श्रीश्री 1008 श्री नर्मदानंद बापजी का नगर आगमन और… ‘धन की आंधी’ में ‘सना’ हो गया ‘फ़ना’, सिर्फ ‘तन’ बचा वो भी निष्प्राण ठूंठ सा तना
नीरज कुमार शुक्ला
रतलाम। देश-दुनिया में दंगे-फसाद, जातियों और संप्रदायों के नाम पर होते आए हैं लेकिन ‘रतलाम का इतिहास’ इससे जुदा है। दुनिया में संभवतः रतलाम ही वह जगह है जहां ‘जैन और सनातनियों’ में द्वंद्व होता आया है। ‘मल्लयुद्ध’ जैसे हालात भले ही न बने हों किंतु ‘मन-युद्ध’ की स्थितियां हमेशा ही देखी गई हैं। खासकर ‘कुर्सी’ के लिए शहर को इन दो समाजों में बंटते देखा है। शहर में ‘एकता रूपी दूध’ में ‘स्वार्थ के इस नीबू’ को निचोड़ने वाले सदैव तत्पर रहते हैं। इससे पहले भी दूध फटता रहा है और परिणाम अप्रत्याशित ही आते रहे हैं और ही में भी ऐसी ही स्थिति देखने को मिली।
कतिपय अवसर परस्तों ने एक ‘संत की साधना’ तक को भी इससे ‘संक्रमित’ करने से परहेज नहीं किया। रतलाम की पावन माटी में पले-बढ़े और साधना कर संत बने मां नर्मदा के साधक ‘श्रीश्री 1008 श्री नर्मदानंद बापजी’ द्वादश ज्योतिर्लिंगों की यात्रा कर रतलाम पधारे तो उनकी अगवानी के लिए शहर के हर धर्म और समाज के लोग उमड़ पड़े। ‘सनातन ध्वज यात्रा’ के रूप में संत के सान्निध्य में पैदल भी चले। कहते हैं कि टसंत सब के’ होते हैं, इसलिए ‘श्री नर्मदानंद बापजी’ ने सभी के प्रति ‘समदृष्टि’ रखते हुए सभी का अभिवादन स्वीकार किया और अपना आशीर्वाद भी सब पर लुटाया। शहरवासी अपने गुरु की एक झलक और उनका आशीष पाने के लिए ही उमड़े थे और उन्हें यह मिला भी लेकिन साथ ही उन्हें यह जानकर मायूसी भी हुई कि धर्म और समाज के कतिपय ठेकेदारों ने ‘बापजी’ को ही अंधेरे में रखकर रतलाम का परंपरागत खेल ‘जैन-सनातनी’ वाला कार्ड खेल लिया। इसके नेपथ्य में भी ‘किस्सा कुर्सी का’ ही है।
लुटे-पिटे चेहरे ही बन गए स्वयं-भू राजा-वज़ीर
हमेशा की ही तरह इस बार भी रतलाम के तमाम ‘अवसर परस्तों’ ने धर्म-जागरण के नाम पर शतरंज सजाई। कई मोर्चों पर लुटे-पिटे कुछ चेहरे स्वयं-भू ‘राजा’ और ‘वजीर’ सहित भांति-भांति के ‘मोहरे’ बन बैठे। शतरंज के दोनों ही छोरों पर मोहरे सजे। देखने वालों को लगा इस बार की टक्कर कुछ अलग ही होगी लेकिन यह उनका भ्रम ही था, जिसे टूटते ज्यादा देर नहीं लगी। दरअसल वे ‘रतलाम की परंपरा’ भूल गए थे। उन्होंने यह ध्यान ही नहीं रखा कि दोनों ओर सजे मोहरों में से ‘कौन’ – ‘किसके’ लिए खेल रहा है। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ इशारे करते गए और ‘प्यादे’ आगे बढ़ते चले गए, और जब तक उन्हें यह ‘खेल’ समझ आता, तब तक बाजी पलट चुकी थी।
‘चंदे के हिसाब’ से ‘गेंदों के हिसाब’ तक का सफर
सनातनियों को एकजुट करने के नाम पर शुरू हुए ‘खेल’ में अचानक आई (या प्रायोजित तरीके से लाई गई) ‘धन की आंधी’ में ‘सना’ तो ‘फ़ना’ (बर्बाद) हो चुका था और सिर्फ ‘तन’ ही बचा, वह भी ऐसे ‘ठूंठ’ की तरह तना था जिसके ‘प्राण’ धर्म व समाज के कतिपय ठेकेदार ‘जड़ों में मट्ठा’ डालकर पहले ही छीन चुके थे। पहले ‘सनातनियों की ठेकेदारी’ ऐसे हाथों में थी जिन पर ‘एकजुटता के नाम पर एकत्र चंदे का हिसाब’ अब तक नहीं देने का आरोप है और अब उन लोगों के पास है जिनके पास ‘क्रिकेट की हर गेंद पर लगने वाले दांव का हिसाब’ रहता है।
धर्मनिष्ठों के बजाय ‘नंबरों’ और ‘जमीन’ के ‘जादूगरों’ का रहा कब्जा
पहले मां नर्मदा और फिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों की हजारों किलोमीटर की पदयात्रा करना आसान काम नहीं है। यह वही कर सकता है जिस पर ईश्वर की कृपा हो। ईश्वर के ऐसे ही कृपापात्र संत श्री नर्मदानंद बापजी के रतलाम आगमन पर भव्य स्वागत समारोह की तैयारियां काफी पहले ही गुरुभक्तों ने शुरू कर दी थीं। जैसे-जैसे संतश्री के आने का दिन और समय नजदीक आता गया, वैसे-वैसे तैयारियां भी जोर पकड़ने लगीं। तैयारियां निर्विघ्न संपन्न हों, इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय लोगों की जिम्मेदारियां भी तय की जाने लगीं लेकिन इसी बीच जिम्मेदेरी संभालने वालों में अधिकांश मतलब परस्त भी शामिल हो गए जिन्हें सिर्फ अपने नंबर बढ़ाने भर से ही मतलब था। इनमें धर्मनिष्ठ कम, ‘नंबरों’ और ‘जमीनों’ के ‘जादूगरों’ की संख्या ज्यादा रही। कुछ ‘बाहुबली’ भी जुड़ गए। शायद यही वजह है कि श्री नित्यानंद आश्रमों से जुड़े लोगों को अखबारों में कोर्ट प्रकाशित करवा कर आयोजकों को ‘आश्रम की परंपरा’ का स्मरण कराना पड़ा।
विरोधी’ से लड़ने से पहले ‘अपनों’ से ही कड़ी प्रतिस्पर्धा तय
संत की आड़, नगर सरकार की ‘कुर्सी के लिए टिकट’ पाने और ‘राजनीति चमकाने’ की जुगाड़
तकनीकी और रणनीतिक कारणों से नगरीय निकाय की कुर्सियां मुंगेरी लाल के हंसीन सपने संजोए लोगों से फिलहाल कुछ दूर सरक गई हैं। कुर्सियां जितना ज्यादा दूर सरकीं या अब सरकेंगी, उन पर बैठने वालों की उम्मीदें भी घटती जाएंगी। वजह यह कि कुर्सी तक पहुंचने के लिए जरूरी ‘टिकट’ पाने के लिए उन्होंने जितनी भी जोड़-तोड़ या जमावट अभी तक की थी, वह अब फिर से करना पड़ेगी। नए-नए दावेदार पैदावार हो रहे हैं, सो अलग। ऐसे में ‘विरोधी’ से लड़ने से पहले ‘अपनों’ से ही कड़ी प्रतिस्पर्धा तय है। यही कारण है कि कुर्सी के चहेते ‘शक्तिप्रदर्शन’ का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं, फिर चाहे वह राजनीतिक मंच हो या फिर रैली या धार्मिक आयोजन। सनातन धर्म ध्वज यात्रा में ऐसे ‘कुर्सी चहेतों’ की फौज नजर आए। कुछ कुर्सी प्रेमी तो शोभायात्रा में इस अंदाज में चल रहे थे मानों यह चुनावी रैली हो और वे जनसंपर्क कर अपने लिए वोट मांग करे हों। आयोजन के लिए बनी समितियों में भी ऐसे ही लोगों का जमावड़ा ज्यादा दिखा जिन्हें नगरीय निकाय चुनाव में अपनी राजनीति चमकाने की चाह है। इनमें वे भी शामिल हैं जिन्हें अपने ‘धन’ रूपी ‘रुद्र’ पर और जिन्हें अपनी ‘सीमा’ के अमिट होने का गुरूर है। जो नगर सरकार की कुर्सी के लिहाज से राजनीति में ‘प्रवीण’ नहीं हैं वे भी चमत्कार की आस में पहुंचे। ‘धर्मनाम’ की बहती गंगा में हाथ धोने में वे लोग भी पीछे नहीं रहे जिन्हें अपने ‘चिट्ठी बम’, ‘बाहुबल’ और ‘इंदौरी आका’ की बदौलत टिकट हथिया लेने और चुनावी जंग जीतने का मुगालता है। जिन्हें खुद के ‘प्रभु’ होने पर गुमान था, वे भी टिकट के लिए संत के आगे नतमस्तक नजर आए।