शख्सियत : स्मृति का हिस्सा बन जाती है श्रेष्ठ कविता : डॉ. गीता चौहान

नरेंद्र गौड़

’प्रत्येक दौर की कविता एक बार ठहरकर अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार करती है और फिर अपना रंग रूप तथा काव्य तेवर समयानुकूल परिवर्तित कर आगे बढ़ती है। अंग्रेजी कविता में तो हर दशक के बाद कविता की जरूरत पर गंभीरता से विचार हुआ है। हिंदी में भी विगत दो तीन दशक की कविता में कवियों ने कविता पर सर्वाधिक लिखा है। साथ ही श्रेष्ठ कविता को लेकर यही निष्कर्ष निकाला गया कि हमारी स्मृति का हिस्सा बन जाए वही श्रेष्ठ कविता कही जा सकती है।’


यह बात हिंदी की जानी मानी कवयित्री डॉ. गीता चौहान ने कही। इनका मानना है कि ’जब भी कला सृजन में जन-जीवन को नकारा गया है, कला कमजोर हुई है। श्रेष्ठ कला सृजन जन जीवन से जुड़कर ही सम्पन्न हो सका है। कला की तरह कविता में भी कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर परिवर्तन होता रहा है। कला में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता। उसके लिए पोषक वातावरण होना चाहिए। महान कवियों की कविता सदैव समकालीन परिस्थिति का दर्पण व विचारों का सार-संग्रह रही है।’


डॉ. गीता चौहान विगत दो दशकों से अपनी कविताओं सहित अन्य रचनात्मक विधाओं के जरिए पहचान बना रही हैं। इनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। डॉ. गीता इन दिनों भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान बरेली(उप्र) में प्रधान वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हैं।
गीता जी की अधिकतर कविताएं छोटी होती हैं, लेकिन अर्थ की दृष्टि से अत्यंत सम्पन्न इन कविताओं की आवाज बहुत दूर तक जाती है। भाषा की सरलता और पारदर्शिता इनकी कविताओं की खूबी है। इनका लेखन इसलिए भी बेहतर है, क्योंकि उनके विषय बहुआयामी हैं। उनका कैनवास बहुत व्यापक है। जहां बात पारिवारिक तथा आत्मीय संबंधों की होती वहां इनकी रचनात्मक क्षमता और संवेदनशीलता अपने चरम पर होती है। खासकर जिंदगी को लेकर इन्होंने अनेक रंगों की जीवंत कविताएं लिखी हैं। प्रस्तुत हैं गीता जी की चुनिंदा कविताएं-

ए जिंदगी (एक)

ढूंढ़ते तुझको फकत्
दर-ब-दर फिरते यहां
खोए, मिले, हुए फिर गुम!
हैं अजब तेरे निशां
इक तरफा तेरे इश्क में
हर शख्श दीवाना
बेफिक्र अल्हड जिंदगी
अंततः तू बेवफा।

⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫

ए जिंदगी (दो)

बस तभी
तुझसे अपनी पटती नहीं है
तू भी जिद्दी बहुत है
हम भी कम जिद्दी नहीं हैं

⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫

पर्वतों की छॉह


पर्वतों की छॉह में
चांदनी के गांव में
खो गया है मन यहीं
पड़ी हैं बेड़ियां पांव में!!

⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫

अरमानों को पंख

रंग बिरंगे तितली जैसे
पंख लगा दो
अरमानों को
आंसू झरते हैं
झरने दो!
गले लगाओ मुस्कानों को
सर्दी, गर्मी, आंधी, तूफां
या फूल, पर्वत नदियां
क्या रोक कभी पाया
अडियल जिद्दी परवानों को?

⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫

चल दिए

देखिए! कैसे वो सब
रस्में निभाकर चल दिए!
आए हमको खिलखिलाया
फिर रूलाकर चल दिए
स्याह चूनर पर निशां की
चांद से चमके रहे
फिर अचानक
भोर के हाथों में
थमाकर चल दिए
महके हुए हैं गुल से हम
उनके वजूद से
एक वो अनजान जो
सब कुछ भुलाकर
चल दिए
घर की हर दीवार-ओ दर
रूबरू उनके रहे
रो पड़े इनसे वो जब
नजरें फिराकर
चल दिए
हमने पूछा-
क्या खता है?
मौन वो बैठे रहे
माफी हमने मांग ली
तो मुस्कुराकर चल दिए
इस कदर है आरजू
उनको पाने की हमें
देखें जो उनके निशां
हम उठाकर चल दिए।

⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫

आ चलें! गांव की ओर

बोझ लगे शहरी जीवन
आ चलें गांव की ओर
झुलसे दोनों तन और मन
आ चलें छॉव की ओर
बचपन के दिन
रात खिलौने यादें
चोरी-चोरी खींच रहे
मेरे पांव की डोर
आ चलें गांव की ओर।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *