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वरिष्ठ शायर विजय वाते का कहना : बात मेरी थी, तुम्हें अपनी लगी, अच्छा लगा

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 आशीष दशोत्तर

कविता में अपने प्रतिमान गढ़ना , अपने बिम्बों के ज़रिए कोई गूढ़ बात कहना और एक संदेश प्रेषित करना बहुत मायने रखता है । कविता चाहे जिस सिम्फ में लिखी जाए वह कविता ही होती है ।उसका अपना अनुशासन , उसकी अपनी लय और उसकी अपनी कहन शैली ही उसे प्रभावी बनाती है।

बहुत आसान और सहज शब्दों में अपनी बात कहने का फन वरिष्ठ शायर विजय वाते के पास है। वे अपनी ग़ज़लों में दैनंदिन जीवन में बोले जाने वाले शब्दों का इस्तेमाल जिस खूबसूरती से करते हैं , वह महसूसने के काबिल होता है।

बहुत आसान शब्दों में और लीक से हट कर बात कहने में वाते साहब को महारत हासिल है। वे गढ़ी-गढ़ाई शब्दावली, घिसे-पिटे विषयों और कही गई बात को दोहराने के पक्षधर नहीं हैं। उनका यही मानना रहा है कि अपनी बात में कुछ ऐसी तासीर होना चाहिए जो पढ़ने वाले को भीतर तक प्रभावित करे। पढ़ने वाले को वह अपनी ही बात लगे। उसकी जानी-पहचानी शब्दावली हो, उसके जाने-पहचाने विषय हों और उसके दिल को छूने वाली बात हो।

वो तो सबकी राम कहानी कहता है,

लेकिन अपनी ख़ास ज़ुबानी कहता है।

इक शायर है ‘विजय’ जो अपनी ग़ज़लों में,

सबकी जानी और पहचानी कहता है।

श्री वाते अपनी ग़ज़लों में किसी भी मुद्दे की बहुत गहनता से पड़ताल करते हैं। उनकी गहनता इतनी सहजता से आती है कि पढ़ने वाले को अचानक हैरत में डाल देती है। जहां कुछ नहीं होता वहां से अपनी बात निकाल लेना और एक मकबूल शे’र कह देना बहुत मुश्किल होता है , मगर वाते साहब के यहां ऐसी कोई मुश्किल पेश नहीं आती ।

उनकी शायरी में हर रंग दिखाई देता है। वे इंसान की आम तकलीफ़ों का भी ज़िक्र करते हैं। उसकी भूख और उसके सब्र की भी चिंता करते हैं । रहनुमाओं पर उंगली उठाने से भी नहीं चूकते। मेहनत का इंसान के हक़ में आवाज़ भी उठाते हैं। और यह सब इतनी स्वाभाविकता से होता है कि पता ही नहीं चलता।

अगर ऐसा नहीं होता, अगर वैसा हुआ होता

तो मालिक ये बता तेरा यहां क्या रह गया होता?

ज़रा सा इल्म भी होता अगर होनी के होने का

तो फिर तू क्या हुआ होता,तो फिर मैं क्या हुआ होता?

नहीं होती अगर दो रोटियां रोटी के डिब्बे में,

तो आधी रात घर आकर कहां घर- सा लगा होता?

वे शब्द के पीछे छुपे हुए शब्दों की पड़ताल करते हैं ।वाते साहब के यहां एक शब्द इस्तेमाल होता है तो अपने पीछे कई सारे संदर्भ लेकर। सीधे-सीधे बात करने में उनका विश्वास नहीं है। वे कई बार कहते भी हैं कि जो बात कही जा चुकी है उसे दोहराने के बजाय ऐसी बात कही जाए जो अब तक न कहीं गई हो। यद्यपि अब तक सभी कुछ कहा जा चुका है मगर आप की शैली और कहने का अंदाज़  ही आपको दूसरों से बेहतर कर सकता है। यह

विशिष्टता ही शायरी को नई पहचान दिलाती है। वाते साहब के यहां  भी शब्दों के पीछे छिपे हुए शब्दों की पड़ताल और उनके अर्थ ढूंढने की चेष्टा दिखाई देती है।

उसको धोखा कभी हुआ ही नहीं

उसकी दुनिया में आईना ही नहीं ।

सबकी खुशफहमियां बढ़ाता है

आईना सच तो बोलता ही नहीं ।

तुम उसे शे’र मत सुनाओ ‘विजय’

शब्द के पार जो गया ही नहीं।

विजय वाते शब्द के पार जाकर कुछ नया खोज लाने की कोशिश करते हैं। वे बने बनाए शब्दों और मुहावरों को दोहराने के बजाय कुछ नवीनता के पक्षधर हैं।  मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली उनके बारे में कहते हैं ‘ विजय वाते की ग़ज़ल न प्रचलित जनवाद का नारा लगाती है और न कलावाद का परचम उठाती है। वह केवल इंसानी रास्तों में ज़िंदगी का साथ निभाती है। रूसी कवि येसेनिन ने कहा था ‘देखे हुए को दिखाना कला नहीं होती। देखे हुए में जो अनदेखा है उसे दर्शाना कला है।’ विजय वाते ने शिल्प और कथ्य के संतुलित बनाव से इन्हीं ख़ामोशियों को अभिव्यक्त किया है।

भूख लम्हों की प्यास लम्हों की,

ये कहानी है ख़ास लम्हों की।

मेरी गोदी में चांद लेटा है

मेरी चादर उदास लम्हों की ।

उफ! गजब की ये जानलेवा है

दस्तकें आस-पास लम्हों की।

बदलते हालात और समय-समय पर होती तब्दीलियां एक शायर को भी प्रभावित करती है। दुनिया में हो रहे बदलाव इंसान की कामयाबी को तो बता रहे हैं, मगर साथ ही इस कामयाबी के पीछे हो रहे विनाश को भी सामने रख रहे हैं। कवि इनसे कभी विमुख नहीं हो सकता ।उसकी कविता में भी बार-बार ये संदर्भ लौट कर आते हैं और आना भी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों, संदर्भों, विसंगतियों और विद्रूपताओं से परे हटकर कोई रचना सार्थक नहीं हो सकती।

वाते साहब की ग़ज़लों में भी हालात का ज़िक्र होता है मगर एक अलग अंदाज़ में । सीधे-सीधे व्यवस्था और विसंगतियों पर सवाल उठाने के बजाय वे अलग तरीके से अपनी बात कहते हैं ।उनकी बात सीधे-सीधे सवाल न करते हुए तरक़ीब से अपनी बात कहती है। यह उनके भीतर मौजूद शायर की सोच का एक बेहतरीन नमूना है।

कितने आसान सब के सफर हो गए

रेत पर नाम लिखकर अमर हो गए।

ये जो कुर्सी मिली क्या करिश्मा हुआ

अब तो दुश्मन भी लख़्तेजिगर हो गए।

सांप -सीढ़ी का ये खेल भी खूब है

वो जो नब्बे थे बिल्कुल सिफ़र हो गए।

सबके चेहरे पे इक सनसनी की ख़बर

जैसे अख़बार वैसे शहर हो गए।

वाते साहब की ग़ज़लों में वे संदर्भ में बार-बार उभर कर आते हैं जो हमारी ज़िंदगी में कहीं पीछे छूट जाया करते हैं। हमारे रिश्ते, हमारा अपनत्व, हमारे बचपन की स्मृतियां और उन स्मृतियों में छुपे कुछ दृश्य।  वाते साहब अपनी ग़ज़लों में इन संदर्भों को शामिल करते हुए कुछ नई बात कहने में सफल होते हैं। वे इन ग़ज़लों में अपने घर को, अपने मित्रों को, अपने रिश्तों को और अपने जज़्बात को भी शामिल करते हैं।

जैसे-जैसे हम बड़े होते गए

झूठ कहने में खरे होते गए ।

चांद बाबा, गिल्ली- डंडा, इमलियां

सब किताबों के सफे होते गए ।

एक बित्ता क़द हमारा क्या बढ़ा

हम अकारण ही बुरे होते गए ।

जंगलों में बागवां कोई न था

यूं ही बस पौधे हरे होते गए।

और जब यह संदर्भ पीछे छूटते जाते हैं तो एक शायर के मन को ठेस लगती है। वह जिन रिश्तों को छूने की कोशिश करता है ,वे रिश्ते जब औपचारिक रिश्तों में बदलते हैं तो बहुत तकलीफ़ होती है। वाते साहब के यहां भी इन रिश्तों को लेकर एक तड़प सी दिखाई देती है। वे जानते हैं कि यह समय भागदौड़ का है । यहां किसी के पास वक्त नहीं है। सभी को अपने सीमित समय में बहुत सारी ख्वाहिशों को पूरा करना है। ऐसे में भी वे चाहते हैं कि कुछ वक्त हम अपने लिए निकालें।उस वक्त में हमारे उन रिश्तों को सहेजें है जो हमसे दूर होते जा रहे हैं।

यार देहलीज छू कर न जाया करो

तुम कभी दोस्त बनकर भी आया करो ।

क्या ज़रूरी है सुख-दुख में ही बात हो

जब कभी फोन यूं ही लगाया करो ।

वक्त की रेत मुट्ठी में रूकती नहीं

इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो।

विजय वाते के यहां शब्दों की क़ैद नहीं है। बने-बनाए वाक्य नहीं हैं। सुनी-सुनाई बातें नहीं हैं। वे बहुत सामान्य से संदर्भ को लेकर भी अपनी बात इस खूबी के साथ कहने का गुर जानते हैं जो सीधे पढ़ने वाले के मन पर असर करती है। वे सीधे-सीधे, कही गई बात को दोहराने की बजाए अपनी बात को इस शालीनता और सहजता से कहते हैं कि वह बहुत सामान्य सी बात लगते हुए भी बहुत महत्वपूर्ण महसूस होती है। हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल उनकी कहन शैली को प्रभावी बनाता है।

शायरी के हुस्न को यूं आजमाना चाहिए

एक पल के वास्ते सब छूट जाना चाहिए ।

हो गया है पिष्ट-पेषण अब ग़ज़ल में हर तरफ़

बात में अब और कुछ नावीन्य लाना चाहिए ।

उग रही है हर मोहल्ले में अचानक बेशरम

बाग़वानी का नया अंदाज़ आना चाहिए।

कवि अक्सर मां पर कविताएं लिखता है। मां विषय पर इन दिनों कविताएं, शायरी काफी लिखी भी जा रही है, मगर विजय वाते अपनी दादी पर ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल रचते हैं। वे दादी का ज़िक्र करते हुए उन संदर्भों का भी ज़िक्र भी करते हैं जो किसी बुजुर्ग के होने पर ही संभव है । दरअसल हमारे घरों से बुजुर्ग का गुम हो जाना नई नस्ल को उन संदर्भों से जोड़ ही नहीं पा रहा है। वाते साहब ऐसे ही गुम होते संदर्भों को समेटने की कोशिश करते हैं।

सारे घर का ख़्याल करती है

दादी अम्मा कमाल करती है ।

आज मावस है, कल शनीचर है

काम करना मुहाल करती है ।

सर से इक पल अगर गिरे आंचल

अम्मा दिनभर बवाल करती है ।

देह अपनी नहीं संभलती है

सारे जग का सम्हाल करती है।

इतना ही नहीं , बहुत छोटी-छोटी बातें जिन्हें हम इग्नोर किया करते हैं , वही जब शायरी में शामिल होती है, तो कई सारे मंज़र आंखों के सामने तैर जाते हैं। अपनी पत्नी, बेटी और उनसे जुड़ी कई सारी बात वाते साहब की शायरी में दिखाई देती है। रोज़मर्रा के विषयों को लेते हुए वे जीवन के उन व्यापक संदर्भों को रचते हैं जिसे हम सभी भुलाते जा रहे हैं। जीवन की गहनता, सरलता में ही निहित है। हम अपनी आपाधापी में जिन चीज़ों को छोड़ते जा रहे हैं, उन्हें पकड़ने की ज़रूरत है। जिन दृश्यों को देखकर नज़रअंदाज़ करते हैं, उन्हें ठीक से देखने की ज़रूरत है। वाते साहब की शायरी भी उसी तरफ हमें ले जाती है।

सर से लेकर पांव तक इक गुदगुदी जैसी हुई

आईने पर जो दिखी बिंदी तेरी चिपकी हुई ।

एक पल में जी लिए पूरे बरस पच्चीस हम

आज बिटिया जब दिखी साड़ी तेरी पहनी हुई ।

अब छुवन में वो तपन, वो आग, बेचैनी नहीं

तू न घर हो तो लगे घर वापसी यों ही हुई ।

मेरे कुर्ते का बटन टूटा तो ये जाना कि क्यों

तुम मुझे दिखती हमेशा काम में उलझी हुई।

10 जून 1950 को रतलाम में जन्मे श्री विजय वाते की शिक्षा भी यहीं हुई । पुलिस सेवा में कई जिलों में पुलिस अधीक्षक रहते हुए अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के पद से निवृत हुए। पुलिस सेवा में रहते हुए उन्हें दो बार राष्ट्रपति पदक भी प्राप्त हुए। पुलिस की सेवा में इतनी व्यस्तताओं और कठोरताओं के बावजूद वे ग़ज़ल जैसी नाजुक सिम्फ़ से न सिर्फ जुड़े रहे बल्कि उसे शिद्दत से महसूस भी करते रहे। इस अजीब से तालमेल को उन्होंने इन पंक्तियों में इस तरह अभिव्यक्त किया-

नौकरी अपनी जगह है, शायरी अपनी जगह

जह्नोदिल का संतुलन चलता रहा अपनी जगह।

इसी संतुलन को बनाते हुए वाते साहब बेहतरीन शे’र कहते रहे। उनके शे’र लोगों के दिल को छूते रहे। दरअसल शायर की सफलता यही होती है कि  उसके लिखे हुए को लोग  अपनी बात समझ कर महसूस करें। इस मायने में वाते साहब की ग़ज़लें लोगों को अपने दिल के क़रीब महसूस होती है।

यों तो कहते हैं यहां पर कुछ न कुछ हम तुम सभी

बात मेरी थी, तुम्हें अपनी लगी, अच्छा लगा।

वाते साहब ने पुलिस की नौकरी में आने से पहले कॉलेज में इतिहास पढ़ाया। ग़ज़लों को पढ़ा भी ।’सापेक्ष’ के ग़ज़ल विशेषांक में उन्होंने ढाई सौ कवियों की हिन्दी ग़ज़लों का संपादन किया। मशहूर शायर डॉ. बशीर बद्र की चुनिंदा ग़ज़लों का लिप्यांतर कर उसका संपादन भी किया। उनकी अपनी किताबें ‘ग़ज़ल’ और ‘दो मिसरे ‘ उनकी बेहतरीन शायरी की गवाही देती है। साहित्य में सम्मान और पुरस्कार तो उन्हें प्राप्त हुए ही मगर उनकी ग़ज़लें जब लोग अपने क़रीब महसूस करते हैं तो उन्हें यह सबसे बड़ा सम्मान प्रतीत होता है। वे निरंतर अपने मिसरों के ज़रिए ग़ज़ल को नावीन्य प्रदान कर रहे हैं ,यह सुखद है।

 आशीष दशोत्तर

-12/2, कोमल नगर बरवड़ रोड, रतलाम-457001(म.प्र.)

मो.9827084966

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