व्यंग्य : गणेश खाते चूरमा, चंदा खाते सूरमा

नरेंद्र गौड़

कई बेरोजगारी का कलंक ढोते उच्च शिक्षा प्राप्त युवक भी होते हैं, लेकिन देश की व्यवस्था ने शहर में ऐसा कोई उद्योग खोला नहीं, जहां इन्हें काम मिल सके। इसलिए इनके पास एक ही काम है, उत्सव समिति बनाकर कम से कम इतनी कमाई तो कर ली जाए कि चाय पान की दुकानों के सामने खड़े होने लायक इज्जत बनी रहे।

गणेश चतुर्थी आने को है जिसके चलते शहर और देहातों में उत्सव समितियां गठित हो चुकी हैं। गणेश जी को चूरमा अतिप्रिय है और समितियांे का काम अकेले चूरमा से चलता नहीं, उन्हें खाने का चंदा भी चाहिए। बस इसी खाने कमाने के सांस्कृतिक एवं धार्मिक  अभियान को लेकर समिति के सूरमा बाजारों, गली, मोहल्लों ग्रामीण क्षेत्रों में सरपंच, पटेल, पटलन जैसे हैसियतदारों की तरफ निकल पड़े हैं। चंदा खाने वाला पदार्थ है और जो नहीं खाए वह गजानंद महाराज का परम भक्त कहलाने का अधिकारी हो नहीं सकता!


उत्सव समिति में सात आठ लफंगे टाइप ठलुए सदस्य हुआ करते हैं, बाकी छोरे छपाटे कार्यकर्ता। समिति के अध्यक्ष का हुलिया खास महत्व रखता है, इसके लिए उसके चेहरे पर रौबीली मरोड़दार मूंछों का होना अत्यंत अनिवार्य है। कदकाठी भी दारासिंह या गामा पहलवान टाइप चाहिए। उसके सिर पर तिलक त्रिपुंड होना भी जरूरी है और गले में माला। बाकि सदस्य अपने अध्यक्ष से उन्नीस बीस हों तो चलेगा।


यह उत्सव समिति चंदा उगाही के लिए जब निकलती है, तब लगता है सांडों की बारात चल पड़ी है। ऐसे में भला किस व्यापारी की हिम्मत है जो चंदा देने से मना कर दे? चंदा मांगना और उसमें से थोड़ा- सा हिस्सा गणपति महाराज प्रतिमा की खरीद, साज सज्जा भोग प्रसादी और भक्तिभाव के भजन बजाने में खर्च किया जाता है। शेष राशि  समिति का सेवा शुल्क है जो उसका अलिखित संवैधानिक अधिकार है। यह एक प्रकार की खुले आम डकैत कर्म है, इसे लेकर निंदा आलोचना नहीं हो सकती। होना बस यही है चाहिए कि व्यापारी एक पेटी में अपना हाथ डाले और बिना चूं चपड़ किए रसीद में जो राशि पहले से लिख दी है, नमस्कार के साथ देता बने! वैसे आनलाइन चंदा जमा करने की सुविधा भी कुछ समितियों ने चालू कर दी है। इसमें नकद देने की जरूरत नहीं, लेकिन रसीद पर जो राशि इंद्राज है, उससे एक भी पाई कम नहीं होना चाहिए।


व्यापारी का धंधा चले न चले इससे समिति को कोई सरोकार नहीं है। वे दिन अतीत का हिस्सा हो गए जब गणेशजी की झांकियों में सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे और शहर गांव की प्रतिभाओं को अपनी कला प्रदर्शित का मौका मिलता था। अब तो भजनों के नाम पर शोरभरे गाने सुबह से देर रात तक ऐसे बजाए जाते हैं कि मन करता है दूर भाग चलो! वैसे देखा जाए तो शहरों के व्यापारियों का सिरदर्द अकेली गणेश उत्सव समिति की वजह से नहीं है। उन्हें दुर्गा उत्सव, होली, दीपावली जैसे पर्वों के नाम पर बनी दस बीस अन्य और भी समितियों को झेलना पड़ता है। एक त्योहार गया कि दूसरे त्योहार को लेकर बनी उत्सव समिति व्यापारियों के सिर पर सवार हो जाती है।

शहर में रोजगार धंधा है नहीं, जिसके चलते अनेक होनहार नौजवान पान की दुकानों, चाय नाश्ते के ठेलों  और खाली पटियों पर नजर आ जाते हैं। मौका देखकर इनका स्वरूप बदल जाता है। चुनाव के दिनों यही लोग भाईजी दादाजी आदि पार्टी प्रत्याशी को लोकसभा और विधानसभा में पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करते हैं और प्रत्याशी चुनाव जीतने के बाद इन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंक दिया करता है। तब इनकी हैसियत ’अबे छगन्या’ ’अबे मगन्या’ बनकर रह जाती है। ऐसा नहीं कि समिति के अध्यक्ष और संयोजक आदि अनपढ़ होते हैं, इनमें से कई बेरोजगारी का कलंक ढोते उच्च शिक्षा प्राप्त युवक भी होते हैं, लेकिन देश की व्यवस्था ने शहर में ऐसा कोई उद्योग खोला नहीं, जहां इन्हें काम मिल सके। इसलिए इनके पास एक ही काम है, उत्सव समिति बनाकर कम से कम इतनी कमाई तो कर ली जाए कि चाय पान की दुकानों के सामने खड़े होने लायक इज्जत बनी रहे।

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