साहित्य सरोकार : आ तुझे संवार दूँ
⚫ बुत तू बुत मैं
बस एहसासों की
छुअन बाकी है
माटी के इस तन में
रुहों का मिलन
बाकी है
आ तुझे जरा
संवार दूं
छूकर तेरी अलकों
के खम निकाल दूं।⚫
⚫ डॉ. नीलम कौर
बुत तू बुत मैं
बस एहसासों की
छुअन बाकी है
माटी के इस तन में
रुहों का मिलन
बाकी है
आ तुझे जरा
संवार दूं
छूकर तेरी अलकों
के खम निकाल दूं।
उलझनों में उलझ
यूं बुत नहीं
बन जाना
भीतर ही भीतर
सर्द गम से
जम नहीं जाना
अनमोल है साँसों के
मोती
बनाकर बर्फ
धम नहीं जाना
आ तुझे देकर
अँगूलियों की नरम
गरमाहट
फिर धड़कनों का
सितार झंकृत कर दूँ
आ तुझे संवार दूँ।
खामोशियों से
गम नहीं घुलते
लब सी लेने से
विचार नहीं थमते
मूँद लो लाख आँखें
गम के गुबार नहीं
रुकते
आ तेरी कोमल
भावनाओं को फिर
उभार दूँ
खामोश विचारों को
सँवाद दूँ।
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वो नहीं चाहते
अभी भी नहीं समझे
तो खाक समझदार हो
वो नहीं चाहते आपके
पास भी दीमाग हो,
लोग आपसे जोड़े
रिश्ता और उनकी
चाहत का गिरा ग्राफ हो।
तभी तपाक हाथ झटक
देते हैं,
आपकी काबलियत पर
मिट्टी फेर देते हैं
कद बढ़ता देख आपका
जमीं पैरों तले से खींच
लेते हैं।
वे नहीं चाहते कोई उनकी गुलामी से
मुक्त स्वतंत्र अपना
आकाश बनाए,
आपके ख्वाबों पर
मोहर अपनी लगा
आपको गुमनामी की
नींद सुला देते हैं।
तुम नहीं समझ पाओगे
कान के कच्चे और
दीमाग से पैदल हो न
बस जो आपके कान में
बज रहा वही सुनते हो
सुनो भी क्यों न?कुछ
और सुनाया जाता नहीं
नीतियाँ लाख किसी की
अच्छी हो,आँकड़ो में
बस तुम्हें उलझाया जाता है।
उनको चाहिए बस हवा में उछलता उनका नाम
वो हर चेहरे पर देखना
चाहतें हैं चस्पा अपने चेहरे का मुखौटा,हर सूं
सुनना चाहते हैं गूँजती
अपनी आवाज और
आप समझते हैं वो महान
हैं।
डॉ. नीलम कौर