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माँ को समर्पित एक रचना : पूनम का दमकता चांद थी मां

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रेणु अग्रवाल

एक नहीं हज़ार-हज़ार
चेहरों वाली थी मां
अनपढ़ भले ही लेकिन
दीन दुनिया से बेखबर नहीं थी मां

पौ फटते ही हाथ में झाडू लिए
धरती का कोना-कोना
बुहारने निकल पड़ती
हालांकि उसके हाथों ने
घड़ी कभी पहनी नहीं लेकिन
मोहल्ले की चलती-फिरती
अलार्म घड़ी से कम नहीं थी मां

दुबली-पतली छहरी काया लिए
बीसियों काम का बोझा ढ़ोती
पाताल से आकाश तक
नाप देती थी मां

रोज सुबह मजूरी पर जाने के पहले
घर का चूल्हा फूंकना
मोटी-मोटी यादगार रोटियां बनाना
और लहसुन मिर्च की
सिलबट्टे पर चटनी पीसना
कतार में लग राशन लाना
बिजली का बिल भरना
पाई-पाई जोड़ वक्त जरूरत
कितनी काम आती थी मां

रात का बचा खाना खुद खाती
कई बार अपनी भूख
पेट के न जाने किस हिस्से में सुला
गहरी नींद सो जाती मां
चावल के कंकड़ बीनती
न जाने किन बातों को याद कर
आंखों के मोती टपकाया करती मां
जानलेवा बीमारी के बावजूद
अदम्य साहस लिए मरते-पचते
उठ खड़ी होती और
ठिठुरता हुआ बाप बन जाती थी मां
पूनम का दमकता चांद थी मां

मां चक्की थी, बेलन थी
दहकता अंगार थी
रक्त बन मेरी देह में
बहने वाली औरत थी मां

सितारों भरे आकाश के चेहरे पर
पूनम का इक दमकता चांद थी मां।

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