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बार-बार ज़िन्दा होते भगत सिंह

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 शहीद दिवस 23 मार्च पर विशेष

⚫  ” मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इस से ऊंचा में हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियां जनता के सामने नहीं है अगर मैं फांसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मध्यम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए ⚫

  आशीष दशोत्तर

शहीदे आजम भगत सिंह ने अपनी फांसी के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को अपने साथियों के नाम लिखे पत्र में कहा था  ” मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इस से ऊंचा में हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियां जनता के सामने नहीं है अगर मैं फांसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मध्यम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए , लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तान की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू करेंगी और देश की स्वाधीनता के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद है या तमाम शैतानी ताकतों के बूते की बात नहीं रहेगी।”


भगत सिंह जान चुके थे कि उनकी मौत अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ी मुश्किल साबित होगी और मौत से वे इतने अधिक लोकप्रिय हो जाएंगे जितना ज़िंदा रहते नहीं हो सकेंगे। इसीलिए भगत सिंह ने फांसी को हंसते-हंसते कुबूल किया । उन्हें शायद ही इस बात का इलहाम रहा होगा कि देश को आज़ादी मिलने के बाद उनके क़िरदार को आज़ाद हिंदुस्तान स्वार्थ और राजनीति के लिए इस्तेमाल करेगा।  आज भगतसिंह के जीवन मूल्यों को किसी न किसी विचारधारा के चौखटे में मढने की कोशिश की जा रही है। इतना ही नहीं भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को भी एकपक्षीय नज़र से देखने और प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।


हाल ही में देश में हुए कुछ राज्यों के चुनाव में खासतौर से पंजाब में आप पार्टी ने भगतसिंह का भरपूर इस्तेमाल किया । हज़रत मोहानी द्वारा दिए गए ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे को भगत सिंह ने अपनी ताक़त बनाया था और आज राजनीति ने इस नारे को अपने हित में इस्तेमाल किया। इतना ही नहीं पंजाब की नई सरकार ने अपना शपथ विधि समारोह खटकड़ कलां गांव में रखा। खटकड़ कलां गांव नवांशहर जिले में हैं। भगत सिंह इस गांव में रहते नहीं थे।

उनके र‍िश्‍तेदार यहां रहते थे और वे अपने दादा के साथ यहां आते थे। भगत सिंह खुद कभी खटकड़ कलां गांव में नहीं रहे। लेकिन उनका परिवार बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आकर यहां बस गया था। उनकी मां विद्यावती और भतीजे-भतीजियां यहां आकर बस गए थे। जिले का नाम अब शहीद भगत सिंह नगर कर दिया गया है। यहां सरकार का शपथ विधि समारोह होना उस लिहाज से अच्छा होता यदि सरकार भगत सिंह के आदर्शों को अपनाने की भी कुछ बात कहती।  शपथ विधि समारोह में लोगों को पीली पगड़ी और महिलाओं को पीले वस्त्र पहन कर आने का आग्रह किया गया। स्वयं नए मुख्यमंत्री ने भी इस पीली पगड़ी को धारण किया। यहीं से भगत सिंह को एक नए सांचे में ढालने की कोशिश दिखाई देती है । भगत सिंह ने अपने जीवन में कभी पीली पगड़ी धारण नहीं की । आज उनके चित्र और ऐसे समारोहों में पीली पगड़ी धारण कर यह संदेश दिया जा रहा है कि यह भगत सिंह का प्रतीक है । भगत सिंह के सिर्फ चार चित्र उपलब्ध हैं। एक चित्र स्कूल और दूसरा कालेज का है जिनमें वे सफेद पगड़ी धारण किए हुए हैं। तीसरे चित्र में वे एक खाट पर बैठे हैं और यह चित्र उस वक्त का है जब उनसे एक पुलिस अधिकारी बयान ले रहा था । चौथा क्षेत्र हेट लगा हुआ है जो युवाओं की सर्वाधिक पसंद और क्रांति का प्रतीक बना। इन चार उपलब्ध चित्रों में कहीं भी भगत सिंह पीली पगड़ी में नज़र नहीं आए ,मगर चित्रकारों ने अपने चित्रों में भगत सिंह को पीली पगड़ी धारण किए हुए बताया ।इस समारोह में पीली पगड़ी के उपयोग ने इसे और पुख्ता किया । हालांकि यह पंजाब की नई सरकार का अपना दृष्टिकोण है कि वह लोगों के किस तरह की पगड़ी पहनने के लिए प्रेरित करें मगर इसे भगत सिंह के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जाना सर्वथा अनुचित है।


यदि ऐसा ना होता तो इसी सरकार ने राज्य में भगत सिंह के साथ भीमराव अंबेडकर के चित्र सरकारी दफ्तरों में लगाने की घोषणा भी की है, जिससे ज़ाहिर है कि सरकार इन दोनों चरित्रों का उपयोग अपने राजनीतिक आधार को बढ़ाने के लिए करना चाहती है।


फिर भी हम अगर यह उम्मीद करें कि आप पार्टी या अन्य राजनीतिक दलों का उद्देश्य भगत सिंह को अपने दृष्टि से इस्तेमाल करने का नहीं है तो क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि इन दलों द्वारा भगत सिंह के उन विचारों को भी आत्मसात किया जाएगा जिनके लिए उन्हें पहचाना जाता है ? मसलन धर्म को लेकर भगत सिंह ने कई ऐसे महत्वपूर्ण बातें कहीं जिन्हें आज के राजनीतिक दल छूते हुए भी घबराएंगे । भगत सिंह धर्म को लेकर स्पष्ट और मानवतावादी विचारधारा के संपोषक थे। भगतसिंह धर्म को लेकर बहुत अधिक सतर्क एवं सजग थे। सामान्यतः उनके बारे में यह सोचा जाता है कि वे घोर नास्तिक थे। मग़र यह सच होते हुए भी सच नहीं है। सच इसलिए कि स्वयं भगतसिंह ने खुद को नास्तिक घोषित किया और असत्य इसलिए कि वे धर्म के उस रूप में नफ़रत करते थे जो मनुष्य को अकर्मण्य बनाता है। भगतसिंह धर्म के मामले में जैसे थे वैसे ही दिखना भी चाहते थे। उन्होंने धर्म को न सिर्फ नकारा बल्कि ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार किया। उनका यह विरोध खुद को श्रेष्ठ या अलग साबित करने के लिए नहीं था। उन्हें जब यह अहसास हुआ कि उनके साथी उनके इस नास्तिक स्वरूप के बारे में कुछ अलग विचार रखते हैं तो उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वे न तो गर्वित हैं और न ही आत्ममुग्ध। वे स्वयं को नास्तिक बताते हैं तो इसलिए कि वे यह महसूस करते हैं कि इसमें ही जीवन का सार है। उन्हीं के शब्दों में, ‘‘मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह अहंकार नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वंद्वी हूँ न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। एक बात निश्चित है, यह अहंकार नहीं है जो मुझे इस भाँति सोचने की ओर ले गया। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था। जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे दोस्तों को कुछ भी पता न था। कम से कम एक काॅलेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अंहकार को नहीं पाल-पोस सकता जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाए। यद्यपि में कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ को मैं अच्छा नहीं लगता था, पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का तो कोई मौका ही न मिला सका। ’’       

   
        भगतसिंह तेईस वर्ष की आयु के ऐसे युवक थे जिनमें धर्म को लेकर एक तरह का आक्रोश सहज था। ऐसा आक्रोश इस आयु वर्ग के युवाओं में कई विषयों पर होता है। मग़र इस तरह के आक्रोश के प्रति वे कितना न्याय कर पाते हैं ? यह उस दौर के युवाओं में भी था। जब युवा अपनी परिस्थितियों अपने परिवेश, अपनी परम्पराओं और पारम्परिक मूल्यों से विद्रोह करता है, तो यह विद्रोह क्षणिक नहीं होता। उसे पता होता है कि इस विद्रोह का खामियाजा उसे भुगतना ही होगा। भगतसिंह अध्ययन के जरिये स्वयं को इतना परिपक्व बना चुके थे कि उनमें हर कुतर्क का जवाब देने की ताक़त थी।


आज धर्म राजनीति का अनिवार्य अंग हो चुका है और धर्म के जरिए ही लोगों को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर अपना हित साधा जा रहा है ऐसे में भगत सिंह के ये विचार और उनके आदर्श क्या आज की स्वार्थी राजनीति में अपनाए जा सकते हैं ? यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो फिर भगत सिंह जैसे आदर्शों को युवाओं के मन में ग़लत तरीके से गढ़ने की कोशिश भी नहीं होना चाहिए। भगत सिंह जैसे थे वैसे ही युवाओं के मन में बसे रहें और उनके सही क़िरदार को समाज के सामने प्रस्तुत किया जाए यह आज की आवश्यकता है।

(लेखक भगतसिंह की पत्रकारिता पर पुस्तक ‘समर में शब्द‘ के लेखक हैं।)
12/2, कोमल नगर,
रतलाम, मो. 9827084966

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