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शख्सियत : हिमाचल प्रदेश का अभिन्न अंग लोक संस्कृति, पहाड़ी बोलियों में छिपी अनमोल विरासत

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आधुनिक हिंदी कविता की सशक्त हस्ताक्षर रोमिता शर्मा का कहना

नरेंद्र गौड़

’हिमाचल प्रदेश के लोकजीवन में अनेक प्रकार की खासियत है। यहां का लोक साहित्य बहुत समृध्द है, लोक गीत, नृत्य, और वेशभूषा जैसे अनेक तत्व लोकजीवन के बहुत निकट हैं। यहां के लोक गीतों की परंपरा अनूठी है, मसलन कुंजड़ी, मलहार, घरेई, सुकरात, तिल चोली, चुराही, झीरी भौंरू, हार वार, साका, पडुआ, मोहना, वामणा, रा छोरू, लोका, गंगी भ्यांगड़ा आदि के जरिए इस प्रदेश को अधिक समझा जा सकता है। लोक गीत हिमाचल प्रदेश का प्राण तत्व हैं। अगर लोक संस्कृति को हटा दिया जाए तो यह प्रदेश मुरझा जाएगा, कुछ भी शेष नहीं बचेगा।’

रोमिला शर्मा


यह बात आधुनिक हिंदी कविता की सशक्त हस्ताक्षर रोमिता शर्मा ने कही। इनका कहना था कि हिमाचल प्रदेश में भाषा, कला, संस्कृति, संग्रहालय तथा अभिलेखागार को बहुत सुनियोजित ढ़ंग से समृध्द किया गया है।  सांस्कृतिक संरक्षण के लिए भाषा एवं संस्कृति निदेशालय की स्थापना की गई है। यहां के प्रत्येक क्षेत्र में देव मेलों का आयोजन लोगों के जीवन का अटूट हिस्सा है। हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी बोलियों में छिपी अनमोल सांस्कृतिक विरासत के उत्थान, संरक्षण और संवर्धन की दिशा में बहुत काम हुआ है।

समृध्द हस्तशिल्प

एक सवाल के जवाब में रोमिताजी ने बताया कि हिमाचल प्रदेश में रहने वाले प्रमुख समुदायों में ब्राम्हण, राजपूत, कन्नट, राशी और कोली प्रमुख हैं। इनके अलावा यहां बहुत- सी जनजातियां भी निवास करती हैं, जिनमें गद्दी, किन्नर, गुज्जर, पनवाल और लाहौल शामिल हैं। यह प्रदेश अपने हस्तशिल्प के लिए भी खासतौर पर जाना जाता है। यहां के कॉलीन, शॉल, पेंटिंग, मेटलवेयर बनाना बेचना लोगों की जीविका का प्रमुख जरिया है। इसके अलावा पर्यटन से भी आय होती है।

अद्भत प्राकृतिक सौंदर्य

रोमिताजी ने बताया कि हिमाचल प्रदेश को देव भूमि भी कहा गया है। यहां अनेक धार्मिक स्थल हैं। यह प्रदेश पश्चिमी हिमालय में स्थित है और यहां की प्राकृतिक सुंदरता के चर्चे विश्व भर में होते हैं। यहां के दर्शनीय स्थलों में कुल्लू, मनाली, शिमला, स्पीती वैली, सोलंग वैली, चम्बा, कसोल, पालमपुर, खुफरी, डलहौजी, धर्मशाला, कांगडा, नारकंडा, किन्नौर, शक्तिपीठ चामुंडा, खाज्जिअर, चिटकुल और मंडी प्रमुख हैं। कुल्लू का दशहरा भारत में प्रसिध्द है जिसे देखने विदेश से लोग आते हैं।

विदेशों में भी जाता है यहां का सेब

रोमिताजी ने बताया कि हिमाचल प्रदेश में सेब, नाशपाती, आडू, खुबानी, आम, अमरूद, स्ट्रॉबेरी आदि बहुतायत में पैदा होते हैं। इनमें सेब प्रमुख फसल है जो पूरे हिमाचल के अनेक इलाकों में पैदा होता है। यहां गेहूं, मक्का, चावल, जौ भी बड़े पैमाने पर होता है। एक सवाल के जवाब में रोमिताजी ने कहा कि हिमाचल प्रदेश की संस्कृति का उनकी कविताओं पर गहरा प्रभाव है।

देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित

हिमाचल प्रदेश के करसोग जनपद में जन्मी रोमिताजी हिंदी साहित्य में एमए कर चुकी हैं। सामयिक विषयों पर केंद्रित इनके अनेक आलेख देश विदेश की  पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। डिजिटल मीडिया से भी कई कहानियों का प्रसारण हो चुका है। इन्होंने लोक साहित्य को लेकर भी कई लेख लिखे हैं जो देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं छपे हैं। इन्हें लोक साहित्य तथा अनुवाद में गहरी दिलचस्पी है।

रोमिता की कविताओं में महाकाव्य की संभावना

इनकी कविताएं महाकाव्य की संभावना लिए हुए होती हैं जिनका विशाल फलक पाठकों को बांधे रखने में समर्थ है, साथ ही उसमें भावों तथा बिंबों की विशालता चमत्कृत भी करती है। कविताओं में हिमाचल प्रदेश का लोकजीवन, खेतीहर जनता का जीवन संघर्ष, वहां की संस्कृति और सौंदर्य को अनेकानेक रूपों तथा आयामों के साथ देखा जा सकता है। इनकी कविताएं हिमाचल प्रदेश की जड़, जंगल और जनजीवन से जुड़ी हुई हैं। इन्होंने अनेक कविताएं पहाड़ी महिलाओं के दैनिक जीवन के संघर्ष को लेकर भी लिखी हैं। अनेक विधाओं के तत्व इनकी कविताओं को अधिक ऊर्जस्व और समृध्द बनाते हैं। कविता अमूर्तन और एकरसता से बचकर चलती है। इनका मानना है कि कविता के लिए साहित्य की किसी भी विधा से तत्व ग्रहण करना निषिध्द नहीं, किंतु ऐसा कविता की शर्तों पर ही संभव है, अन्यथा कविता अपनी स्वायत्त पहचान खो देती है। इनकी कविता की भाषा स्पष्ट, सरल और पारदर्शी है। निश्चय ही इनकी कविताओं का मूल्यांकन होना चाहिए।


चुनिंदा कविताएं


रोपनी

क्यार की मेड़ पर धान
रोपती औरतें
भोली- भाली औरतें!
केवल धान ही नहीं रोपती
वे रोपती हैं, साल भर का
भोजन, अतिथि की खातिरदारी
घर आए साधु- संत की भिक्षा
कुछ कमाई और बच्चों का खर्च
बचाती हैं एक अंश!
हैरत होती है –
उन औरतों ने कभी नहीं देखी
किसी कृषि विश्वविद्यालय की
दहलीज, बावजूद इसके
फिर भी जानती हैं
क्यार में धान उगाने का सलीका!
कितनी दूर रोपने होते हैं
धान के पंदे-
एक अच्छी फसल के लिए!
उन्होंने कभी नहीं पढ़ा कृषि शास्त्र
नहीं  जानती रबी और
खरीफ  का तंत्र!
कि अमुक- अमुक खाद
फसलों लिए जरूरी है
फिर भी सिद्धहस्त हैं वे
मौसम को गच्चा देकर
पा ही लेती हैं अच्छी पैदावार
न जाने माटी में कितने ही
अपने अवसादों को भी
रोप जाती हैं धान के साथ
फिर भी भरी बरसात में
रोपनी करती वे
कीचड़ में सने हुए तन से
मुक्त कंठ होकर गाया
करती हैं लोकगीत
जो भर देता है वातावरण मंे
एक सकारात्मक ऊर्जा
जिसमें  छिपा होता है उनका
जीवन राग देता है संदेश कि
भरी बरसात के बाद अच्छी सर्द
हवाओं वाली शाम भी होती है
तब कुटाई के बाद धान आता है
घरों में लेकर चावलों का रूप

उसकी भीनी-भीनी खुशबू
भर देती है कोठार और
औरतों की मुस्कान
फैलती है घर आंगन में
निश्चिंत हो जाती हैं भरा रहेगा
वर्ष भर कटोरा
परिवार में खाने के लिए।

खेती की गंध

जो मैं खेत में बीजती हूं
वह सब कुछ उग आता है
मेरे श्रम की ताल पर
एक-एक दाना बीज का
गेंहु, मक्का, दाल, बथुआ
कुछ तरकारियां भी
कोदरा शायद जल्दी उगता है
एक अच्छी खासी
फसल देता है वह
ठीक वैसे ही मेरे मन में
उग आते  हैं कुछ भाव जिन्हें
कोई  देख  ही नहीं पाता
खेती उगाने का भीमकाय
संघर्ष और मेरे मन भाव
लगभग एक से हैं
हर मौसम की शर्त पर
फसल तय है
अपने -अपने मौसम बनाते  है
अपनी पंसदीदा फसलें
बदलते हैं मौसम, फसलें भी
बदलतीं हैं इस मौसमी खेती में
मौसम का मन से
कोई रिश्ता नहीं!
मन उगाता है, वे भाव
जो बाजारू नहीं!
फसल तो खेत में उगने से
पहले ही बाजार पहुंच जाती है
मन में उगी खेती चिरंतन
खून में दौड़ती है
देह के हर अंग से गुजर कर
मन मे घर बना लेती है
खेती फसलों में बदल कर
अपना ’भाव’ तय कर जाती
एक गंतव्य पर पहुंच ही
सांस लेती है
मन में उगी फसल
गंतव्य तक नहीं
पहुंच पा रही है-
हृदय पर भावों की छैणी से
सपनों की छत गढ़कर
कोई फसल उगती ही नहीं
नहीं मिलता है कोई भाव
मन की खेती ने
अपना भाव बताकर
मुझे खेतीहर मजदूर बना डाला है।

टूटी सड़क बनती पगडंडी

सड़क मात्र आस्था है
बिखरे हुए विश्वास पर
मौसम की मार में
आसमान की कड़क
तिलमिलाती  हुई
बारिश  की झड़ी
तोड़कर रखती है घर
पंहुचाने के
सब के सब विश्वास!
सड़क कोई भी हो कहीं भी हो
पहाड़  को किसी ना
किसी बहाने
ले आती है अपने आंचल में
एक मुस्कान भरी चुप्पी में
देखती है यातायात के रूके क्षण
दूध, तरकारियों
गैस सिलेंडर के दाम
नहीं रूकती कोई भी सड़क
पहाड़ बनने से, सड़क का
दरकाव रोकता है गांव की
दोघरी तक पंहुचने से
ये टूटी  हुई व्यवस्था के
साथ बहती पंगड़डियों के
खिलाफ रहती  सड़क
पगडंडियां  विश्वासपात्र  हैं
टूटी सड़कों के बीच  में,
अपने गांव- घर तक 
पहुंचाने की लोकतंत्र के
लोकलाज में है एक प्रतिभूति
एक विश्वास है ,वादा है
दादा, दादी, पिता ने
सदैव ढ़ोयी हैं
बिना सड़क की प्रतीक्षा किए
ये सब पगड़डियां
उनका ये संदेश जो
कभी स्वीकार ना था
कि सड़क पर विश्वास न करना
कभी गले नहीं उतरा
अपने पांव के छालों की
परवाह किए बिना
आज उन पगडंडियों पर
उतर रही हूं धीरे-धीरे
जीवन का बोझ लिए
कदम दर कदम गांव-
पहुंचती जा रही हूं।

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