और कृष्ण की मूर्ति ने धनुषबाण धारण कर लिया तुलसीदास जी का यह आग्रह सुनते ही
प्रसंग: तुलसीदास जयंती – डॉ. अर्चना भट्ट
तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे।राम के अनेक रूप हैं किन्तु तुलसीदास को राम का लोक रक्षक रूप सबसे प्रिय था। एक बार तुलसीदास कृष्ण की अत्यंत सुन्दर प्रतिमा के सामने थे। सारी श्रद्धा के बावजूद उन्होंने उस प्रतिमा के आगे सिर नहीं झुकाया।कृष्ण के सौन्दर्य का बखान करते हुए तुलसीदास ने कहा कि हे नाथ मोर, मुकुट और पीताम्बर आदि में तुम बहुत सुशोभित हो रहे हो, लेकिन तुलसीदास का सिर तभी झुकेगा, जब तुम्हारे हाथ में धनुषबाण होगा। कहते हैं तुलसीदास का यह आग्रह सुनते ही कृष्ण की मूर्ति ने धनुषबाण धारण कर लिया और तब जाकर तुलसीदास ने मूर्ति के समक्ष सिर झुकाया। तुलसीदास को अपने मर्यादापुरुषोत्तम का लोकरक्षक रूप इतना प्रिय क्यों था? क्योंकि मानव समाज को अपनी क्षुद्रताओं से पीछे ढकेलने वालों को लोक रक्षक राम ही सबक सिखा सकते थे। तुलसीदास कोई जंगल में रहकर एकांत साधना करने वाले तपस्वी नहीं वरन समाज में रहकर सामाजिक विकृतियों के खिलाफ सतत संघर्ष करने वाले कवि थे।कहने की जरूरत नहीं कि जंगल में जाकर तप करना आसान है, बनिस्पत सामाज में रहते हुए सामाजिक विकृतियों से दो -दो हाथ करने के। जिस किसी साधु संत या महापुरुष ने यह किया उसे समाज के रूढिवादी तत्वों से गंभीर चुनौती मिली। स्वयं तुलसी का पाला जीवन भर ऐसे तत्वों से पड़ता रहा।
सबसे ज्यादा काशी में ही हुए आक्रमण
तुलसीदास पर संगठित हमले हुए।क्षुद्र आरोप लगाए गए। उन्हें हर तरह से उत्पीड़ित किया गया। रामचरितमानस सहित तुलसीदास का समूचा लेखन सामाजिक धार्मिक जकडताओं के विरुद्ध सशक्त प्रतिपाठ था। इसलिए धर्म का धन्धा करने वाले पाखण्डियों को तुलसीदास फूटी आंख नहीं सुहाते थे। वे लगातार तुलसीदास पर आक्रमण करते रहे। तुलसीदास पर यह आक्रमण सबसे ज्यादा काशी में ही हुए।तुलसीदास की जीवनी हमें बताती है कि वे बार- बार काशी आते रहे ।काशी की रूढिवादी ताकतें बार -बार उन्हें अपमानित और प्रताड़ित करती रहीं। इतना अपमान और प्रताड़ना सहकर बार-बार काशी लौटने के पीछे क्या वजहें रही होंगी, इसे समझना तुलसीदास को समझने में सहायक होगा। काशी हमारी धार्मिक सांस्कृतिक सत्ता की राजधानी है। वहां अगर धर्म को धन्धा बना दिया गया तो पूरे समाज को क्षरित होने से रोका नहीं जा सकता। तुलसीदास ने इस तथ्य को गहराई से समझा और यहां की धार्मिक सत्ता से टकराते रहे और उसे मानवीय बनाने के लिए यत्नशील रहे। दिक्कत यह हुई कि हमने समाज सुधार का सारा ठेका कबीरदास को दे दिया और इस हद तक दे दिया कि उनको कवि मानने के लिए भी तैयार नहीं हुए। इसके उलट तुलसीदास ने सुधार की जो कोशिशें कीं उन्हें नजरन्दाज किया गया।
हिन्दू धर्म के घर की भीतर से पर्याप्त सफाई की
हमारा आलोचनात्मक विवेक प्राय: उलाड (असंतुलित) हो जाता है। एक पहलू पर जोर इतना रहता है कि दूसरा पहलू छूट ही जाता है। हमने इस तथ्य पर कभी ध्यान ही नहीं दिया कि तुलसीदास ने हिन्दू धर्म के घर की भीतर से पर्याप्त सफाई की है। गीता प्रेस से प्रकाशित रामचरित मानस में तुलसीदास की संक्षिप्त जीवनी दी गयी है, जिसमें बताया गया है कि आखिर में वे जब अस्सीघाट पर रहने लगे तब किसी रात कलियुग ने मूर्तरूप धारण करके तुलसीदास को त्रस्त करना शुरू कर दिया। तुलसीदास को त्रास देने वाला कलिकाल कौन था, यह पता लगाना मुश्किल नहीं है। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में कलिकाल की प्रवृत्तियों का विस्तार से विवरण दिया है।रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में ही नहीं बल्कि कवितावली और विनयपत्रिका में भी कलिकाल के जीवंत रूप से हमारी भेंट होती है।यह सही है कि तुलसीदास ने वर्णव्यवस्था की साफ शब्दों में हिमायत की है। बेशक आज वर्णव्यवस्था के बारे में तुलसीदास के विचारों को नहीं माना जा सकता लेकिन दैनन्दिन जीवन की मानवीय क्षुद्रताओं को जिस बारीकी से तुलसीदास ने प्रत्यक्ष किया है,वह बेजोड़ है। मानव जीवन व्यवहार की क्षुद्रताएं ही कलिकाल हैं।
कलिकाल के प्रमुख लक्षण
तुलसीदास ने कलिकाल के जो प्रमुख लक्षण बताये हैं वे हैं -कथनी और करनी के बीच भारी भेद यानी पाखण्ड। धर्म को व्यवसाय बनाना। लोगों का सत्पंथ को छोडकर कुपंथ पर चलना ,सद्ग्रंथों का लुप्त होना, दंभ की पराकाष्ठा। श्रुति बेचने वाले विप्रों यानी धर्म का व्यवसाय करने से तुलसीदास को घोर चिढ़ है। यह चिढ़ इतनी घनीभूत है कि जहां भी अवसर मिलता है, वे इनकी खबर लेते हैं।
तो वही है सच्चा दुष्ट
अयोध्याकांड में राम वनगमन के बाद जब भरत अयोध्या आते हैं और कौशल्या के सामने अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए जो तर्क देते हैं, अपने को जिन पापों का भागी बताते हैं वे कलिकाल के बहाने हमारे समकाल का चरित्र लक्षण जान पडते हैं। जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं तथा जो वेदों की निंदा करने वाले और विश्वभर के विरोधी हैं,जो लोभी, लम्पट और लालचियों का आचरण करने वाले हैं, जो पराए धन और पराई स्त्री की ताक में रहते हैं, हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊँ। जिनका सत्संग में प्रेम नहीं है, जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं, जो मनुष्य शरीर पाकर श्री हरि का भजन नहीं करते, जिनको हरि-हर (भगवान विष्णु और शंकरजी) का सुयश नहीं सुहाता,जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत को छलते हैं, हे माता! यदि मैं इस भेद को जानता भी होऊँ तो शंकरजी मुझे उन लोगों की गति दें। तुलसीदास ऐसे लोगों से इस तरह आतंकित हैं कि राम चरित मानस के आरंभ में ही ऐसे खलों की वन्दना करते हैं।
तुलसी दास खल और खलुता की सटीक परिभाषा करते हैं-जो बिना किसी हानि लाभ के ही किसी के पीछे पड़ जाते हैं, दूसरे के हित की हानि ही जिनका लाभ है,जो दूसरे के उजड़ जाने से प्रसन्न होते हैं और बसने से दुख में पड़ जाते हैं, दूसरे के हित रूपी घी में जिनका मन मक्खी की तरह पड़ जाता है और अपनी जान गंवाकर भी दूसरे का अहित करने को तत्पर रहता है, वही सच्चा दुष्ट है। पर्याप्त वंदना के बाद भी तुलसीदास ऐसे दुष्टों से आशंकित रहते हैं। अस्सी पर तुलसीदास को त्रस्त करने वाले मूर्तिमान कलिकाल जरूर ऐसे खल ही रहे होंगे। ऐसे खल तुलसीदास के समय में भी थे और हमारे अपने समय में भी हैं ।तुलसीदास उन्हें विश्वविरोधी कहते हैं। ध्यान से देखें तो तुलसीदास जिसे खलुता कहते हैं, वह अन्त:करण के संकुचित होते चले जाने की पराकाष्ठा है। तुलसीदास को अन्त:करण का यह संकोच नहीं भाता ,इसीलिए तुलसीदास अपने साहित्य में अन्तकरण के विस्तार की कोशिश करते हैं। इसके लिए तुलसीदास विवेक को जाग्रत करने की बात करते हैं।
क्या हम अपने को तुलसीदास की कसौटी पर कसने को हैं तैयार
‘कवित विवेक एक नहिं मोरे’ कहने वाले तुलसीदास दरअसल विवेक के कवि। वे जब कहते हैं -‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ तब वे विवेक की ही बात करते हैं।वे विधाता से बार बार विमल विवेक की मांग करते हैं।इस विमल विवेक के आधार पर ही तुलसी के राम धर्म की स्पष्ट परिभाषा देते हैं -परहित सरिस धरम नहिं भाई,परपीडा सम नहिं अधमाई।तुलसी जयन्ती पर तुलसीदास की यह पंक्ति साधारण जन से लेकर सत्ताधारियों और धर्म ध्वजियों तक को आमंत्रित करती है कि आइए और अपने को इस कसौटी पर जांचिए कि आप कितने प्रतिशत धार्मिक हैं और साथ ही कितने प्रतिशत मनुष्य। क्या हम अपने को तुलसीदास की कसौटी पर कसने को तैयार हैं?
▪प्रस्तुति – डॉ. अर्चना भट्ट