वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे शख्सियत : फक़त मांगने से नहीं मिला कभी उसे अपना आकाश -

शख्सियत : फक़त मांगने से नहीं मिला कभी उसे अपना आकाश

1 min read

⚫ निरंतर सृजनरत रचनाकार कथाकार एवं कवयित्री डॉ. किसलय पंचोली की कविताओं में यह स्वाभाविकता देखी जा सकती है। वे वनस्पति शास्त्र की प्रोफेसर हैं और इस लिहाज से अपनी प्रकृति के बहुत क़रीब भी।  उनकी कविता में इसका आभास भी होता है। ⚫

⚫ आशीष दशोत्तर

कविता स्वाभाविक है । यह मनुष्य जीवन से जुड़ी है ,इसीलिए मनुष्य के जीवन में कविता बहुत स्वाभाविक रूप से आती है। ठीक उसी तरह जैसे उसके जीवन में उसकी प्रकृति, उसका परिवेश, सुहानी सुबह, सुखद शाम , सुन्दर वातावरण सब सहज रूप से समाहित होता चला जाता है ,उसी तरह कविता भी उस से वाबस्ता होती है। इस स्वाभाविकता से आती कविता जब सुघड़ हाथों में पहुंचती है तो वह शिल्प और भाव का पैरहन ओढ़कर खूबसूरत हो जाती है।

कथाकार एवं कवयित्री डॉ. किसलय पंचोली

निरंतर सृजनरत रचनाकार कथाकार एवं कवयित्री डॉ. किसलय पंचोली भी ऐसी ही स्वाभाविक रचनाकार हैं। उनकी कविताओं में यह स्वाभाविकता देखी जा सकती है। वे वनस्पति शास्त्र की प्रोफेसर हैं और इस लिहाज से अपनी प्रकृति के बहुत क़रीब भी।  उनकी कविता में इसका आभास भी होता है।

तुम जो अक्सर यहाँ आती हो

लेकिन अफसोस  मुझे नहीं जानतीं।

इसी सभागार के बगीचे में खड़ा मैं,

सॉसेज ट्री या कायजेलिया पिन्नाटा

या कहूँ झाड़फानूस का पेड़ हूं।…..

मैं झाड़फानूस का पेड़ अक्सर यह सपना देखता हूं

कि शहर के हर चौराहे वृक्षों के नाम पर हैं।

सिर्फ नाम पर नहीं

उस चौराहे पर वही वृक्ष सिर उठाए खड़े हैं।

मैं सपने में यह भी देखता हूं

कि तुम चौराहे के मध्य मेरी छाया में

प्रमुख लेडी पुलिस हो।

चार लेडी ट्रैफिक पुलिस सिपाही

संबंधित मार्गों की शुरुआत पर लगे

वृक्षों के नीचे खड़ी ट्रेफिक कंट्रोल कर रही हैं।

यकीनन मुझे सिर्फ तुमसे

और तुम ही से उम्मीद है,

उम्मीद से तुम ही तो होती हो।

तुम कर सकती हो, तुम करोगी

मुझ झाड़फानूस पेड़ का सपना साकार,

हर चौराहे को दोगी ‘सुगम-ट्रेफिक’ और ‘छाया-उपहार’।

एक रचनाकार कभी किसी दायरे में क़ैद होकर अपनी बात नहीं करता । उसके लिए समूचा आकाश ही उपलब्ध होता है । उसकी सीमाएं अनंत होती हैं। उसकी कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति की कोई सरहद नहीं होती। किसलय जी के यहां भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनंत आकाश उपलब्ध नज़र आता है। उनकी कविताएं इस अनंत आकाश पर उन सभी संभावनाओं की पतंगे उड़ाती नज़र आती है जिनसे एक मनुष्यता की ऊंचाइयों को छुआ जा सके।

वह पहली

छत के दरवाजे की चौखट थामे मांगती रही सदा

उसके हिस्से का आकाश

उड़ाने के लिए अपनी पतंग!

फक़त मांगने से,नहीं मिला कभी उसे

उसके हिस्से का आकाश और उड़ा न सकी वह

आज तक अपनी कोई पतंग ।

उस दूसरी ने  कभी नहीं मांगा आकाश का कोना

बस तैयार किया मांजा

चुनी पतंग, थमाई चकरी और दी उछाल

आकाश की ओर अपनी पतंग !

तनिक हिचकोले खा

अन्य पतंगों के पेंचों से बचती बचाती,

उड़ने लगी अच्छे से दूर नीले आकाश में

उसकी गाती मुस्कुराती पतंग!

दूसरी ने पहली से कहा-” मां, आसमान सबका है

यह सबक मैंने आप से ही सीखा है।”

पहली हो गई निहाल निहार कर नीले आकाश में

बेटी की गाती, मुस्कुराती पतंग!

किसलय जी का जन्म रतलाम में ही हुआ । जन्म से स्नातक की शिक्षा तक वे रतलाम में ही रहीं। रतलाम से उन्होंने बहुत कुछ ग्रहण किया। वे अपने भीतर साहित्य के संस्कारों को रोपने का श्रेय रतलाम को ही देती हैं। यहां से मिली समझ ने उन्हें साहित्य लेखन की ओर प्रवृत्त किया। वे निरंतर गद्य और पद्य विधा में अपना सृजन करती रहीं। किसलय जी की कविताओं में निरंतरता का आभास होता है । वे अपनी रचनाओं में जीवन की तरह उस रवानी की पक्षधर हैं जो सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है । दायरों में सिमटना और खुद की नज़र में बेहतर बनने की बजाय वे निरंतर प्रवाहमान रहते हुए नए-नए संपर्कों, नए-नए शब्दों एवं नए व्यक्तित्व से मिलकर अपनी रचना प्रक्रिया को बेहतर बनाने की बात करती हैं।

नदियों को बहना आता है,

वे बह रही हैं कई सदियों से;

कल-कल छल-छल, छल-छल कल-कल!

हम को सताना आता है,

हम सता रहें हैं उन्हें कुछ सदियों से;

कर निर्वनीकरण, खनन ओ प्रदूषण!

गर न करें हम उन पर ये प्रताणन,

नदियाँ बहती रहेंगी आगामी कई सदियों तक;

यूँ ही कल-कल छल-छल, छल-छल कल-कल! 

रचनाकार के जीवन में वे पल बहुत मूल्यवान होते हैं जो उसके बीते जीवन से जुड़े होते हैं। हर रचनाकार को कहीं न कहीं वे दृश्य याद आते हैं। बीती बातें , गुज़रे हुए लोग और उनसे जुड़े नैतिक मूल्य इन्हीं सब से मिलकर कोई भी रचनाकार अपनी रचना को आकार प्रदान करता है । किसलय जी भी इन्हीं सब से वाबस्ता रहीं। उनकी कविताओं में बार-बार अपने बीते हुए दिन लौट कर आते हैं। वे बचपन के अपने दिनों को नए प्रतीकों में ढाल कर पेश करती हैं। उनकी रचनात्मकता और निरंतरता में गुज़रे हुए पलों का लौटना उनकी संवेदनशीलता और गहनता को व्यक्त करता है।

बचपन, जाता नहीं है हमसे दूर

हम ही उसे ठेलते रहते हैं परे

कभी इस व्यस्तता की ओट में

तो कभी उस काम के नाम पर।

सच वह सदा रहता है भीतर

हम ही नहीं जीते उसे

बड़े होने के सलीब को ढोते हुए

होकर स्वत: मजबूर।

बचपन, जामन-सा होता है

मन-भगोने में बस ‘यह करना है’ का

जरा गुनगुना दूध डाल देखो

जी उठता है वह ताजे दही सा।

बचपन, जब यूं उमगे अपने आप

जी लेना उसे भरपूर चाहे उम्र हो पचपन

या उससे भी कहीं अधिक।

जैसे कभी पेड़ों पर डले रस्सी वाले झूलों की

जितनी हो सके उतनी

ऊंची से ऊंची पेंगे चढ़ा-चढ़ा कर।

या समुद्र किनारे बिखरी

सीपियों, शंखो, बालू रेत को

अपनी उभरी नसों वाले हाथो से

जी भर बटोर-बटोर कर।

या जंगल में घूमते हुए अचानक दिख जाती

जमीन के ऊपर निकल आई जड़ों पर

संभलकर हौले से कूद-कूद कर।

या बस यूं ही अकेले में

कभी आदमकद आइने के सामने

मन भर कर गाते हुए

हांफनी आने तक नाच-नाच कर।

किसलय पंचोली की कविताओं में जीवन के वे सत्य भी उद्घाटित होते हैं जिनका सामने आना ज़रूरी है। मसलन कई चीज़ें हमारी ज़िंदगी में शामिल हो चुकी हैं जिन्हें हम छोड़ना नहीं चाहते। धर्म के नाम पर हो रहा पाखंड, दिखावे के नाम पर हो रहा हमारा प्रदर्शन और मनुष्य द्वारा चेहरे पर चेहरे लगाने की प्रवृत्ति। इन सब को किसलय जी की कविता बेनकाब करती हैं। वे बहुत गूढ़ शब्दों में कविता नहीं रचती हैं परंतु उनके सीधे-सीधे शब्द भी ऐसे दिखावे और पाखंड का पर्दाफाश करते हैं। वे पूजा, आराधना ,उपासना, इबादत सभी को इंगित करते हुए मनुष्य को एक बेहतर परिवेश के निर्माण की सीख देती हैं और साथ ही यह भी बताती हैं कि जब परिवेश स्वच्छ होगा तभी प्रार्थना और पूजा का फल प्राप्त होगा। यहां परिवेश सिर्फ आसपास का वातावरण ही नहीं है वरन् मनुष्य के भीतर के वातावरण की स्वच्छता से भी है। किसलय जी अपनी रचनाओं में बहुत मारक ढंग से इन प्रवृत्तियों पर प्रहार करती है।

अपना दर तो साफ स्वच्छ और

गली के मुहाने पर कचरे का स्तूप।

कौन जाने उसी मोड़ से आती हो लक्ष्मी छम-छम!

क्या पता उसी के पांव चुभ जाए

कांच की किरच कोई।

उलझ जाए पॉलीथिन के ढेर में

पदमा की पायल कहीं।

अपना घर तो दमकता, चमकता और

आसमान में रचता आतिशी धुआं।

कौन जाने उसी रास्ते से

अवतरित हो चंचला छम-छम!

क्या मालूम चिरमिरा उठे धूम्र से उसके नयन।

दूभर हो जाए विषाक्त होती हवा में

चपला का सांस लेना।

क्यों न दिवाली पर हम बीड़ा उठाएं

श्रिया की अगवानी में।

सुरक्षित करें पर्यावरण बुहार दें प्रदूषण।

कौन जाने चुनने चली हो क्षीरजा

भारत को अपना इस सदी का घर।

हो मंगल धरती, मंगल दीवाली और

सुनें हम सुमंगला की छम-छम!

किसलय जी की पहचान अपनी कहानियों के ज़रिए काफी रही हैं। वे समकालीन कहानी की एक बेहतरीन कथाकार हैं, इसके साथ ही उनकी काव्य धारा में भी एक तरह की कहानी की बुनावट नज़र आती है । वे स्त्री चरित्र को लेकर, स्त्री की शक्ति को लेकर और स्त्री के स्वरूप को लेकर एक तरफ पौराणिक चरित्रों से अपनी बात कहती हैं तो दूसरी ओर मनुष्य को यह भी सीख देती है कि एक स्त्री को पूर्णता इसी समाज से मिलती है। समाज की दृष्टि यदि साफ हो, स्त्री के प्रति सम्मान हो, उसके महत्व से सभी परिचित हों और उसकी शक्ति को सभी पहचाने तो एक स्त्री स्वयमेव सामने खड़ी हुई मिलेगी । अपनी कविताओं में भी वे इसी स्वरूप को सामने लाती हैं।

अब वह समझ चुकी है अपनी क्षमता

तुम न समझना चाहो यह ‘परेशानी’ तुम्हारी है।

वह जान चुकी है अपनी शक्ति

तुम जान कर अनजान बनो

यह “दिक्कत” तुम्हारी है।

वह पा कर रहेगी उसका समुचित सम्मान

तुम न देना चाहो यह ‘उलझन’ तुम्हारी है।

वह हो कर रहेगी जल्द ही सशक्त

तुम अहमग्रस्त रहो यह ‘समस्या’ तुम्हारी है।

समय रहते अपनी

परेशानियों, दिक्कतों, उलझनों, समस्याओं

से ऊपर उठो यक़ीनन सहर्ष मिलेगी तुम्हें वह,

ईश्वर की अनुपम कृति, नारी है !

किसलय पंचोली यहां नारी को गढ़ने के साथ उसके आगे बढ़ने की बात भी करती हैं। वे नारी के कमज़ोर होने की बात नहीं करती हैं। वे नारी की ताक़त को बताती हैं और आधी आबादी को शेष आधी आबादी की स्वीकार्यता की बात करती हैं। उनके यहां नारी महान न सही, मज़बूत ज़रूर है।

हां अब हम न रहती हैं चुप या मौन

न रखती हैं अपने होंठ सिले हुए या बंद!

बुहार देती हैं हर छोटी-बड़ी, नई या पुरानी

बुरी नीयत, नज़र, बेहूदगी, बदजुबानी

या बदसलूकियों की गंध!

धीरे ही सही निश्चित ही बदल रहा है पौरुष

सुन आधी-आबादी के

नित बढ़ते आत्म विश्वास भरे छंद!

जीवन के संदर्भ कविता में सीधे सीधे आएं तो वह कविता नहीं होगी। कविता में भाव पक्ष के साथ कला पक्ष भी महत्वपूर्ण होता है । किसलय जी की कविताओं में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए इस कला पक्ष का बहुत खूबसूरती से सहारा लिया गया है। वे जीवन के बहुत सहज दृश्यों को इतनी सरलता के साथ प्रस्तुत करते हुए अपनी बात कह जाती है कि पढ़ने वाला उसके सामान्य शब्दों से आगे बढ़कर उनके भीतर तक पहुंचने के लिए मजबूर हो जाता है । कविता में वह बात नहीं होती जो शाब्दिक रूप से कही गई है बल्कि उन शब्दों के पीछे जो दुनिया छुपी होती है वही महत्वपूर्ण होती है। किसलय जी की सरल शब्दावली में कही गई कविताओं में भी पीछे जो दृश्य गतिमान होता है वही उनकी कविता की ताक़त बनता है।

चौथे पहर किरण ने कहा पानी से,

आओ, खेलें खेल।

अनमने पानी ने टाला, आज नहीं, कल सही।

किरण तो ठहरी किरण।

ऊर्जा से भरी समय की मुंहलगी,

वह कहां थी मानने वाली।

लगी आग पानी में बूंद-बूंद, अणु-अणु,

पानी, पानी न रहा बन गया इंद्रधनुष!

कोण-कोण रंग छिटकाता सतरंगा इंद्रधनुष!

दुबक गई किरण पानी की ही किसी बूंद में।

दिन बोला अद्भुत है, अद्भुत!

और धीरे-धीरे मुस्कुराया सूरज!!

बीती रात चाहत ने कहा तन से,आओ खेलें खेल।

अलसाते बदन ने टाला,अभी नहीं, फिर कभी।

चाहत तो ठहरी चाहत।

ऊष्मा से भरी दिल की मुंह लगी,

वह कहां थी मानने वाली।

लगी आग तन में रेशा-रेशा, कोष-कोष,

तन, तन न रहा हो गया इंद्रधनुष!

सांस सांस प्यार महकाता रतिरंगा इंद्रधनुष!

दुबक गई चाहत  पलकों की ही कोर तले।

रात बोली अद्भुत है, अद्भुत!

और मंद-मंद मुस्कुराया चांद!!

कोरोना काल के दौरान मजदूरों को नंगे पैर सड़क पर दौड़ते सभी ने देखा । पलायन करते हुए भी सभी ने महसूस किया । उनकी पीड़ा को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त भी किया , मगर किसलय जी की नज़र इस आपदा काल में मजदूर के उस भाव की तरफ़ जाती है जहां अमूमन लोग पहुंच नहीं पाते। एक बहुत सामान्य सी बात को लेकर वे मुसीबत के वक्त एक मजदूर की उस प्रवृत्ति को भी खोज लेती हैं जो उसके संस्कारों में है। किसलय जी की यही दृष्टि उनकी कविता को महत्वपूर्ण बनाती है।

रात वह देख रही टुकुर-टुकुर

छत से लटकते जालों को

हुई नींद आँखों से कोसों दूर

निहार उदास, धूसर दिवालों को।

सुबह हुई और वह बोली-

“सुनो जी, म्हारे राते नींद नी अई

कई हाल रियो तमारो

नींद आवा के नी आवा को?”

” कसी नींद? जो हाल थारो

उ को ऊ रियो म्हारो भी

आखी रात पेट गुड़-गुड़ायो

ने  पतो नीं थो कहीं चैन को।”

दम्पत्ति ने कुछ कहा प्राचार्य को

पहले चौंके पर मान गए वह

फिर क्या था? खुद जुट गए दोनों

और मना भी लिया औरों को।

साफ़ किया पूरा का पूरा विद्यालय 

झाड़े जाले, पोत दिया दिवालों को

हुआ प्रशासन हर्षित और चकित

देख कर्मठ हाथों के कमालों को।

देना चाहे जब कुछ रुपए उनको

वह बोली- “नी चइए इक पईसो भी

कदि कोई बेचे अपनी नींद?

के लेवे रोकड़ो चैन खरीदवा को?”

पहुंचे हमारा शत शत नमन

विद्यालय में क्वारेन्टाइन हुई

उस कोरोना-संदिग्ध टोली को

किया परिभाषित जिसने ‘सच्चे मजदूरों’ को।

समय ने हमारे संबंधों को तोड़ दिया है । रिश्ते अब रोते हैं । मनुष्य एकाकी जीवन जीने पर मजबूर है। हमारी अपनी व्यस्तता ने हमें इस कदर अकेला कर दिया है कि हमारे कांधे पर हाथ रखने वाला कोई नहीं। हमें अपनी बात कहने के लिए किसी का इंतज़ार करना पड़ता है, जो हमें उम्र भर नहीं मिलता। ये सारी चिंताएं एक रचनाकार ही कर सकता है । किसलय पंचोली की कविताओं में भी ये चिंताएं ज़ाहिर होती हैं। उनकी कविताओं में यादों के घर है, परिवार हैं , रिश्ते हैं , अपना शहर है और अपना परिवेश भी। बावजूद सभी के कुछ चिन्ता भी हैं। रिश्तों के बीच दूरियां आ गई हैं। दोस्ती के बीच दरारें आ चुकी हैं। अपनत्व के बीच निजता की दीवारें खड़ी हो गई हैं। इन सब को किसलय जी ने अपनी कविता में बखूबी रेखांकित किया है।

कितना मुश्किल है

अपने-अपनों को तौलना

नातों से स्वतंत्रता की उड़ानों को रोकना

या रिश्तों के गुंथे कपड़े पर, कैंची चलाना।

बहुत दुश्वार है होठों को सी रखना,

तब जबकि आंखें डबडबा के

कह चुकी हों सब कुछ।

‘सच’ जब बनाता है अपने अनेक प्रतिबिंब,

बड़ा पीड़ादायक होता है,एक चुनना, वस्तुनिष्ठ।

जितना कुछ चाहो मैंने ज़िंदगी से

पाया है भरपूर समझ नहीं आता अब कभी-कभी

क़तरा-क़तरा क्यों कर छिन रहा है मेरा

संबंधों का सुख?

क्या इसलिए कि

घर की अवधारणा अब वह नहीं रही

जो मैंने जानी भोगी थी बचपन में कभी,

कि तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी

बदलने लगी है संबंधों की परिभाषा

आजकल में अभी-अभी!

कि अब  रक्त-सम्बन्धों से

ज्यादा ताक़तवर बन पड़े हैं,

स्वार्थ, पैसा व स्तर के बंधन!

कि सिर्फ दर्शाना रह गया है

खो चुका है जीवन दर्शन,

कि अब हो गया है संबंधों का भी राजनीतिकरण।

यह प्रभाव हमारे रिश्तों पर ही नहीं पड़ा है बल्कि पूरी जीवनशैली अस्त- व्यस्त हो चुकी है । तर्कों को कुतर्कों से ख़ारिज किया जा रहा है । मान को अपमानित किया जा रहा है । वैचारिकता को ताक पर रखा जा रहा है और बुराई को प्रश्रय दिया जा रहा है । ऐसे माहौल में भी एक रचनाकार ही इन सब बातों पर नज़र रखते हुए कुछ ताक़त दे सकता है । किसलय पंचोली की कविता भी ऐसी ही ताक़त प्रदान करने की कोशिश करती है। वे इस विरोधी वातावरण में भी संभावना की नई किरण ढूंढती हैं। वे आश्वस्त भी करती हैं कि सब कुछ बदलने के बाद भी बहुत कुछ शेष है जो हमारे आज को बेहतर बना कर आने वाले कल को और बेहतरीन कर सकता है। किसलय जी अपनी कविता में इस विश्वास को लेकर आश्वस्त नज़र आती हैं।

अब ‘समय’ समझदार हो गया है,

देखो तुम्हारे साथ खड़ा है।

‘समझ’ सामयिक हो गई है,

तभी तुम्हारे समीप आ चुकी है।

‘सोच’ की तो पूछो ही मत,

तुम्हारे लिए उसने चोला ही बदल लिया है।

‘विचार’ ने तर्कों के तीरों से तर्कश भर लिया है,

उसे पता है तुम्हें कब किस तीर की जरूरत पड़ सकती है।

‘व्यवहार’ ने कदम बढ़ा दिए हैं,

उसे मालूम है तुम्हारी खातिर किस ओर मुड़ना है।

‘निर्णय’ इस अफसोस में डूबा है कि,

क्यों वह अब तक तुम्हारे जेहन में नहीं बसा है।

‘अधिकार’ कर्तव्यनिष्ठ हो चला है,

तुम्हारे स्वागत में उसने

लाल कालीन बिछा दिया है।

सो बेटियों, उठो जागो और नए ‘समय’, ‘समझ’,

‘सोच’, ‘विचार’, ’व्यवहार’, ’निर्णय’

और ‘अधिकार’ के साथ;

नयी समतामूलक दुनिया रचने तक मत रुको।

विकास की दौड़ में मनुष्य ने अपने कई सारी अच्छाइयां ताक पर रख दी हैं। वह अपनी खूबियों को भूल कर जल्दी सीढ़ियां चढ़ने की कोशिश कर रहा है। इस ज़ल्दबाज़ी में वह अपने मनुष्यता को भूलकर उन प्राणियों से भी बदतर होता जा रहा है जो नासमझ है । एक रचनाकार मनुष्य के इस पतन को भी अपनी नज़र से देखने की कोशिश करता है।

हमसे बेहतर हैं, बारिश के दिनों में उग आते

बहुरंगी या बदरंगी कुकुरमुत्ते,या गर्म नंगी चट्टान पर

जड़े जमाते सुगंधित पत्थर फूल,

या सही समय पर नमी पा

फूट उठतीं आम के फेंकी हुई गुठलियाँ,

या टूटे गमलों के ठहरे हुए पानी में

तेज़ी से फैलते मच्छरों के कुनबे,

या उजाड़ बागड़ के काँख में

घोंसले संजोते गोरैया के जोड़े।

नहीं है इनके पास

मानव जितना विकसित मस्तिष्क,

पर ये सब के सब

अपना प्रकृति धर्म निभाना जानते हैं,

संतुलन की नैसर्गिक तुला में

अपने तई कोई दोष नहीं आने देते।

और हम ,मानव ?

कुदरत की सबसे सक्षम प्रजाति?

बतौर वैज्ञानिक होमियो सेपीयंस?

भूल चुके हैं और जीवितों की तरह हम भी

शासक नहीं, हैं प्रकृति के अंश ।

अपनी संवेदनाओं और जीवन के विविध विषयों के साथ किसलय पंचोली जी अपना रचनाकर्म कर रही हैं । मनुष्यता के पक्ष में और अपने परिवेश को बेहतर बनाने के लिए चल रही उनकी कलम सुखद रचनात्मक वातावरण का संदेश देती है।

आशीष दशोत्तर

⚫ आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
बरबवड़ रोड, रतलाम-457001
मो.9827084966

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *