह भी ग्राहय।।35।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है॥35॥
35. Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but,
by practice and by dispassion it may be restrained!
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
जो है संयम हीन नर योग उन्हे दुष्प्राप्त
जो नर होते संयमी उन्हें न कुछ अप्राप्य।।36।।
भावार्थ : जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है॥36॥
36. I think that Yoga is hard to be attained by one of uncontrolled self, but the
selfc ontrolled and striving one attains to it by the (proper) means.
( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥
अर्जुन ने कहा-
श्रद्धा रखते,यत्न कम चंचल मन का व्यक्ति
योग सिद्धि न हुई तो पाता है क्या गति।।37।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है॥37॥
37. He who is unable to control himself though he has the faith, and whose mind wanders
away from Yoga, what end does he meet, having failed to attain perfection in Yoga, O Krishna?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥
असफलता से कहीं हो छिन्न आत्म विश्वास
ब्रम्ह प्राप्ति के मार्ग पर पाता नहीं विनाश।।38।।
भावार्थ : हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?॥38॥
38. Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed
(Krishna), deluded on the path of Brahman?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥
मेरे इस संदेह को करने दूर समर्थ
सिवा आप के कृष्ण हे ! कौन कहेगा अर्थ।।39।।
भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है॥39॥
39. This doubt of mine, O Krishna, do Thou completely dispel, because it is not possible for
any but Thee to dispel this doubt.
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥
भगवान के कहा-
पार्थ ! न ही इस लोक में न ही परलोक विनाश
थोडे भी शुभ कर्म का कभी न होता नाश।।40।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता॥40॥
40. O Arjuna, neither in this world, nor in the next world is there destruction for him; none,
verily, who does good, O My son, ever comes to grief!
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
पुण्यवान के लोक में रहकर समुचित साथ
योग श्रेष्ठ फिर जन्मता सदगृहस्थ घर तात।।41।।
भावार्थ : योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है॥41॥
41. Having attained to the worlds of the righteous and, having dwelt there for everlasting
years, he who fell from Yoga is reborn in the house of the pure and wealthy
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥
बुद्धिमान योगी का कुल पाता है वह बाद
इस प्रकार दुर्लभ जनम नहि होता बरबाद।।42।।
भावार्थ : अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है॥42॥
42. Or he is born in a family of even the wise Yogis; verily a birth like this is very difficult to
obtain in this world.
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥
वहां पूर्व संयोग से ,फिर लेकर नयी आश
कुरूनंदन जाता नहीं कोई व्यर्थ प्रयास।।43।।
भावार्थ : वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है॥43॥
43. There he comes in touch with the knowledge acquired in his former body and strives
more than before for perfection, O Arjuna!
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥
सहज पूर्व अभ्यास वश खिचंता उसका ध्यान
केवल शाब्दिक ज्ञान से,जिज्ञासा बलवान।।44।।
भावार्थ : वह (यहाँ वह शब्द से श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहिए।) श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है॥44॥
44. By that very former practice he is borne on in spite of himself. Even he who merely
wishes to know Yoga transcends the Brahmic word.
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम् ॥
और यत्न करता हुआ हो पवित्र परिशुद्ध
पाता सदगति सफलता होता है संबुद्ध।।45।।
भावार्थ : परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है॥45॥
45. But, the Yogi who strives with assiduity, purified of sins and perfected gradually
through many births, reaches the highest goal.
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥
योगी तपसी से बड़ा ज्ञानियों से भी महान
योगी हो अर्जुन ! जो है कर्मीयों से विद्धान।।46।।
भावार्थ : योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो॥46॥
46. The Yogi is thought to be superior to the ascetics and even superior to men of knowledge
(obtained through the study of scriptures); he is also superior to men of action; therefore, be thou a
Yogi, O Arjuna!
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
सभी योगियों में रमे,जिनके मुझमे प्राण
मेरे मत से श्रेष्ठ वह जो है श्रद्धावान।।47।।
भावार्थ : सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है॥47॥
47. And among all the Yogis, he who, full of faith and with his inner self merged in Me,
worships Me, he is deemed by Me to be the most devout.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥6॥