साहित्य सरोकार : भीग जाने को पुराने पत्र हैं आतुर

आशीष दशोत्तर

रात भर से गूंजते हैं बादलों के सुर,
भीग जाने को पुराने पत्र हैं आतुर।

भीगते हाथों ने जिसको खूब सहलाया,
आज वो ज़ेवर कहां से सामने आया ?
बात वो करने लगा है कोई मतवाली ,
झूम कर आई सरों पर भीगती डाली ।
घुंघरुओं सा शोर करता ही रहा झिंगुर।
भीग जाने को पुराने पत्र हैं आतुर।

याद है वो प्यार में लिपटा हुआ छप्पर,
जो महक जाता है अक्सर स्वप्न में आकर।
कुछ लिखे दीवार पर भी शब्द कहते हैं ,
गिर गई दीवार किंतु हम यथावत हैं ।
चैन लेने ही नहीं देती, है ये फुर-फुर ।
भीग जाने को पुराने पत्र हैं आतुर।

आओ थोड़ा पास, दिल की बात भी बोलो ,
याद की सन्दूक के ताले ज़रा खोलो ।
मोड़ रक्खे हैं कभी से , पृष्ठ वो पढ़ लें,
आओ हम-तुम आज फिर दुनिया वही गढ़ लें।
साथ में भीगो हमारे, आज ओ निष्ठुर!
भीग जाने को पुराने पत्र हैं आतुर।

शब्द होठों से जहां मिलकर सजाए थे ,
आंख में आंसू लिए हम मुस्कुराए थे ।
याद करके भूलना, फिर याद आने को ,
मौन रहकर बोलना, सारे ज़माने को ।
बस , वहीं आ जाओ ,सीखे थे जहां ये गुर।
भीग जाने को पुराने पत्र हैं आतुर।

आशीष दशोत्तर

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