हिंदी दिवस: उत्सव का है या छाती पीटने का
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लीजिए, आ गया हिन्दी दिवस
◼ डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला
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लीजिए, हिन्दीदिवस आ गया।
समझ नहीं पाता हूँ कि
यह दिवस उत्सव का है या
छाती पीटने का।
हिन्दी की खाता हूँ ,
और हिन्दी की बजाता हूँ
इसलिए इस दिन शान्ति से बैठ नहीं पाता हूँ ।
भारत स्वतंत्र हुआ,
उससे पहले मेरे शहर में
एक भी अंग्रेजी माध्यम का स्कूल न था।
मिशनरी स्कूलों में भी
पढ़ाई का माध्यम हिन्दी था।
भारत स्वतंत्र हुआ,
उससे पहले भारतेन्दु हुए ,
महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल,
मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद,
निराला, सुमित्रानंदन पंत, प्रेमचंद सहित
हिन्दी के सब महान् योद्धा हुए ,
और बाद में कोई ऐसा न हुआ
जो सिर चढ़ कर बोल सके।
भारत स्वतंत्र हुआ ,
उससे पहले तक मैकाले को दोष देते रहे
फिर भी हिन्दी को प्यार करते रहे ।
अंग्रेजों ने हिन्दी को आगे बढ़ने से नहीं रोका।
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में जब
हिन्दी- उर्दू का पहला शब्दकोश बना
तो ए.ए.मैक्डाॅनल ने ही सुविधा जुटाई ।
अंग्रेजों की तो छोड़िए ,
कट्टर मुसलमानों के मुगलकाल ने हमें
सूरदास , तुलसीदास, मीरा और रसखान दिए ,
भारत स्वतंत्र हुआ,
तो हिन्दी की राख क्यों उड़ने लगी?
मैकाले को आज भी दोषी ठहरा कर
हम अपने आपको दोषमुक्त घोषित कर रहे हैं ।
जिस हिन्दी ने देश को आजाद कराने में
सबसे बड़े क्रांतिकारी कदम उठाये
वह तार-तार हो रही है ,
और पूरा देश हिन्दीदिवस मना रहा है
तो आखिर किसलिए ?
भारत स्वतंत्र हुआ,
उससे पहले हिन्दीदिवस मनाने की जरूरत नहीं पड़ी ।
हमारी धरती पर अंग्रेज राज कर रहे थे ,
लेकिन दिलों पर हिन्दी का राज था।
अब तो हम राज कर रहे हैं
और दिलों पर अंग्रेजी राज कर रही है।
घर-घर में अंग्रेजी घुस आई है,
तीन साल का मासूम
हिन्दी में कठिनाई महसूस कर रहा है
और अंग्रेजी उसकी जबान पर नाच रही है,
तो सोच रहा हूँ कि यह हिन्दीदिवस
क्यों चिढाने आ जाता है बार-बार।
देश भर के अस्सी प्रतिशत स्कूलों में
अंग्रेजी माध्यम का बोलबाला है,
बचे हुए बीस प्रतिशत तो वे सरकारी स्कूल हैं
जहाँ केवल हिन्दीभाषी प्रान्तों में सरकार
हिन्दी के ऊपर अहसान कर रही है।
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में
“हिन्दी डे” मनाने का जैसा शोर मचता है
वैसा हिन्दी माध्यम के स्कूलों में नहीं।
यह ढोंग क्यों? यह आडम्बर किसके लिये ?
इस वर्ष एक बड़े भारी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में
मैं मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था ,
किन्तु खीजपूर्वक इन्कार करना पड़ा।
लोग खुश हैं कि
हिन्दी में फिल्में बन रही हैं,
फिल्मी गाने लिखे जा रहे हैं ।
लोग खुश हैं कि
प्रधानमंत्री जी हिन्दी में भाषण दे रहे हैं ।
लोग बेहद खुश हैं कि
घरों में हिन्दी के अखबार आ रहे हैं।
लोग खुश हैं कि
महानायक अमिताभ बच्चन
हिन्दी में लोगों को करोड़पति बना रहे हैं ।
लेकिन इससे भी ज्यादा खुश हैं लोग
इस बात से कि उनके बेटे -बेटी , नाती-पोते
हिन्दी को धूल चटाने में सफल हैं,
ये लोग ज्यादा खुश हैं अंग्रेजी की तरफ खड़े होकर ,
ये लोग ज्यादा खुश हैं
रट्टा लगवाने वाले अंग्रेजी के ट्यूटर की जेबें भर कर ,
इन लोगों की खुशी का पारावार नहीं होता
जब बच्चा कहता है कि
वह हिन्दी में कमजोर है लेकिन
अंग्रेजी में उसका कोई जोड़ नहीं ।
कहाँ गये वे मातृभाषा की वकालत करने वाले ?
कहाँ गये वे बड़े-बड़े भाषण
जिनमें हिन्दी की तारीफ के लिये
शब्द कम पड़ जाते थे।
महात्मा गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक
कोई हिन्दी का सच्चा हितैषी क्यों न हुआ ?
धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर
रोज-रोज मरने-कटने की धमकी देने वाले देश में
अभी तक हिन्दी के लिये मरने वाला कोई क्यों नहीं ?
हिन्दी के लिये शहादत का दिन
कौन सा मुकर्रर हुआ है ,कोई बताइएगा ?
मेरे देश को हिन्दी चाहिए,
हिन्दीदिवस नहीं चाहिए ।
मेरे देश को हिन्दी चाहिए,
हिन्दी के नाम पर ढोंग- धतूरे नहीं चाहिए ।
मेरे देश को हिन्दी चाहिए,
हिन्दी पर अहसान करने वाले नहीं चाहिए ।
मेरे देश को हिन्दी चाहिए,
हिन्दी से गद्दारी करने वाले कभी नहीं चाहिए ।
मैं तैयार हूँ
कि हिन्दी के लिये प्राण न्यौछावर कर दूँ ।
क्या आपमें से भी कोई ?
नहीं, तो रहने दीजिए हिन्दी दिवस का नाटक ,
और याद कर लीजिए सौ साल पहले
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने लिखा था –
जो अपनी माँ को नि:सहाय
और निरुपाय दशा में छोड़ कर
दूसरे की माँ की सेवा-शुश्रूषा करता है,
उस अधम का क्या प्रायश्चित् होगा ,
यह तो कोई मनु, याज्ञ्यवल्क्य
या आपस्तम्ब ही बता सकता है।
◼ डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला