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हम अनिकेतन, हम अनिकेतन, हम तो रमते राम, हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन?

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⚫ पंडित बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ की कविताएं प्रगतिशील जनवादी विचारधारा से दूर नहीं

⚫ नरेंद्र गौड़

’हम अनिकेतन, हम अनिकेतन, हम तो रमते राम, हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन?, अब तक इतनी यों ही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी, कौन बनाए आज घरौंदा, हाथों चुन-चुन, कंकड़-माटी, ठाठ फकीराना है अपना, बाघम्बर सोहे अपने तन, हम अनिकेतन, हम अनिकेतन’
इन यादगार पंक्तियों के रचयिता कवि तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ के  8 दिसम्बर को जन्मदिन पर मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल, नगर पालिका परिषद् शाजापुर सहित विभिन्न संस्थाएं उनकी जन्मस्थली ग्राम भ्याना, शुजालपुर एवं शाजापुर में धूमधाम के साथ विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करती हैं। वह जमीन से जुड़े हुए आम आदमी के कवि थे, उनकी रचनाएं प्रगतिशील और जनवाद की घोषित शर्तों को पूरा नहीं करने के बावजूद इन विचारधाराओं से अधिक दूर नहीं हैं।


शाजापुर में हुई आरंभिक शिक्षा

’नवीनजी’ का जन्म शाजापुर जिले की शुजालपुर तहसील के भ्याना गांव में 8 दिसम्बर 1897 को हुआ था। उनके पिता का नाम पं. जमनादास शर्मा और माता का नाम श्रीमती राधाबाई था। ’नवीनजी’ करीब ग्यारह सालों तक अपनी मां और पिता के साथ नाथव्दारा रहे। इसके बाद 1908 में मां उन्हें शाजापुर ले आई, जहां अंग्रेजी मिडिल स्कूल में भर्ती करा दिया गया। आज यही स्कूल महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय कन्या उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय के नाम से जाना जाता है। श्रीमती राधाबाई वैष्णव संप्रदाय के व्दारिकाधीश मंदिर में पूजापाठ और छोटे-मोटे काम करते हुए गुजारा करने लगी। जाहिर है परिवार को भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता था। 1913 में मिडिल पास करने के बाद उन्होंने उज्जैन के माधव कॉलेज में दाखिला लिया। 1917 में मेट्रिक पास करने के बाद कानपुर आ गए, जहां उन्हें प्रखर पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी का सानिध्य मिला। यहां आगे की पढ़ाई के लिए ’क्राइस्टचर्च कॉलेज’ में भर्ती होने के साथ ही विद्यार्थीजी के अखबार ’प्रताप’ में सहायक का कामकाज देखने लगे। उन्होंने अपनी पहली कहानी ’संतू’ लिखी थी, जो आचार्य महावीरप्रसाद व्दिवेदी की प्रसिध्द पत्रिका ’सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। उज्जैन और कानपुर रहने के दौरान उन्होंने अनेक कविताएं लिखी। 1921 में महात्मा गांधी के आव्हान पर नवीनजी ने बीए व्दितीय वर्ष पास करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़कर भाग लेने लगे। 13 दिसम्बर 1921 को उन्होने अपने सत्याग्रही जीवन की पहली जेल यात्रा की। इसके बाद वह 1923 तक लगातार जेल में रहे। 1925 में नवीनजी ’प्रभा’ के संपादक बनें। 7 जुलाई 1949 को उनका विवाह सरला मालानी नामक सिंधी महिला के साथ हुआ। 1951 में एक बेटी रश्मिरेखा का जन्म हुआ जो इन दिनों शायद कहीं विदेश में रह रही है। 1952 में नवीनजी कानपुर से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए। 1957 में नवीनजी को राज्यसभा का सदस्य चुना गया। 1958 में उन्हें ’पद्मभूषण’ पुरस्कार प्रदान किया गया। 1960 में वह दूसरी बार राज्यसभा सदस्य चुने गए। 29 अप्रैल 1960 को लम्बी बीमारी के बाद नवीनजी का निधन हो गया। नवीनजी की रचनाएं कुंकुभ, रश्मि-रेखा, अपलक, व्कासि, विनोबा स्तवन, उर्मिला, प्राणार्पण और हम विषपायी जनम के प्रकाशित और चर्चित हुई हैं।


आम आदमी में देखा जीवन का सत्य

’नवीन’ जी का रचनाकर्म जीवनभर आदमियत के प्रति समर्पित रहा और आदमी के प्रति उनकी आस्था, विश्वास कभी टूटा नहीं। उन्होंने आदमी में ही अपने जीवन के सत्य को पाया और वह भी एक ऐसे आदमी में जो वक्त की मार से बेजार है। सत्ता के प्रपंच का शिकार होकर निहायत गरीब है। ऐसा आदमी जो भूखा है और वह भी इतना भूखा कि झूठे पत्तल दोने चाटने को मजबूर है और वह भी तब जबकि देश आजाद हो चुका था। ब्रिटिश हुकूमत जाने के बाद सत्ता जिन लोगों के हाथ आई वे भी जनता के जीवन को खुशहाल नहीं बना सके। नवीनजी की कविता का अधिकतर हिस्सा इसी स्वप्नभंग वाली मनोदशा को व्यक्त करता है। यही वजह है कि  नवीनजी का यह आदमी अदीन, अशंक और विषपायी है, लेकिन वह दुनियाभर के अबोल-कुबोल की परवाह नहीं करते हुए पूरे स्वाभिमान के साथ अपनी कीमत पहचानता है।
हम विषपायी जनम के
सहैं अबोल-कुबोल
मानत नेकु न अनख हम
जानत आपुन मोल।


माफी मांगकर जेल से बाहर नहीं आए

नवीनजी की एक दो नहीं बीसियों रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और वे किसी पाठ्य पुस्तक की मोहताज नहीं है। वह राष्ट्रीय भावना के पोषक और हिमायती रहे हैं। उन्होंने आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लिया था और बरसांे जेल की सजा काटी, लेकिन माफी मांगकर जेल से बाहर नहीं आए। भारत पर अंग्रेजों के अन्याय और उत्पीड़न से खिन्न होकर जो रचनाएं उन्होंने लिखी वह आक्रोश, आवेग और क्रोध की भावनाएं लिए हुए हैं।
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल-पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से आए
एक हिलोर उधर से आए
प्राणों के लाले पड़ जाएं
त्राही-त्राही रव नभ में छाए


तिलक के उग्रवाद से प्रभावित

नवीनजी रचनाओं में तिलक का उग्रवाद है। ऐसे में वे महात्मा गांधी के अहिंसा सिध्दांत से कुछ अलग अवश्य जान पड़ते हैं। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर दूसरे महायुध्द का जो दूरगामी प्रभाव पड़ा, उससे भारत बच नहीं सकता था और जो लोग यह दावा करते रहे कि युध्द की विभीषिका का भारतीय जनमानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला, उनकी धारणा झूठी साबित हुई। इस युध्द में जब तक रूस और जर्मनी की संधि थी, यह युध्द साम्राज्यवादी था। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी इस युध्द का विरोध भी करती रही, लेकिन जून 1941 को जैसे ही जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया, तब वह युध्द जनयुध्द में बदल गया। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के तेजी से घूमते घटनाचक्र और उसके मंडराते सायों से भारतीय बुध्दिजीवी और साहित्यकारों की चेतना प्रभावित हुए बिना नहीं रही। उनकी कविताओं में विचारधारात्मक संघर्ष की प्रखरता आना सहज था। देश में सत्ता का हस्तांतरण हुआ और आजादी मिल गई, लेकिन विभाजन का दंश झेलना पड़ा। सांम्प्रदायिक आंदोलन और इस दौरान महात्मा गांधी की हत्या होना। स्वराज्य प्राप्ति के बाद सत्ताधारी नेताओं व्दारा गांधी के सिध्दांतों की दुहाई के बावजूद उनके उनके मूल्यादर्शांे से पिंड छुड़ाने की बेताबी, राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में चोंटी से एड़ी तक फैलता जाता भ्रष्टाचार। मैकाले व्दारा प्रवर्तित शिक्षा पद्धति की निरंतरता और ब्रितानी शासन व्यवस्था की आरज संतान काली अफसरशाही। सुविधाभोगी और अवसरवादी मध्यवर्ग का लगातार अमरबेल की तरह फैलना। इन सभी ने मिलकर भारतीय जनमानस के स्वप्नभंग को पूरा कर दिया।

समाजवाद में आस्था और विश्वास

’नवीन’जी की रचनाओं में एक तरफ समाजवादी आस्था और विश्वास है, वहीं दूसरी तरफ पूंजीवादी विक्रतियों से उपजे निराशा के स्वर भी हैं। गांधीवाद और गांधी के व्यक्तित्व से प्रभावित कवियों की लम्बी श्रंखला है जिसे प्रचलित भाषा में सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा के नाम से जाना जाता है। इस विचारधारा के खाने में माखनलाल चतुर्वेदी के साथ पं. बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ को भी शामिल किया जाना एक प्रकार का सरलीकरण हैं। उल्लेखनीय है कि नवीनजी की कविता में जो विद्रोह के स्वर हैं, वह अकारण नहीं हैं। उनकी कविताओं पर प्रगतिशील मार्क्सवादी विचारधारा का भी गहरा प्रभाव पड़ा। तभी उन्होंने कहा-
मैंने भूखे शिशु को भूखी मां के
स्तन चिंचौड़ते देखा
मैंने भूखे शिशु की भूखी मां को
प्राण तोड़ते देखा।


नवीनजी की ’नरक-विधान’ शीर्षक कविता में  उस आदमी का सजीव और मर्म को तिलमिला देने वाला बिम्ब उभरा है, जिसकी नियति है, नाबदान के कीड़ों की तरह बिलबिलाना और ऐसी कोठरियों में रहना जिसमें कुत्ते भी रहने को तैयार नहींः
जिन कोठरियों  में कुत्ते भी
नहीं चाहते छिन भर रहना
उनमें श्रमिकों के बच्चों को
पड़ता है दिन-दिन भर रहना
आवेशभरी प्रतिक्रियाएं

कवि नवीन ने नारकीय यंत्रणा से छटपटाते आदमी का तटस्थ भाव से यथातथ्य चित्र अंकित करने के बजाए आवेश भरी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। उनकी कविताएं एक बेहद संवेदनशील आदमी की कविता है और खेद है कि आज तक उनकी रचनाओं का ठीक मूल्यांकन नहीं हुआ। उनकी ’झूठे पत्ते’  शीर्षक कविता इन दिनों लिखी जा रही जनवादी मार्क्सवादी कविता के बहुत निकट है। इसमें उन्होंने झूठे पत्ते चाटते मनुष्य की दारूण दैन्य भरी हालत को देखकर उसे ललकारते हुए अपनी शक्ति को संगठित कर अनाचार के अम्बारों में ज्वलित पलीता धर देने के लिए उकसाया है।


ओ भिखमंगे, अरे पराजित
ओ मजलूम, ओ चिर दोहित
तू अखंड भंडार शक्ति का
जाग अरे निद्रा सम्मोहित
प्राणों को तड़पाने वाली
हुंकारों से जल थल भर दे
अनाचार के अम्बारों में  अपना
ज्वलित फलीता भर दे।

नवीनजी की कविताएं अनेक विविधताओं से भरी पड़ी हैं। इनमें से कुछ अतिभावुक हैं तो कई राष्ट्रीय विचारधारा से प्रेरित, कहीं विद्रोेही स्वर है तो कहीं करूणा के स्वर। नवीनजी महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित अवश्य थे, लेकिन एक पत्रकार के नाते उनकी आलोचना करने से भी गुरेज नहीं करते थे। इसी प्रकार वह पं. जवाहरलाल नेहरू के निकट ही नहीं उनके मित्र भी थे, लेकिन उनके  पिछलग्गू नहीं। नवीनजी की कविता का मूल स्वर विषमता

रहित समाज है।
लपक चाटते जूठे पत्ते
जिस दिन देखा मैंने नर को
उस दिन सोचा आग लगा दूं
क्यों न आज मैं दुनिया भर को।

नवीनजी की कविताएं न केवल जन जीवन से जुड़ी हुई हैं, वरन वे प्रगतिशील, जनवादी विचारधारा के भी बहुत निकट हैं। खेदजनक सचाई तो यह कि उनकी रचनाओं का आज तक सही मुल्यांकन नहीं हो पाया।

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