दीपावली पर विशेष : सृजन का संस्कार देती है रोशनी
⚫ मौजूदा हालात में आंकलन किया जाए चारों तरफ अंधेरे ही अंधेरे नज़र आते हैं । क्या कारण है कि चकाचौंध में डूबी हमारी ज़िंदगी, रोशनी से सराबोर हमारे समाज और जगमगाहट में आनंदित होती पूरी दुनिया अंधेरों को खत्म नहीं कर पा रही है? जितनी अधिक रोशनी फैलती जा रही है, उससे कई गुना अधिक अंधियारे बढ़ते जा रहे हैं। ज़हालत के अंधेरे हमारी रोशनी की हर कोशिश पर भारी पड़ रहे हैं। अज्ञान हमारा सबसे बड़ा शत्रु है और अल्प ज्ञान उससे बड़ा शत्रु। यह हमें उन्माद की तरफ अग्रसर करता है। हमें ग़लत कार्य करने पर मजबूर करता है। हमें अंधा बनाता है और यही अंधेरा व्यक्ति से होकर समाज और समाज से होकर पूरे देश में फैल जाता है।⚫
⚫ आशीष दशोत्तर
एक रचनाशील मनुष्य की पहचान ही यही है कि वह निरंतर सृजनरत रहे । हमारी विविध कलाएं, साहित्य और संगीत हमारे इसी सृजन पक्ष को आधार प्रदान करते हैं । सृजन की कोई सीमा नहीं होती। वह निरंतर जारी रहता है । इस प्रक्रिया में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब सृजनशील मनुष्य अपनी रचनाओं को जनमानस के सामने प्रस्तुत कर उन परिस्थितियों से दो-चार होने की कोशिश करता है जो उसके भीतर और बाहर के समाज में घटित हो रही हैं। यहीं से किसी रचना को आधार भी मिलता है और एक आकार मिलने की शुरुआत भी होती है।
दीपावली का पर्व भी हमें ऐसे ही सृजन की सीख देता है । एक दृष्टि से देखा जाए तो यह पर्व हमारी विकृतियों को समाप्त करने का पर्व भी है । मनुष्य के भीतर और उसके आसपास मौजूद विभिन्न विद्रूपताएं, विकृतियां और अनैतिकता बार-बार उसे झकझोरती है , पराजित भी करती है मगर वह मानता नहीं है। यही विकृति उसके जीवन में बाधा बनती है ।रोशनी का पर्व दीपावली हमें ऐसे हर अंधकार से मुक्त होने का संदेश देता है।
हर दौर में दीपावली की प्रसंगिकता रही क्योंकि दीप प्रज्वलित करना हमारी संस्कृति में शामिल है। हमारे जीवन में शामिल है। हमने कभी किसी दीप को बुझाया नहीं , सदैव दीप को जलाया ही है । इसलिए हमारे यहां हर आयोजन से पूर्व एक दीप प्रज्वलित किया जाता है । यह दीपक हमें रोशनी का संस्कार देता है । दीपावली का पर्व यह सोचने का अवसर भी देता है कि सिर्फ़ एक दीप जलाने भर से क्या इस पर्व की सार्थकता पूर्ण हो जाती है? हर दौर की तरह इस वक़्त भी हमारे इर्द-गिर्द इतने अंधेरे बिखरे हुए हैं जिन्हें मिटाने के लिए हमें सैकड़ों दीपों की आवश्यकता है । आज के वक़्त दीपक जलाना प्रदर्शन का विषय अवश्य हो गया है मगर इससे अंधकार और बढ़ रहा है। अनीति बढ़ रही है, अनैतिकता बढ़ रही है। लोगों के भीतर भय बढ़ रहा है । ज़िम्मेदारों की मनमानियां बढ़ रही है ।तानाशाही प्रवृत्ति अपने पैर पसार रही है। मनुष्य की स्वतंत्रता पर निरंतर हमले हो रहे हैं। उसकी आज़ादी को कुछ ख़ास दायरों में क़ैद करने की कोशिश की जा रही है। उसकी स्वच्छंदता को बांधा जा रहा है । ऐसे में दीपावली का पर्व हमें मुक्त होने का संदेश भी देता है। मुक्ति अनैतिकता से, अनीतियों से, ज़ोर जबरदस्ती से, मनमानियों से और ऐसे ही कई अंधेरों से । जब तक इन अंधेरों से मुक्ति नहीं पा ली जाती तब तक दीपावली के पर्व को सार्थक नहीं माना जा सकता।
क्या कारण है कि इस पर्व पर हम अपने घरों की सफाई करते हैं । हम अपने तन की सफाई करते हैं। यहां तक की हम अपने धन की पूजा कर उसे भी स्वच्छ करने की कोशिश करते हैं । रह जाता है तो एक मन ही जिसे हम साफ़ करने की कभी कोशिश नहीं करते । मन में बढ़ते मैल और बाहर हंसकर मिलने की प्रवृत्ति इंसान के दोहरे चरित्र को उजागर करती है । दुर्भाग्यवश यह प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती चली जा रही है। ऐसी प्रवृत्तियों का बढ़ना आसुरी शक्तियों के बढ़ने के समान है।
मनुष्य में अपने चेहरे के आगे इतने चेहरे लगा लिए हैं कि उसका असली चेहरा कहीं खो गया है । कहीं ऐसा दीपक जले जो उसके असली चेहरे को सबके सामने ले आए तो यह अंधेरे पर बड़ी जीत होगी। उसका अपना व्यक्तित्व तो निखरेगा ही , साथ ही अंधेरों के कारण जो विषमताएं उत्पन्न हो रही है वह भी खत्म हो सकेंगी। यह बहुत संकट का समय है । इस समय आपके हाव भाव, आप की शैली , आपका चाल चलन, यहां तक कि आपके निजी जीवन पर भी नज़रें लगी हुई हैं। यह समय अंधेरे के एक ऐसे बढ़ते साम्राज्य का समय है जिसमें रोशनी की किरणों को दबाया जा रहा है, छुपाया जा रहा है ,ज्ञबदनाम किया जा रहा है, तिरस्कृत किया जा रहा है, उपेक्षित किया जा रहा है।
रोशनी की किरण इस अंधेरे के भीतर घुटन महसूस कर रही है। दरअसल अनीति और अन्याय के पैरोकार इस बात से वाकिफ़ ही नहीं है कि रोशनी की एक किरण भी घनघोर अंधेरे को खत्म कर दिया करती है। अंधेरा अपने क्षणिक समय पर इतराए लेकिन उसे एक वक़्त तो रोशनी की एक नन्ही सी किरण से भी मात खानी ही पड़ती है ।रोशनी की यही किरण जो कहीं न कहीं जल रही है। रोशनी की किरण को संबल देने का यह सही समय है। हमारी प्रवृत्ति, हमारे कामकाज ,हमारा चाल चलन,हमारी शैली और हमारे प्रयास इस तरह के होने चाहिए जो सही अर्थों में रोशनी को बिखेर सके।
रोशनी का बिखरना इस वक़्त बहुत आवश्यक है ।रोशनी का बहुत दूर तक जाना भी आवश्यक है। अंधेरों से बाहर निकालने का जतन हमें ही करना होगा । दीपावली पर एक दीप इस संकल्प के साथ भी जलाना होगा कि अंधेरा चाहे जितना मज़बूत हो, रोशनी के आगे वह अधिक टिक नहीं सकता ।यह दीपावली इसी संकल्प, इसी संदेश और इसी एहसास के साथ मनाई जाना चाहिए।
दीप पर्व हम सभी के मन के भीतर के अंधकार को दूर करे, हमें एक उजले पथ की ओर अग्रसर करे। एक ऐसे संसार में हमें ले जाए जहां प्रसन्नतापूर्वक जीने का अवसर उपलब्ध हो। यदि ऐसा हो सके तो दीप पर्व की सार्थकता होगी।
रोशनी हमारा संस्कार है। अंधेरा हमारे लिए चुनौती। हम हर वक्त अंधेरे का प्रतिकार कर रोशनी लाने की जद्दोजहद करते हैं। रोशनी का पर्व भी हमें यही सिखाता है। यह पर्व नहीं होता तो हम रोशनी की अहमियत शायद ही समझ पाते ।
हमारे जीवन में रोशनी बहुत ज़रूरी है फिर भी हम उस रोशनी को सिर्फ एक प्रकाश मान कर छोड़ दिया करते हैं। उस रोशनी के पीछे मौजूद अंधेरे से कभी वाक़िफ नहीं होते। कभी-कभी मन में यह प्रश्न उठता है कि हम जितनी अधिक रोशनी प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं उतने ही अंधेरे की तरफ पहुंचते जाते हैं। अंधेरे का प्रतिकार कर रोशनी लाने की हमारी कोशिश दिखने में तो साकार होती है मगर वास्तविकता में हम उसमें सफल नहीं हो पाते। इसका आंकलन किसी भी वक्त किया जा सकता है। किसी भी कालखंड में किया जा सकता है।
मौजूदा हालात में इसका आंकलन किया जाए चारों तरफ अंधेरे ही अंधेरे नज़र आते हैं । क्या कारण है कि चकाचौंध में डूबी हमारी ज़िंदगी, रोशनी से सराबोर हमारे समाज और जगमगाहट में आनंदित होती पूरी दुनिया अंधेरों को खत्म नहीं कर पा रही है? जितनी अधिक रोशनी फैलती जा रही है उससे कई गुना अधिक अंधियारे बढ़ते जा रहे हैं। ज़हालत के अंधेरे हमारी रोशनी की हर कोशिश पर भारी पड़ रहे हैं। अज्ञान हमारा सबसे बड़ा शत्रु है और अल्प ज्ञान उससे बड़ा शत्रु। यह हमें उन्माद की तरफ अग्रसर करता है। हमें ग़लत कार्य करने पर मजबूर करता है । हमें अंधा बनाता है और यही अंधेरा व्यक्ति से होकर समाज और समाज से होकर पूरे देश में फैल जाता है।
इस अंधेरे को बाहरी दीपक जलाकर खत्म नहीं किया जा सकता। इसे खत्म करने के लिए एक दीपक अंतर्मन में जलाना बहुत ज़रूरी है। और ऐसे दीपक के जलने की फिलहाल कोई उम्मीद नज़र नहीं आती है । हमारे आसपास का वातावरण विचित्र और मानसिकता इतनी कुंठित हो चुकी है कि हम खुद में ही सिमटते जा रहे हैं। रिश्तों को ख़त्म कर रहे हैं । संबंधों में संदेह पैदा कर रहे हैं। परिवार में दूरियां बढ़ रही है। ऐसे में आत्मीयता की बात कैसे की जा सकती है? रोशनी का प्रसार तो तभी होता है जब इंसान का इंसान से प्रेम हो । यहां तो इंसान को इंसान से दूर करने की कोशिश की जा रही है। मतभेद की सीमाओं को पार कर हम मनभेद की सीमाओं में प्रवेश कर चुके हैं। हमारे मन में भेद के संस्कार रोपित किए जा रहे हैं। जहां भेद होगा वहां रोशनी हो ही नहीं सकती। इंसान, इंसान से दूर किया जा रहा है। परंपराओं को पृथक किया जा रहा है। सभ्यता को सीमाओं में बांधा जा रहा है। ऐसे वक्त में बाहरी दीपों की माला से फैला हुआ प्रकाश किसी काम का नहीं रह जाता है।
ऐसे अंधेरे फैलाते वक्त से मुकाबला करना है सबसे बड़ी चुनौती है। रोशनी का प्रसार तभी हो सकता है जब ऐसे अंधेरों पर विजय पाई जाए। हम अनीति, अन्याय और असत्य की बात करते हैं। यह अंधेरा ही इस अनीति, अन्याय और असत्य का सबसे बड़ा उदाहरण है। यही अंधेरा हमारे विचारों को फैलने से रोक रहा है। हमें कुंठित बना रहा है। हमारे दायरों को सीमित कर रहा है और हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करने से रोक रहा है।
हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना बहुत समृद्ध रहा है। हमारे संबंधि इतने आत्मीय रहे हैं कि किसी को किसी से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। एक दीपक को जलाने में कितने हाथों का योगदान होता है इसके कल्पना कोई नहीं कर सकता। दीपक को गढ़ने , उसमें रखे जाने वाले कपास को आकार देने, तेल निकालने, आग प्रज्वलित करने वालों को क्या कहेंगे। उस दीपक की रोशनी को अपने दोनों हाथों से रक्षा करने वाले हाथों को क्या नाम देंगे? जाने कितने लोगों का श्रम मौजूद रहता है इनमें। किसी भी कड़ी को अलग करके एक दीपक को जलाने की कल्पना नहीं की जा सकती । आज के दौर में ऐसा ही कुछ किया जा रहा है। ऐसा कर हम कुछ पलों के लिए उजाला तो कर लेंगे लेकिन वह उजाला हमारी ज़िंदगी को कई तरह के अंधेरों की तरफ धकेल देगा। आने वाली कई पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा । हम रोशनी के इंतज़ाम के साथ इन तमाम अंधेरों पर विचार करें तभी एक सार्थक और सुखद दीप जल सकेगा।
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