व्यंग्य : मांगपत्र की सूनी ‘मांग’
⚫ आशीष दशोत्तर
यह कहने को तीन अक्षरों से मिलकर बना सामान्य शब्द है मगर इसके बिना इन दिनों जीना न जीने के बराबर है। तीन अक्षरों के मेल से बने मांगपत्र यानी ज्ञापन में ज्ञान भी है, परीक्षा भी और नसीहतें भी। आप मानें या न माने मगर ज्ञापन में अद्भुत ज्ञान होता है। कई विद्वान तो इस तुच्छ ज्ञापन से ही ज्ञानी बन जाते हैं। इसे तैयार कर वे अपने आप को बहुत ज्ञानी समझ लिया करते हैं। दरअसल वह ज्ञानी होते भी हैं। अपना सब कुछ उसमें उड़ेल कर वे ज्ञापन इस तरह बनाते हैं कि अंत में उन्हें ख़ुद ही समझ नहीं आता है कि ज्ञापन दिया किसलिए जा रहा है।
वैसे देखा जाए तो ज्ञापन वह परीक्षा है,जिसका परिणाम पहले से पता होता है। ज्ञापन देने वालों को भी मालूम होता है कि कुछ नहीं होना है और लेने वाले को भी। इसीलिए ज्ञापन लेने वाला इसे प्राप्त करने के तुरंत बाद अपनी टीप के साथ ‘यथास्थान’ लिखकर इसे अपने हाथों से मुक्ति प्रदान कर दिया करता है। अमूमन यह ‘यथास्थान’ उसकी टेबल के नीचे, दफ्तर के किसी कोने में या किसी पुरानी शेल्फ के पीछे होता है। यहां पहुंची चीजें कभी लौटकर नहीं आतीं।
हर ज्ञापन एक नसीहत भी देता है। किसी भी ज्ञापन की मांगें कभी पूरी नहीं होती इसलिए हर नए ज्ञापन की भूमिका पुराना ज्ञापन ही तैयार करता है । हर बार दिए जाने वाले ज्ञापन पर सदैव प्रचलित कार्रवाई कभी पूरी नहीं होती। सदा सुहागन की तरह खुशहाल होने की इच्छा रखने वाले ज्ञापन की सूनी ‘ मांग ‘ कभी नहीं भरती।
ज्ञापन के ग़म दोनों तरफ़ बराबर होते हैं। देने वाले को बार-बार ज्ञापन देने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होने का ग़म होता है तो लेने वाले को इस बात का ग़म होता है कि इस ‘ फालतू ‘काम के लिए मैं ही हूं क्या? मलाईदार काम दूसरे करें और ढुलाईदार काम मैं?’
सामान्यतः साहब की नज़रों में निष्क्रिय और निकम्मेपन में माहिर मातहत को ज्ञापन लेने का ज़िम्मा दिया जाता है। न लेना एक,न देना दो, और हंसते हुए ज्ञापन स्वीकारते फोटो खिंचवाने की मजबूरी अलग। अपनी उपेक्षा से आहत और इस ‘अनुत्पादक’ कार्य से नाराज़ वह मातहत कभी किसी ज्ञापन को पढ़ता नहीं है। उसकी मनोदशा को हर दिन ज्ञापन सौंपने वाले वीर समझते हैं, इसीलिए वे ज्ञापन को सौंपने से पहले खुद ही पूरा पढ़ दिया करते हैं। ज्ञापन इस क्षण से पहले और इस पल के बाद में कहीं भी और कभी भी नहीं पढ़ा जाता।
ज्ञापन के दामन से तरह -तरह के प्रसंग भी जुड़े होते हैं। जैसे ज्ञापनवीर सबकुछ जानते हुए भी भारी भीड़ जमा कर बार-बार ज्ञापन देने से बाज़ नहीं आते वैसे ही बुद्धिजीवी किस्म के लोग जीवन भर अपने शहर में एक पुस्तकालय खोलने की मांग का ज्ञापन भी नहीं दे पाते हैं। हर ज्ञापन के अंत में तकरीबन चालीस -पचास लोगों के हस्ताक्षर होते हैं जो ज्ञापन तैयार करने वाला स्वयं ही कर दिया करता है। ज्ञापन की प्रतिलिपि स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक देने का ज़िक्र हस्ताक्षरमाला के बाद किया जाता है। यह वे प्रतिलिपियां होती है जो कभी प्रस्थान ही नहीं कर पातीं। ज्ञापन देते हुए फोटो तत्काल वायरल किया जाता है। इस फोटो में ज्ञापन लेने वाले साहब के मातहत और ज्ञापन तैयार करने वाले ज्ञापनवीर के अतिरिक्त कोई नज़र नहीं आता। अलबत्ता उनका उल्लेख अवश्य इस तरह होता है कि ज्ञापन देते वक़्त हज़ारों की संख्या में लोग मौजूद थे।
⚫ 12/2, कोमल नगर,
बरवड रोड, रतलाम -457001
मो.9827084966