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श्रीमद् भगवत गीता अध्याय -13 : क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

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हिन्दी पद्यानुवादक : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

(ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय)

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥

श्री कृष्ण ने कहा-

यह शरीर है कौन्तेय, क्षेत्र नाम से ज्ञात
इसे जानता जो सही, वह क्षेत्रज्ञ विख्यात।।1।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम क्षेत्र ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं॥1॥

1. This body, O Arjuna, is called the Field; he who knows it is called the Knower of the Field
by those who know of them, that is, by the sages.

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥

सब क्षेत्रों में उपस्थित , मुझे तू क्षेत्रज्ञ जान
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है, मेरे ज्ञान समान ।।2।।

भावार्थ : हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान (गीता अध्याय 15 श्लोक 7 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है (गीता अध्याय 13 श्लोक 23 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है॥2॥

2. Do thou also know Me as the Knower of the Field in all fields, O Arjuna! Knowledge of
both the Field and the Knower of the Field is considered by Me to be the knowledge.

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्‌।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥

क्या यह क्षेत्र प्रकार क्या? होते कौन विकार
होते क्यों, क्षेत्रज्ञ कौन? क्या है प्रभाव प्रकार ।।3।।

भावार्थ : वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन॥3॥

3. What the Field is and of what nature, what its modifications are and whence it is, and also
who He is and what His powers are-hear all that from Me in brief.

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्‌ ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥

ऋषियों ने भी कहा जो विशद विभिन्न प्रकार
मुझसे सुन संक्षेप में, होकर के तैयार ।।4।।

भावार्थ : यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है॥4॥

4. Sages have sung in many ways, in various distinctive chants and also in the suggestive
words indicative of the Absolute, full of reasoning and decisive.

महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥

पंचभूत अहंकार, बुद्धि ,चेतना औ” मन एक
इंद्रियाँ दस, विषय पाँच औ” इच्छा, सुख-दुख, द्वेष।।5।।

भावार्थ : पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध॥5॥

5. The great elements, egoism, intellect and also unmanifested Nature, the ten senses and
one, and the five objects of the senses,

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌ ॥

धृति, संघात व चेतना ,सब मिल इकतीस क्षेत्र
इनसे विविध प्रकार का सीमित है प्रक्षेत्र ।।6।।

भावार्थ : तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति।) और धृति (गीता अध्याय 18 श्लोक 34 व 35 तक देखना चाहिए।)– इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिए।) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया॥6॥

6. Desire, hatred, pleasure, pain, the aggregate (the body), fortitude and intelligence-the
Field has thus been described briefly with its modifications.

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌ ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥

मान न हो न दम्भ हो, शांति सरलता धैर्य
गुरू सेवा, शौच, अहिंसा मन निग्रह स्थैर्य।।7।।

भावार्थ : श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।) अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह॥7॥

7. Humility, unpretentiousness, non-injury, forgiveness, uprightness, service of the teacher,
purity, steadfastness, self-control,

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्‍कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌ ॥

इन्द्रियों से वैराग्य हो, अहंकार से दूर
जन्म-मृत्यु, जरा, व्याधि,दुख द्वेष खोज भरपूर ।।8।।

भावार्थ : इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना॥8॥

8. Indifference to the objects of the senses, also absence of egoism, perception of (or
reflection on) the evil in birth, death, old age, sickness and pain,

असक्तिरनभिष्वङ्‍ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥

अनासक्ति हो, मोह न, प्रिय, अप्रिय समभाव
सदा शांतचित रख, रखें इष्ट के हेतु लगाव।।9।।

भावार्थ : पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥9॥

9. Non-attachment, non-identification of the Self with son, wife, home and the rest, and
constant even-mindedness on the attainment of the desirable and the undesirable,

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मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥

एक निरंतर भाव हो, गहन भक्ति में चाव
नियत देश में वास हो, भीड़ के प्रति न दिखाव ।।10।।

भावार्थ : मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना अव्यभिचारिणी भक्ति है) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥10॥

10. Unswerving devotion unto Me by the Yoga of non-separation, resort to solitary places,
distaste for the society of men,

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥

नियमित हो अध्यात्म रूचि, तत्व ज्ञान की खोज
यही वास्तविक ज्ञान है, शेष है ज्ञान विरोध ।।11।।

भावार्थ : अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम अध्यात्म ज्ञान है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान (इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से ज्ञान नाम से कहे गए हैं) है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से अज्ञान नाम से कहे गए हैं) है- ऐसा कहा है॥11॥

11. Constancy in Self-knowledge, perception of the end of true knowledge-this is declared
to be knowledge, and what is opposed to it is ignorance.

ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥

ज्ञेय जो है परब्रम्ह वह, सत औ” असत से दूर
यह सब हो तो व्यक्ति में, अमृत सुख भरपूर ।।12।।

भावार्थ : जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही॥12॥

12. I will declare that which has to be known, knowing which one attains to immortality, the
beginningless supreme Brahman, called neither being nor non-being.

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌ ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥

उसके हाथ औ” पांव, सिर आँख, कान सब ओर
मुख उसका चहुँ ओर है, देख रहा चहुँ ओर ।।13।।

भावार्थ : वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13॥

13. With hands and feet everywhere, with eyes, heads and mouths everywhere, with ears
everywhere, He exists in the worlds, enveloping all.

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌ ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥

इंद्रिय रहित भी है मगर, सब इंद्रिय गुण भास
निर्गुण सब गुण भोक्ता, जग पोषक नित पास ।।14।।

भावार्थ : वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥14॥

14. Shining by the functions of all the senses, yet without the senses; unattached, yet
supporting all; devoid of qualities, yet their experiencer,

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ ॥

बाहर भीतर सबों के चर औ” अचर समान
सूक्ष्म अतः अज्ञेय हैं,दूर पास का ज्ञान ।।15।।

भावार्थ : वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥15॥

15. Without and within (all) beings, the unmoving and also the moving; because of His
subtlety, unknowable; and near and far away is That.

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥

अविकल एक अनंत पर, हर प्राणी में वास
पोषक पालक जगत का करता सृष्टि विनास ।।16।।

भावार्थ : वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥16॥

16. And undivided, yet He exists as if divided in beings; He is to be known as the supporter
of beings; He devours and He generates also.

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ ॥

अंधकार से दूर नित, वह है सतत प्रकाश
वही जानने योग्य है, हर मन उसका वास।। 17।।

भावार्थ : वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति (गीता अध्याय 15 श्लोक 12 में देखना चाहिए) एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥17॥

17. That, the Light of all lights, is beyond darkness; it is said to be knowledge, the Knowable
and the goal of knowledge, seated in the hearts of all.

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इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥

ज्ञान ज्ञेय और क्षेत्र का यह है सुगम विचार
इसे जान मम भक्त का होता है उद्धार ।।18।।

भावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र (श्लोक 5-6 में विकार सहित क्षेत्र का स्वरूप कहा है) तथा ज्ञान (श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन कहा है।) और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप (श्लोक 12 से 17 तक ज्ञेय का स्वरूप कहा है) संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥18॥

18. Thus the Field as well as knowledge and the Knowable have been briefly stated. My
devotee, knowing this, enters into My Being.
(ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय)

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌ ॥

पुरूष प्रकृति दो अनादि है, गुण विकार प्रतिरूप
जान कि सब होते सदा , प्रकृति से ही उद्भूत ।।19।।

भावार्थ : प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥19॥
19 . Know thou that Nature and Spirit are beginningless; and know also that all
modifications and qualities are born of Nature.

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥

प्रकृति ही है अनिवार्यतः, कार्य कारण का हेतु
और पुरूष सब सुख दुखों, के भोगो का हेतु ।।20।।

भावार्थ : कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम कार्य है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम करण है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥20॥

20. In the production of the effect and the cause, Nature (matter) is said to be the cause; in
the experience of pleasure and pain, the soul is said to be the cause.

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌ ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥

प्रकृति से उपजे गुणों का ,करता पुरूष है भोग
यही गुणों के संग से , जनम-मरण का रोग ।।21।।

भावार्थ : प्रकृति में (प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।)॥21॥

21. The soul seated in Nature experiences the qualities born of Nature; attachment to the
qualities is the cause of his birth in good and evil wombs.

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥

दृष्टा, पोषक भोक्ता, ईश्वर का आगार
इसी देह में है अलख , परमात्मा जगदाधार ।।22।।

भावार्थ : इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥22॥

22. The Supreme Soul in this body is also called the spectator, the permitter, the supporter,
the enjoyer, the great Lord and the Supreme Self.

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥

जिसे इस तरह पुरूष, गुण और प्रकृति का ज्ञान
उसके लिये जहाँ भी हो, पुर्नजन्म न विधान।।23।।

भावार्थ : इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है (दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको तत्व से जानना है) वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥23॥

23. He who thus knows Spirit and Matter, together with the qualities, in whatever condition
he may be, he is not reborn.

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥

कोई ध्यान से देखते ,आत्मा को निज ओर
कोई सांख्य योग से, कर्म योग से और ।।24।।

भावार्थ : उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान (जिसका वर्णन गीता अध्याय 6 में श्लोक 11 से 32 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 11 से 30 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 40 से अध्याय समाप्तिपर्यन्त विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥24॥

24. Some by meditation behold the Self in the Self by the Self, others by the Yoga of
knowledge, and others by the Yoga of action.

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥

कुछ औरो से सुनी का , करते है उपयोग
वे भी पाते लीन हो , मृत्यु पार का योग ।।25।।

भावार्थ : परन्तु इनसे दूसरे अर्थात जो मंदबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं॥25॥

25. Others also, not knowing thus, worship, having heard of it from others; they, too, cross
beyond death, regarding what they have heard as the supreme refuge.

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्‍गमम्‌ ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥

स्थावर जंगम जो भी कुछ ,का होता निर्माण
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ,योग से सदा विधान ।।26।।

भावार्थ : हे अर्जुन! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान॥26॥

26. Wherever a being is born, whether it be unmoving or moving, know thou, O best of the
Bharatas (Arjuna), that it is from the union between the Field and its Knower.

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌ ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥

नाशवान हर वस्तु में , रहते है भगवान
वही सत्य को देखता, जिसका यह अनुमान।।27।।

भावार्थ : जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है॥27॥

27. He sees, who sees the Supreme Lord, existing equally in all beings, the unperishing
within the perishing.

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्‌ ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्‌ ॥

जो लखता है सबो में ,परमेश्र्वर का रूप
वह आत्मा को देखता, पाता सद्गति खूब ।।28।।

भावार्थ : क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है॥28॥

28. Because he who sees the same Lord dwelling equally everywhere does not destroy the
Self by the self, he goes to the highest goal.

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

प्रकृति ही करती सदा ,काम सभी सम्पन्न
जो न ऐसा देखता , वह है बुद्धि विपन्न।।29।।

भावार्थ : और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है॥29॥

29. He sees, who sees that all actions are performed by Nature alone and that the Self is
actionless.

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥

हैं तो भूत अनेक पर ,सबका कर्ता एक
ऐसा जो भी देखता ,उसे ब्रह्म है एक ।।30।।

भावार्थ : जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥30॥

30. When a man sees the whole variety of beings as resting in the One, and spreading forth
from That alone, he then becomes Brahman.

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

हैं अनादि निर्गुण अतः, अविनाशी जगदीश
व्याप्त किंतु निर्लिप्त है ,सबसे सबका ईश।।31।।

भावार्थ : हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है॥31॥

31. Being without beginning and devoid of (any) qualities, the Supreme Self, imperishable,
though dwelling in the body, O Arjuna, neither acts nor is tainted!

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥

जैसे सब में व्याप्त है, सूक्ष्म रूप आकाश
वैसे ही सब देह में , है आत्मा का वास।।32।।

भावार्थ : जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥32॥

32. As the all-pervading ether is not tainted because of its subtlety, so the Self seated
everywhere in the body, is not tainted.

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥

ज्यों रवि सारे विश्व में ,करता सहज प्रकाश
त्यों ही क्षेत्री क्षेत्र में ,देता आत्म प्रकाश ।।33।।

भावार्थ : हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है॥33॥
33. Just as the one sun illumines the whole world, so also the Lord of the Field (the Supreme
Self) illumines the whole Field, O Arjuna!

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्‌ ॥

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ,जिन्हें सही पहचान
प्रकृति बधंनो से उन्हें ,मुक्ति का मालुम ज्ञान ।।34।।

भावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही उनके भेद को जानना है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥34॥

34. They who, through the eye of knowledge, perceive the distinction between the Field and
its Knower, and also the liberation from the Nature of being, they go to the Supreme.

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥

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