मुकुंद जोशी और ‘मिस्टर वेरिएबल’

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डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला

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अक्सर हम नई उम्र के बच्चों पर संस्कारशून्य और लक्ष्यहीन होने का आरोप लगाते हुए यह भूल जाते हैं , कि हमने उन्हें जिन परिस्थितियों में लाकर खड़ा किया है , वे अपनी ओर से कुछ न कुछ बेहतर करने की ताकत रखते हैं ।मैं जब किशोरवय के बच्चों में घुलता- मिलता हूँ ,तब उनमें एक अच्छे कवि, अच्छे गायक , अच्छे चित्रकार ,अच्छे खिलाड़ी के साथ-साथ अच्छे वैज्ञानिक की सम्भावना देख कर बहुत प्रसन्न होता हूँ।

आज मैं बात करता हूँ आपसे , अपने पौत्र मुकुंद की । दूसरे सब बच्चों की ही तरह है वह । वह मेरे बहुत करीब है, तो स्वाभाविक है कि मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ । अभी वह चौदह वर्ष का है , और भोपाल के सागर पब्लिक स्कूल में कक्षा 9 का विद्यार्थी है। कापियों में चित्रात्मक आकृतियाँ बनाना, क्रिकेट खेलना, स्केटिंग और स्वीमिंग करना, ये सब वैसी ही रुचियाँ हैं उसमें,जैसी सामान्यत: बच्चों में देखी जातीं हैं।
आजकल छोटे-छोटे बच्चे मोटे-मोटे उपन्यास पढ डालते हैं, और दूसरा नया उपन्यास लाकर देने की जिद करते हैं, तो मेरे भीतर बच्चों की नकारात्मक छबि टूटने लगती है । यह अलग बात है कि बच्चे जो साहित्य पढ रहे हैं , वह सबका सब प्राय: अंग्रेजी में है ,फिर वह हैरी पाॅटर हो या और कुछ, किंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा किस भाषा का साहित्य पढता है।नये बच्चों को मैं अपने से आगे देखता हूँ।

अभी कुछ दिनों ही पहले मुकुंद ने एक नाॅवेल लिखा। 150 पृष्ठों में लिखा गया नाॅवेल चित्रात्मक था ,अर्थात् प्रत्येक पृष्ठ पर लिखी गई विषयवस्तु से संगत कोई न कोई रेखाचित्र । उत्साह में आकर एक दिन वह अपना नाॅवेल बस्ते में रख कर स्कूल ले गया अपनी शिक्षिका और अपने सहपाठियों को दिखाने के लिये । कुछ साथियों को मुकुंद ने अपना लिखा नाॅवेल बताया।कुछ साथियों ने खुशी भी जाहिर की। रैसेस के बाद मुकुंद ने शिक्षिका को बताने के लिये बस्ता टटोला, तो पाया कि नाॅवेल पर किसी ने हाथ साफ कर दिया है। सब तरफ ढूँढा , किन्तु दुर्भाग्यवश सफलता नहीं मिली। मुकुंद बहुत दु:खी हो गया। घर आया तो जैसे लुटा- पिटा। न खाना खाया , न किसी काम में मन लगा। रात को सो न सका। बड़ी मुश्किल से उसने अपना दु:ख मम्मी और पापा को बताया । नन्हे हाथों के नवसृजन की यह परिणतिहोगी, किसने सोचा था ।

दो-तीन दिन तक गहरे दु:ख में रहा था मुकुंद , और इसमें से निकलने की युक्ति भी उसीने सोची। उसने संकल्प लिया कि जो नाॅवेल गुम गया है या चोरी चला गया है, वह फिर नये सिरे से लिखेगा। मुझे यह बताते हुए बड़ी खुशी है कि स्कूल की पढाई ,परीक्षाओं के दौर के बीच मुकुंद ने नाॅवेल फिर से लिख डाला है । यह नाॅवेल 149 पृष्ठों का है । नाॅवेल का नाम
स्वयं मुकुंद ने रखा है -” मिस्टर वेरिएबल “। बाकायदा प्रथम पृष्ठ पर 20 चैप्टर और उनकी विषयवस्तु का उल्लेख किया है, और पूरा नाॅवेल रेखांकनों और मजेदार चित्रों से सजाया गया है । पूरा नाॅवेल कल्पनाओं की ऊँची उड़ान है। मिस्टर वेरिएबल एक साधारण आदमी है,किन्तु धरती के जन-जीवन से त्रस्त होकर किसी अंतरिक्षयान से लटक कर मंगलग्रह पर पहुँच जाता है। इस यात्रा को मुकुंद ने बड़ा ही लोमहर्षक बनाया है। यह यात्रा एक बहुत लम्बी साँस की तरह चित्रित की गई है। मंगलग्रह पर मिस्टर वेरिएबल ने अपनी उपस्थिति से जो
अद्भुत हास्य उत्पन्न किया, उसमें कमोबेश मुकुंद का अपना बचपन भी है,अपनी परिकल्पनाएँ भी हैं और शायद वह सब भी है , जो बालमन अपने भीतर कल्पनाओं के साथ रचता रहता है। अब मुकुंद चाहता है कि यह नाॅवेल प्रकाशित हो जाए। उसे अपने दादू-दादी पर विश्वास है कि वे यह नाॅवेल छपवा देंगे। मुकुंद जानता है, कि इतने सारे चित्रों के साथ नाॅवेल का छपना इतना आसान नहीं।फिर भी मैंने मुकुंद को आश्वस्त किया है, तो मुझे कुछ न कुछ करना ही होगा ।

बच्चे सचमुच ही मन के कितने सच्चे होते हैं , किस तरह
कल्पनाशील होते हैं ,क्या सपने होते हैं उनके ,यह जानना
और समझ पाना माता – पिता के लिये , शिक्षकों के लिये
बेहद जरूरी है । बच्चे के पास जो संवेदनशील मन हैं ,
उसमें झाँक कर तो देखिए । वहाँ अपूर्व खजाना भरा पड़ा
है, और आपकी – हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।

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