बुढ़ापे की कोई लाठी नहीं होती: डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला
बुढ़ापे की कोई लाठी नहीं होती
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बुढ़ापे की कोई लाठी नहीं होती ।
लाठी कमजोर करती है ,
भरोसा छीन लेती है हमारा
और चलाने लगती है अपनी अकड़ पर ।
भगवान् निर्दयी नहीं ,
बड़ा सहारा दिया प्यार से भरा हुआ उसने ।
लग्न के मंडप में
कितना प्यारा हाथ दिया उसने ,
हाथ नहीं , पूरा एक शरीर ,
पूरी आत्मा , पूरा मन ,
आदमकद आईना दिया तुम्हें ,
आखिर बुढ़ापे के लिये ही तो ।
बूढ़े शरीर को जब
मिलता है कुछ खुरदुरा
कुछ मखमली स्पर्श ,
तब सम्हल जाते हैं लड़खड़ाते पाँव
और जीने की इच्छा मचलने लगती है ।
आह ! कितनी पकी हुई हँसी ?
कितना तपा हुआ सौन्दर्य ?
लाठी को एक तरफ रखो ,
रखो तो अपनी गुलाम बना कर ।
रखो तो आज्ञानुवर्तिनी की तरह ।
उसकी चलने मत दो ,
वह पड़ी है कोने में तो पड़ी रहने दो ,
उसे ढूँढो मत ,
उसे अपनी शान मत बघारने दो ,
उसे तेल मत पिलाओ ,
ऐसा भी मत करो
कि तुम्हारे बाद स्मृतिचिह्न की तरह
पुजाती फिरे तुम्हारी लाठी ।
घर से निकलो ,
तो बेशक हमसफर साथ हो ,
साथ-साथ चलते कदम
लाठी से हजार गुना जानदार
और लाखों गुना शानदार हैं ।
नहीं ,
बुढ़ापे की कोई लाठी नहीं होती।
✍ डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला
साहित्यकार