गाथा है एक विद्यार्थी परिवार की

राजेश घोटीकर
आधुनिक गाथा (वीर एवं महापुरुषों कि गाथाएं अक्सर हमने पढ़ी-सुनी है। ये गाथाएं इतिहास के पन्नों पर उल्लेखित हैं। आज मैं जो लिख रहा हूँ यह गाथा एक विद्यार्थी परिवार की है।) आधुनिक व्यवसायिक युग में यह गाथा गाई जा सकेगी, इसलिए इसे गाथा कह रहा हूँ।
एक छोटे गाँव में एक विधवा रहा करती थी। पति की जो थोड़ी सी जमीन थी बस यही आसरा उसके गुजर बसर के लिए शेष बचा था।

दो लड़के और दो जुड़वाँ बेटियों की परवरिश की जिम्मेदारी के चलते उसे मजदूरी भी करना पड़ती थी। खेत को उसने बटाई पर देना ही उचित माना था। सभी बच्चे छोटे थे जुड़वाँ बहने तो गोद में ही थी। बड़ा बच्चा कोई 6 बरस का तो छोटा 4 बरस का ही तो था जब उसके पति का बीमारी के चलते निधन हो गया था। परिवार के बड़े पहले ही चल बसे थे और दूसरा कोई आसरा न था।
बच्चे बड़े हो रहे थे। स्कूल जाने कि उम्र हो चली थी मगर उसके पास उन्हें पढ़ाने के बारे में सोचने तक कि गुंजाईश नहीं थी मगर बच्चे पढ़ना चाहते थे। वे जानते थे कि फाकाकशी में दिन काटने कि मजबूरी में माँ उन्हें पढ़ाने का जिमा नहीं ले पाएगी। कई बार गाँव के लोगो को भी इस बारे में बात करते शब्द उनके कानो में जो पड़ चुके थे कि गरीब विधवा किस प्रकार इनका जीवन निबाहेगी, कैसे इन्हें पढ़ा लिखा पाएगी?
एक दिन निश्चय कर वे अपनी शिक्षा के बारे में पता करने पास के गाँव में लगने वाले प्रायवेट विद्यालय में जा पहुंचे। वहाँ अपने प्रवेश की चर्चा उन्होंने प्रधानाचार्य से की। प्रधानाचार्य स्कूल संचालन कि गतिविधि से पृथक थे सो उन्होंने अनभिज्ञता जताते हुए स्कूल संचालक से इस बारे में बात करने को कहा। स्कूल संचालक का निवास गाँव में ही था सो वे उनके घर चले गए मगर स्कूल संचालक घर पर नहीं थे किसी काम से गए थे यह जानकार उन्होंने उनका इंतज़ार करने की ठानी। शाम को जब स्कूल संचालक महोदय घर पहुंचे और उन्हें मालूम हुआ कि दो नन्हे बच्चे उनके इंतज़ार में दोपहर से भूखे बैठे हैं। उन्होंने तुरंत उनसे मिलने का फैसला किया। गरीबी में कट रहे दिनों के बावजूद बच्चों का पढ़ाई के प्रति रुझान जानकर वे खुश हुए और जिस सेवा भाव से उन्होंने गाँव में स्कूल चलाने कि सोची थी उसकी परीक्षा का भी ये समय था। वैसे भी गाँव में तब पढ़ाई के बारे कोई सकारात्मक रवैया होता न था और स्कूल चलाना खुद संचालक की परीक्षा ही होता था ऐसे में बिना किसी फीस के पढ़ाना बड़ी कठीन बात थी। बच्चे स्कूल कि फीस के बदले स्कूल के काम मसलन साफ़ सफाई, पानी भरने जैसे काम को राजी थे यह जानकर वे अचंभित थे।
बच्चो को खाना खिलाकर उन्हें उनके गाँव में पहुचाने का बंदोबस्त कर उन्होंने बच्चों से कहा कि कल तुम अपनी माँ को साथ लेकर वापस स्कूल आना। अभी तुम इनके साथ अपने गाँव जाओ तुम्हारी माँ को तुम्हारी चिंता हो रही होगी, क्योंकि तुम उन्हें कुछ भी बताकर जो नहीं आये हो।
अपने गाँव पहुंचते उन्हें रात हो आई थी। विधवा माँ को चिंता हो आई थी कि न जाने ये बच्चे कहाँ चले गए है। गाँव के किसी व्यक्ति ने उन्हें गाँव से बाहर जाते देखने कि बात से तो वो और भी अधिक चिंतित हो उठी थी। बच्चे किसी बड़े व्यक्ति के साथ घर लौट आये तो घर पर मातम सा माहौल जान पड़ा। बिना बताये घर से पता नहीं कहाँ, ना जाने कहाँ जाने का डर जो हो आया था। किसी बड़े आदमी के साथ घर आने पर जब सारी बात विस्तार से पता चली और अगले दिन वापस पड़ोस के गाँव में जाने की आवश्यकता समझते हुए माँ का हृदय पिघल सा गया था।
ना जाने कैसे कैसे पापड़ बेल कर आ गए थे उसके नासमझी कि उम्र के बच्चे। यह सारी बातें जानकार उसने अपने लाडलों को भरपूर चूमा मगर काश ये बच्चे घर पर बता जाते तो शायद ऐसा कठीन वक्त उस पर ना गुजरता।
अगले दिन कुएं से पानी लाकर बच्चों को नहलाया खुद भी स्नान कर बच्चों को धुले कपडे पहनाकर स्कूल जाने निकल पड़ी। अनपढ़ गरीब विधवा सोच रही थी घर में मरद के ना रहने के बारे में। वो किन बातो को पूछेंगे और वो कैसे जवाब दे पाएगी आदि बातों ने उसे व्याकुल कर रखा था। बच्चों कि पढ़ाई का बंदोबस्त भी उसकी समझ के बाहर था। फिर भी बुलावे पर उसे जाना ही था।
स्कूल पहुंचकर इस माँ ने अपने बुलवाये जाने की बात कही। स्कूल संचालक महोदय के आने तक उसे इंतज़ार करने को कहा गया।
स्कूल संचालक जब स्कूल आये और बच्चों को अपनी माँ के साथ बैठा पाया तो वह उसे अपने कक्ष में ले गए। बच्चों के पढ़ने की ललक जानकर बच्चों का प्रवेश नि:शुल्क कर दिया गया। पढ़ाई के लिए लगाने वाली सामग्री भी स्कूल से ही उपलब्ध करवाए जाने का निर्णय हुआ। बच्चों के काम करने की बात भी हुई और इतना स्वाभिमान इस छोटी उम्र में होने कि बात हुई। फिर इन बच्चों से काम न कराया जाने का आदेश भी दिया गया।
बच्चे पढ़-लिखकर बड़े हो गए और सरकारी नौकरियों में लग गए।
एक दिन स्कूल के प्राँगण में पुलिस अफसर की गाडी पहुँचने की खबर से सारा गाँव अचरज में था। नए प्रधानाचार्य हांफते दौड़ते गाडी पर आ पहुंचे। स्कूल संचालक जी के बारे में पूछा जाते ही चपरासी दौड़कर घर खबर दे आया। सब कुछ तुरत फुरत और इतना तेजी से घटित हुआ कि जब तक रमेश अपने भाई बहनों के साथ गाडी से उतरता, स्कूल संचालक स्कूल आ पहुंचे थे। चारों भाई बहन आगे बढ़कर उनके पैर छूने लगे इससे राहत महसूस हुई।
बूढ़ा चुकी आँखों में अपने सम्मान के प्रति कृतज्ञता और विस्मय के भाव भरे थे।
रमेश चंद्रात्रे ने कहा जो पुलिस कि वर्दी में था – क्या आपने हमें पहचाना सर?
फिर थोड़ी चुप्पी जानकर उसने बात आगे बढ़ाई। सर मैं आपका रामू ….. फिर हाथो के इशारे से दिखाते हुए बोला ये रघु है, ये पल्लवी और कविता। आपके आशीर्वाद से आज हम इस मुकाम पर हैं।
“चलो कक्ष में चलते हैं” स्कूल संचालक ने कहा।
सभी कक्ष में पहुंचे और बातचीत का दौर चल पड़ा। प्रधानाचार्य जो अब कोई नए व्यक्ति थे उनसे अपने शिक्षकों के बारे में चर्चा की। फिर स्कूल संचालक महोदय की मदद के बारे में बताया।
रमेश ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकालकर स्कूल संचालक महोदय को दिया और कहा कि ये मेरी पहली तनख्वाह है। सभी भाई बहनों ने इसीतरह अपनी पहली तनख्वाह उनके हाथ में धर दी तो वातावरण उनकी इस श्रद्धा के प्रति नतमस्तक हो गया। एक सन्नाटा और गर्व से भरी खामोशी वहाँ महसूस की जा सकती थी।
स्कूल संचालक की आँखे नम हो आई थी वे शून्य में डूब गए थे।
रमेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा – “सर ! स्कूल का हम पर उपकार है ही मगर उससे बड़ा क़र्ज़ अब भी हमारे सिर पर बाकी है। हम कभी उऋण तो हो नहीं पाएंगे मगर जिस तरह हमारी मदद में आपने अपने हाथ बढाए थे वे और भी ताकतवर बन खड़े हों इसके लिए हमारी और से ये तुच्छ भेंट के स्वरुप में सब की पहली तनख्वाह के कुल 150000 ₹ रखने का आग्रह है।
गरीब विधवा की इन संतानों ने संस्कारों को जीवंतता प्रदान कर दी थी यह जानकर शाला संस्थापक के द्रवित हृदय से आशीर्वाद बरसने लगा था। उन्होंने कहा – तुम धन्य हो। तुम्हारी माता धन्य है। मेरी सेवा के मोल में मैं तुम्हारे ये पैसे नहीं ले सकता……
वे आगे कुछ भी कहते रमेश पैरो में झुक गया और बोला – “यदि आप हमारा “यह समर्पण” यदि नहीं लेंगे तो हम सिर उठाकर जी न सकेंगे।” रघु बोला – “ये गुरु दक्षिणा रख लीजिये सर! हमें अब यही आशीर्वाद स्वीकार होगा कि आपने हम जैसे अन्य बच्चों के उत्थान में हमें आशीर्वाद दे दिया उक्त राशि स्वीकार कर।” कविता बोल पड़ी – “शिक्षा का दान तो वैसे ही सर्वोपरि होता है मगर हमारी सक्षमता आपकी और विद्यालय की देन है। उसकी दक्षिणा समझ कर ये स्वीकार करें। मगर पल्लवी ने तो हद ही कर दी। कहा “विद्या और आपका क़र्ज़ चुका पाना हमारे बस का नहीं है अगर आपने यह दक्षिणा स्वीकार नहीं की तो अगले माह मैं अपनी होने वाली सगाई से इंकार कर दूंगी और आजन्म विवाह नहीं करुँगी।
क्या करते स्कूल संचालक? ऐसे गुणी विद्यार्थी पाकर वे नतमस्तक जो थे।

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