समसामयिक गीत : कभी छाॅंव या धूप

“बदल रहा है पल-पल में,
ये मौसम अपना रूप,
कभी छाॅंव के साये मिलते,
कभी मिली है धूप।”

आशीष दशोत्तर

बदल रहा है पल-पल में,
ये मौसम अपना रूप,
कभी छाॅंव के साये मिलते,
कभी मिली है धूप।

जीवन का वह ताप कहाॅं है,
अब वो मेल मिलाप कहाॅं है।
फूलों से रिश्ते खोये हैं,
हमने शूल कई बोये हैं।
यहाॅं-वहाॅं दिखते हैं अब तो
सर्दी के स्तूप।
कभी छाॅंव के साये मिलते,
कभी मिली है धूप।

जंगल वन हम खा बैठे हैं,
किस जंगल में आ बैठे हैं?
मिलता वो सामीप्य नहीं है,
कहने को सब यहीं कहीं हैं।
मेंढ़क बनकर बना लिया है,
ख़ुद अपना ही कूप।
कभी छाॅंव के साये मिलते,
कभी मिली है धूप।

संवादों से दूर भागते,
संदेशों में सदा जागते।
बातों में दुनिया भी कम है,
घर में बारम्बार सितम हैं।
अपनी नज़रों में बन बैठे
कैसे यहां अनूप।
कभी छाॅंव के साये मिलते,
कभी मिली है धूप।

आशीष दशोत्तर

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