कविता लिखना आसान विधा नहीं : निवेदिता भावसार
🔲 नरेंद्र गौड़
ऐसे विषय जिन पर कविता की कहीं से कहीं तक गुजाईश और संभावना नहीं लेंगे वहां कविता लिख देने वाली रचनाकार का नाम निवेदिता भावसार है। उज्जैन के मालवी बोली के परिवेश को इन्होंने आत्मसात करते हुए कई रचनाओं में ठेठ देहाती होने के सुबूत भी दिए हैं। इनकी कविताओं का कोई फार्म नहीं है, क्योंकि वह ऐसी जगह से शुरू हो सकती हैं, जहां शुरू होना आसान नहीं है।
अनौपचारिक ढंग से अपनी बात कहने का निवेदिता के पास दुर्लभ साहस है। जीवनानुभव और संवेदना के सार को पूरी मार्मिकता से बयान करने में निवेदिता समर्थ है और वह अपनी भाषा बोली की काव्य परंपरा से भी भली-भांति वाकिफ हैं। इसलिए वे अपने अनुभवों और दैनिक व्यवहारों से अपनी एक अलग भाषा निर्मित करती हैं। इनके पास अलहदा शिल्प भी है और अपने अनुभव के अनुसार ही वह अपना एक शिल्प ढूंढती हैं, लेकिन अपनी भाषा की काव्य परंपरा अनजान बनकर नहीं।
फिर भी अतिसंवेदनशील विधा में दखल
निवेदिता पेशे से निजी संस्थान में इंजीनियर है, इसके बावजूद वह कविता जैसी अतिसंवेदनशील विधा में दखल रखती हैं। चर्चा के दौरान इन्होंने बताया कि इनकी रचना के प्रथम पाठक पिता रमेश भावसार और माता शकुंतला ही रही है। इसके अलावा फेसबुकीय मित्रों का विशाल संसार भी इनकी रचनाएं पढ़़ता और सराहता है।
कविता लिखना आसान विधा नहीं
इनका कहना है कि इन दिनों अधिकांश फेसबुकीय लेखकों का मानना है कि कविता बहुत आसान विधा है, जबकि ऐसा है नहीं। हालांकि ब्लाग तथा फेसबुक जैसे नए माध्यम साहित्य के लिए बहुत सी संभावनाएं और आकांशाएं लेकर अवश्य आए हैं। यहां उल्लेखनीय है कि जयपुर के बोधि प्रकाशन ने फरवरी 2015 में फेसबुक पर सक्रिय 100 रचनाकारों का संकलन ’शतदल’ नाम से प्रकाशित किया था। इसका संपादन एवं रचना चयन हिंदी के महत्वपूर्ण लेखक विजेंद्र ने किया था, इसमें लेखकों पर टिप्पणी लिखने के काम में सहयोग निवेदिताजी का रहा था। बोधि प्रकाशन से ही इनका पहला कविता संकलन ’बज रही है डुगडुगी’ प्रकाशित और चर्चित हुआ है। इसके अलावा हिंदी की अनेक महत्वपूर्ण पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों में इनकी रचनाएं छप चुकी हैं। इनका मानना है कि निजी जिंदगी ही एक किताब-सी है रोज एक कहानी का पन्ना है।
चुनिंदा कविताए
क्या ढूँढने आये थे मेरे ख्वाब में तुम रात??
जमी जमाई नींद को उलटा के रख दिया।
…
मैं अच्छे से जानती हूं तुम्हारे मेरे दायरे….
फिर भी सोचती हूँ…. कभी… यूँ होता तो क्या होता ….
……
फिर नींद आती ही नहीं… तुम्हारी याद आने के बाद
मैं दिल पे हाथ रखे रहती हूं….
बच्चा है अब भी
ज़रा ज़रा में रो देता है।
…….
नींदों में घुलने लगती हैं जब यादों की खुमारी ….
ख्वाब बनते हैं…
मद्धम गहरे — गहरे मद्धम
चाँद पर फिराते हुए हौले हौले उंगलियां
पी लेते हैं सारी चांदनी..
सो जाते हैं…
खो जाते हैं
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उन्होंने सोच रखा है
बेटे की नोकरी लगते ही
अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो
चले जायेंगे अपने गाँव
ज़रा सी ज़मीन है
खेती बाड़ी करेंगे
सुकून से रहेंगे दोनों मिया बीवी
“सुकून” एक पूरी उम्र बीत गयी इस एक शब्द की तलाश में …
उन्हें ज़रा भी मोह नहीं है
बेटे के ब्याह के बाद उसके साथ रह
पोता पोती खिलाने का .
अभी कुछ साल पहले ही तो बेटी की शादी निपटाई है .
वे खुश है की चलो लव मैरिज है तो क्या हुआ है तो अपनी बिरादरी में ही .
वैसे पढ़ी लिखी थी लड़की, ज़रा नहीं हिचकी माँ की चैन तुड़वाते हुए .
साथ जाके लायी थी अपने होने वाले पति के लिए अंगूठी.
अभी तक निपटा रहे हैं उसके दहेज़ के लिए लिया कर्जा..
ज्यादा पढ़े लिखे नहीं वे, मगर छोटी सी दुकान का हर हिसाब मुह जबानी याद रहता है .
सीख गए हैं ऑनलाइन ट्रान्स्जेक्शन करना भी .
बेटे ने ही तो बनाया था पेटीएम् पर उनका अकाउंट
जाने कैसे कट जाया करते थे हर हफ्ते उनके अकाउंट से हज़ार रुपये
अब नहीं कटते , उन्हें पासवर्ड बदलना जो आ गया है
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बेलिबास हो रात जब सिमट रही थी मुझमें
मैंने झिझकते हुए पूछा उससे…
गर नींद आ गयी तो जवाब क्या दूँगी।
उसने मुस्कुरा के मेरी आँखों को चूम लिया
बस तभी से खफा हो गयी है नींद….
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उसने ऐसा दुखता राग अलापा है
के हर कोई अपने छाती माथे कूटने में लगा है।
लग रहा है जैसे ये मुहर्रम के दिन हैं।
मैंने भी घबरा के टटोलने शुरू कर दिए हैं अपने कहे सारे शब्द
जैसे रेड पड़ने की खाबर सुनते ही
सरकारी महकमा अपने सारे रिकॉर्ड दुरुस्त करने में लग जाता है।
हाँ
तुम्हारे हाथ आये मेरे सारे शब्द पुख्ता सबूत हैं उसके आँसुओं के
यकीनन,
ये धारदार हैं
मगर निराधार नहीं हैं
हो सके तो इक दफा शब्दों से परे
वजह भी टटोल लेना।
फिर जो सजा हो
मंज़ूर होगी।