धूप में उजले नहीं, बरखा में भी बदले नहीं ये दिन
आशीष दशोत्तर
क्षणिक उत्तेजना या तात्कालिक विचारों की अभिव्यक्ति कविता नहीं है। विचार भीतर जन्म लेता है और एक लंबे समय तक पकता रहता है। एक समय बाद कविता आकार लेती है। जब वह साकार रूप लेती है तो एक वैचारिक पृष्ठभूमि के लिए धरातल प्रस्तुत करती है । ऐसी कविता हर वक्त प्रासंगिक हुआ करती है। एक लंबे समय से वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ सृजन कर रहे वरिष्ठ कवि श्री अलीक की कविताएं भी ऐसी ही सार्थक अभिव्यक्ति है । ये कविताएं विसंगतियों का वर्णन ही नहीं करती उन पर प्रहार भी करती है। उनकी कविता आम जनजीवन से जुड़कर जनमानस की तकलीफों को अभिव्यक्ति देती है। ये कविताएं कई सारे सवाल भी उठाती है और जिम्मेदारों पर उंगली उठाने से भी नहीं चूकती।
वामपंथी वैचारिकता के प्रति पूर्णतः समर्पित श्री अलीक की कविता एक ऐसे संसार के विश्वास को अभिव्यक्ति देती है जहां आम इंसान को एक दिन उसका हक़ अवश्य मिलेगा। वर्ग संघर्ष के जरिए तकलीफों और दु:खों के बीच दबाए जा रहे मेहनतकश इंसानों, मजबूर किए जा रहे मजदूरों, वंचितों, शोषितों , दमितों के पक्ष में मज़बूती से आवाज़ उठाती इन कविताओं की थाह पाना आसान नहीं है।
कलम मैं तुम्हीं से कह रहा हूं,
उन अदीबों को अलस से जगाओ
जो जम्हाइयां ले रहे हैं, उन्हें करो चेतस
कि यही वह अवसर है जहां से तुम्हें
सृजन के ऐसे रचने है संसार
जिनके सपने करोड़ों आंखों में टिमटिमाते
टेढ़े -मेढ़े ,आड़े -तिरछे दुर्गम रास्तों में
ख़तरों को पहचाने और अपनी
नफ़स -क़तारों को, ठेठ-कतारों को करें संबद्ध।
प्रख्यात समीक्षक श्री विश्वंभर नाथ उपाध्याय कवि अलीक के बारे में कहते हैं ‘अलीक जनस्थिति और जन नियति से जुड़े हुए कवि हैं । वे यह जो जनमुक्ति का मार्ग है, आंदोलन है ,संगठन है उनकी मुश्किलें समझते हैं । वर्तमान के चुनौतीपूर्ण दौर में अलीक की कविताओं का विशिष्ट महत्व हैं। ये कविताएं रचना कर्म और जीवन कर्म की एकरूपता को रेखांकित करते हुए सच्चे साम्यवादी कवि का आदर्श प्रस्तुत करती है।’
अलीक नाम संघर्ष उत्प्रेरक है। उनकी कविताएं भी इस नाम को सार्थक करती हैं। सामाजिक विद्रूपताओं, विसंगतियों का बखूबी चित्रण करती ये कविताएं रहनुमाओं पर कई सारे सवाल भी उठाती है और उम्मीद की रहगुज़र भी दिखाती है।
जिस तरह केंचुल उतार सड़ांध स्याह अंधेरा
दिमाग़ में प्रवेश कर ,कराता है जघन्य अपराध ।
बरखिलाफ़ मैं खुली हुई मुट्ठियों में
क्रोध बन कसता हूं सभी शिराओं की वल्गाएं
और आंखों में उतर शत्रु को आमने-सामने देख
कौधती विद्युत से नगाड़े बजाता
बहने लगता हूं रण बांकुरों के निर्मम प्रहारों में।
नक़ाबपोश लोगों के चेहरे से अलीक जी की कविताएं सारे नक़ाब उतार देती हैं। वे नक़ाब के पीछे छुपे हुए चेहरे की असलियत को अपने शब्दों के जरिए सामने लाते हैं। हक़ीक़त में जिस क्रूर चेहरे को नकाब के पीछे छिपा कर भोली सूरत में पेश किया जाता है उसे अलीक जी की कविताएं बेनक़ाब करती है । न सिर्फ बेनक़ाब करती हैं बल्कि उस चेहरे की असलियत से भी वाकिफ़ कराती है । कविता की ताक़त यहीं स्पष्ट होती है जब वह किसी चेहरे के पीछे छुपे हुए चेहरे की असलियत सामने ले आए।
बड़े सलीके हैं उनकी मुस्कुराहटों के,
बड़े पेंच और ख़म हैं उनकी तहज़ीबों के।
वे चबाते हैं अदब से
और दांत तक दिखाई नहीं देते
वे नोचते, लहूलुहान कर देते हैं
और उनके खूबसूरत नुकीले नाखून
दस्तानों में सजे होते हैं।
अलीक जी की कविताएं सीधे-सीधे अपनी बात करती हैं। अपनी बात को प्रभावी तरीके से पेश भी करती है। सामान्य व्यक्ति के लिए कुछ भी कहना बहुत आसान होता है। वहां बहुत कुछ अनिवार्यताओं से मुक्त होता है । इसके बरअक़्स कवि के सामने मुश्किल यह होती है कि वह अपनी रचना प्रक्रिया में भाषा, शिल्प, बिंब विधान को लेकर कितना सतर्क रहे, सचेत रहे, कहां बिम्बों के ज़रिए अपनी बात कहे और कब शिल्पगत ज़रूरतों का ख़्याल करे।। अलीक जी का मंतव्य इस बारे में बहुत स्पष्ट है।
जन-जन की रवायतों के महज़ आमफ़हम
शब्दों से ही रचना सौंदर्य नहीं निखरता,
दिशाओं- दशाओं की ओर मुख़ातिब हो प्राथमिकताओं को बखूबी जानना होता है
मक़दूर ख़्वाहिशों की उड़ानें भी भरना होती है……..।
रक्त सींचे, पले-पूसे विचारों में
वे रचनाएं ही पल्लवित हो पाती हैं
महकती है अर्थ ऊर्जाओं में
जो वर्ग सांसो-धमनियों के द्वंद्वरत स्वेद में
नहाई हुई होकर शत-शत कंठों से जगी लय में
गुंजारती रहें।
बदलते वक्त का शिकार हर कोई होता है। बेहतरीन ख़्वाब के लिए बदतर समय से गुज़रना सभी की नियति है । अलीक जी की कविताएं भी इस बदलाव से गुज़र कर सभी की व्यथा कहती है और सभी को सीख भी देती है। कवि ज़िंदगी के दुःख- दर्द से वाकिफ़ है । वह जानता है कि जो कुछ सोचा गया था वह सामने नहीं आ पाया है। जिसकी उम्मीद है कि गई थी वह अधूरी सी प्रतीत हो रही है । जिनसे आशाएं थीं वे निराश कर रहे हैं । जिन्होंने बेहतर वक्त का भरोसा दिलाया था उनका भरोसा टूटता नज़र आ रहा है । ऐसे में कवि संक्रमण के इस दौर में एक आम इंसान के नज़रिए से समूचे फलक पर दृष्टि डालता है।
ये दिन जो हमने कभी भी चाहे नहीं
ज़िंदगी में आते हुए क़तरा -क़तरा किए दे रहे हैं
मुश्किलों में पली-पूसी, दबी-छुपी उम्मीदों को।
कैसे हैं ये दिन हड़बड़ाए हुए से, घबराए हुए से
कि धूप में भी उजले नहीं
बरखा में भीग कर भी बदले नहीं
आईनों में कड़कती है बिजलियां
लरजती अलियां – कलियां
मुरझाए देखती हैं सूनी सूनी उदास गलियां ।
कैसे दुर्दिन हैं जो मोतियों सी
रूपहली ज़िंदगियों पर
वज्र प्रहार करते थकते नहीं।
कविता वही सार्थक होती है जो अपने समय से आगे की बात करे। जो वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य का आकलन करते हुए आने वाले वक्त का एक रेखांकन तैयार कर सके। कविता किसी समय में नहीं बंधती मगर हर समय को अपने भीतर बांधने का हुनर रखती है ।
कवि कहे अगले कल की बात
अंधड़ अंधारी है रात।
जली कटी मुसीबतें खटपटी
अटपटी गहरी है घात।
साहस-संवाद, बुद्धि ,तेजस विमर्शों के
दल -बल बढ़ते संघर्षों के
मुश्किल प्रसव, हो पाएंगी प्रभात।
कवि कहे अगले कल की बात।
ऐसी कविताओं को किसी भी दौर में, किसी भी वक्त और किसी भी तरह से पढ़ा जाए, ये कविताएं उस वक्त की ही प्रतीत होती हैं। अलीक जी की कविताएं भी अपने समय से आगे की कविताएं हैं। ये कविताएं हर उस वक्त का चित्रण करती है जो हमारे साथ चलता है। हम से बतियाता है। हमें सतर्क करता है। सामने आने वाले ख़तरों से आगाह भी करता है। हमारा ढांढस भी बढ़ाता है और हमें साहस भी देता है।
आने वाले समय में आप सीधे-सीधे जाएंगे
और उसी तरह सीधे-सीधे आएंगे ।
किसी भी परिचित-अपरिचित,
सुरक्षित-असुरक्षित जगह समूह में ,समुदाय में
आप चर्चा मशविरा नहीं करेंगे
आप चाहे कुछ भी बोलें, बातचीत करें
वह सब राजनीतिक मशविरा समझा जाएगा
जो सत्ता के विरुद्ध षड्यंत्र मान लिया जाएगा
और आप सभी धर लिए जाएंगे ।
आपके सिरों पर संगीने तनी होंगी
और कानून की भाषा में आप
विद्रोही करार दिए जाएंगे।
उनकी कविता संभलने का मशविरा भी देती है ।कविता सीधे-सीधे बहुत कुछ कहती भी है मगर कई सारी बातें इस सरल बयानी के पीछे छुपी होती है। अलीक जी की कविताओं में इसी गहराई को समझना और उस गहराई तक पहुंचना कविता के मूल तक ले जाता है।
बर्बर कहीं से, किसी रस्ते
किसी भी दिशा से आएंगे ।
पूछेंगे नहीं क्यों रोए तुम,
पूछेंगे नहीं क्यों हंसे तुम
पूछेंगे नहीं क्यों सोए तुम,
पूछेंगे नहीं क्या बतरस बोल बतिया रहे थे
पूछेंगे नहीं तुलसी -कबीर क्यों गा रहे थे?
बर्बर कहीं से भी, किसी भी दिशा से आएंगे
धड़धड़ाते गोलियां दनदना जाएंगे।
तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद, तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद, तमाम विसंगतियों के बावजूद कवि सदैव एक बेहतरीन कल की उम्मीद रखता है। कवि हमेशा उस द्वार को खोलने की बात करता है जहां से रोशनी आती है। यह सही है कि अंधेरा हर वक्त अपने पैर पसारता है मगर यह भी सही है कि उस अंधेरे को दूर करने के लिए रोशनी का कोई दरवाज़ा हर वक्त खुलता भी है। अलीक जी भी ऐसे ही दरवाजे को खुला रखने की सलाह देते हैं। वे जानते हैं कि ऐसे दरवाजों से ही एक सुनहरी किरण प्रवेश करेगी जो दुनिया के तमाम वंचितों और अभावग्रस्त लोगों के जीवन में सुख की रश्मियां बिखेरेंगी।
दरवाज़े ज़िंदगी की बेहतरीन ज़ुबान
और मिलते हुए हाथों की गर्माहट में
वहशतों को तोड़ नए दृश्य विधान की ओर
हमारी सदिच्छाओं, कल्पनाओं को मोड़ते हैं
हमें , उनसे सीखते रहना है।
रचनात्मकता के ऐसे ही दरवाजे निरंतर खुले रहना चाहिए। अलीक जी उम्र के सात दशक पार करने के उपरांत भी निरंतर सक्रिय होकर साहित्य सृजन में लगे हुए हैं । अपने चिंतन- मनन और वैचारिकता के साथ वे आज भी मज़बूती से रचनात्मकता से जुड़े हैं, यह साहित्य जगत के लिए सुखद है।
आशीष दशोत्तर, 12/2, कोमल नगर बरवड़ रोड, रतलाम-457001
मो.9827084966