क्षमा करना, श्रमिक !
क्षमा करना,श्रमिक!
कि इतिहास ने
आरती नहीं उतारी तुम्हारी,
क्षमा करना
कि बच्चों को नहीं पढ़ाया हमने
कि तुम ही थे जिसने
पहाड़ों को खोदकर रास्ते बनाये।
हमने यह तो पढ़ाया कि
ताजमहल किसने बनवाया,
किसने बनवाई कुतुबमीनार ,
किंतु यह नहीं बता सके
कि किसने बनाये ये सब
अपने हाथ कटाकर।
राम के लिये समुद्र के ऊपर
सेतु बनाने वाले तुम थे,
लछमन के लिये संजीवनी पर्वत
उखाड़ लाने वाले तुम थे ,
खून में पसीने को मिला कर
तुमने फौलाद बनाया,
हम हाथ बाँधे खड़े रहे,
अब भी लाज आती है पढ़े-लिखों को
तुम्हें इज्जत से देखने में ।
क्षमा करना, श्रमिक !
तुमने जंगल साफ किये,
बस्तियाँ बसाई,
कुएँ खोदे,तालाब बनाये,
नदियों को रास्ते दिये,
धरती का श्रृंगार किया,
सेठों,जमींदारों,राजाओं- नवाबों ने
सब अपने नाम किया,
हम चुप रहे।
अब भी तुम्हारा जिक्र नहीं कहीं,
न स्कूल-काॅलेज में,
न किसी विश्वविद्यालय में ,
न मंदिर- मस्जिद में ।
क्षमा करना श्रमिक!
कुदाली, फावड़े,
गेती,हथोड़े से ज्यादा ही
पूजे गये वे गदा,त्रिशूल
जो बनाये तुमने ही थे
लोहे को पीट-पीटकर।
ज्यादा ही माथे पर बैठा लिये गये वे
जो पहले ही चढ़े हुए थे
सातवें आसमान पर ।
क्षमा करना श्रमिक!
महाप्राण के इशारे के बाद भी
पत्थर तोड़ती माँ
अब भी नहीं बैठी श्रद्धा के मंदिर में,
वह अब भी नहीं थकी,
अब भी नहीं लाचार,
अब भी उठा रही तगारियाँ,
अब भी झेल रही लगातार ईंटे
किसी ऊँची हवेली पर
बाँस की मचान पर खड़ी
पीठ पर झूलते नवजात को लिये हुए।
क्षमा करना श्रमिक!
अभी कुछ नहीं बदलेगा इतनी जल्दी,
अभी और उगानी होगी
श्रम की फसल,
अभी और काटना होगा पेट,
पसीने का महासागर
तुम रोज बनाते हो,
सूख जाता है शाम होने तक,
अभी और,अभी और,अभी और
चलते चले जाना होगा मीलों दूर
दुनिया को कंधों पर उठाकर।