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व्यंग्य : पद प्रेमी के पदचिह्न

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⚫ अपनों की संगत को ये तरसते हैं मगर इन्हें अब वो रंगत नहीं मिल पाती। अकेले, अनमने से ये भटकते रहते हैं। अपने पद से चिपके ऐसे लोगों को अब भी अपनी पदप्रियता का बोध नहीं होता। ऐसे पदप्रिय अपने जीवन पथ पर कोई पदचिह्न नहीं छोड़ पाते।⚫

 आशीष दशोत्तर

पद नसीब वालों को ही मिलते हैं। पद के लिए जी-तोड़ मेहनत से अधिक ज़रूरत जोड़-तोड़ की होती है। एक बार पद मिल जाता है तो फिर क़द अपने आप बढ़ जाता है। किसी ज़माने में इंसान के क़द से उसका पद गौरवान्वित होता था मगर आजकल पद से इंसान की औक़ात बदल जाती है। पद मिलते ही ज़मीन के पत्थर की हसरतें महल का कंगूरे छूने लगती है। इंसान अपने जीवन में क़िरदार को निखारने के लिए जितनी मेहनत नहीं करता उससे अधिक मेहनत पदनाम पाने के लिए करता है । उसे वेतन चाहे जितना मिल जाए, संतोष नहीं होता जब तक कि पदनाम न मिले। पद से अपना नाम जोड़ने के लिए वह कुछ भी तोड़-फोड़ करने को तैयार रहता है।


यह पद का अपना प्रभाव है कि उसके आते ही इंसान, इंसान नहीं रहता । वह क्या हो जाता है इसकी उसे भी ख़बर नहीं होती । वह पद के दाएं- बाएं, ऊपर- नीचे, आगे -पीछे, इधर- उधर ,यहां -वहां कुछ नहीं देख पाता। असल में वह देखना भी नहीं चाहता । क्यों देखें ? जब उसके पास पद है तो सबको उसे देखना चाहिए।  पद पर प्रतिष्ठित होकर भी व्यक्ति को इधर-उधर देखना पड़े तो फिर क्या मतलब?


लिहाजा पद रखने वाला कभी किसी की चिंता नहीं करता। वह सिर्फ अपने पद की ही चिंता करता है। उसे कभी छोड़ता नहीं। चालाक ज़माने का भरोसा नहीं । जरा सी देर के लिए पद छोड़ा और कोई दूसरा काबिज हो जाए तो क्या हो।  इसलिए पद छोड़ने का प्रश्न ही नहीं । अब तो तबादले भी पद सहित होने लगे हैं, इसलिए पदधारी को अपने पद के साथ सफर करने का पूरा अधिकार है । कई लोग तो अपने पद से नीचे उतर ही नहीं पाते । यहां तक कि छुट्टी पर भी नहीं जाते। कभी छुट्टी लेना भी पड़े तो इस तरकीब से लेते हैं कि अपने पद का भार किसी को नहीं देना पड़े। ऐसे ‘पदप्रिय’  घर भी जाते हैं तो पद पर सवार होकर ही जाते हैं । अपनी पत्नी ,बच्चों से ऐसे ही व्यवहार करते हैं जैसे वे दफ़्तर के मातहत हों। यह तो ग़नीमत है कि पत्नी की फटकार और बच्चों का व्यवहार उन्हें एक झटके में पद से उतार देता है , वरना वे पद से उतरते?


मोहल्ले में तो पद से उतरने का सवाल ही नहीं । किसी की तरफ़ देखना नहीं। ग़लती से देख लिया तो हंसना तो कभी नहीं। यह पदधारी के लिए बहुत ज़रूरी है। उसे अपने पद पर सवार ही रहना पड़ता है। कभी मित्रों के बीच बैठने का अवसर मिल जाए तो भी ऐसे लोग अपने पद को नहीं छोड़ पाते। कभी खुलकर हंसते नहीं। मित्रों के साथ चाय तक नहीं पीते तो भोजन की बात क्या। ऐसे लोगों के लिए मित्रगण मिलन स्थल के बाहर एक तख़्ती लगा दिया करते हैं कि ‘कृपया अपने पदत्राण एवं पद बाहर उतार कर आएं।’ मगर पदधारी फिर भी नहीं समझते और पद सहित अंदर चले आते हैं। उनसे पद नहीं छूटता चाहे मित्र छूट जाएं। बरसों की मित्रता को एक पद पर न्यौछावर करने से ये पीछे नहीं हटते।

ऐसे पदप्रिय सेवानिवृत्ति के बाद अक्सर अकेले घूमते पाये जाते हैं। उन्हें कोई नमस्कार भी नहीं करता। अपनों की संगत को ये तरसते हैं मगर इन्हें अब वो रंगत नहीं मिल पाती। अकेले, अनमने से ये भटकते रहते हैं। अपने पद से चिपके ऐसे लोगों को अब भी अपनी पदप्रियता का बोध नहीं होता। ऐसे पदप्रिय अपने जीवन पथ पर कोई पदचिह्न नहीं छोड़ पाते।

आशीष दशोत्तर

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