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मज़दूर दिवस : तिरस्कार और मज़दूरों का देश व्यापी पलायन

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मज़दूर दिवस पर विशेष

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तिरस्कार और मज़दूरों का देश व्यापी पलायन

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🔲 नईम क़ुरैशी

देश का मज़दूर कोरोना त्रासदी के बीच अपने जीवन की सबसे कठिनतम परीक्षा से गुज़र रहा है। ऐसे में ख़ाली हाथ मज़दूरों के सम्मान में मज़दूर दिवस उसके ज़ख्मों पर नमक से ज़्यादा कुछ नही। सांख्यकी मंत्रालय के एनएसएसओ विभाग के मुताबिक़ 2011-12 में 27 करोड़ ग़रीब थे। 2017-18 में एनएसएसओ ने फ़िर ग़रीबों का सर्वे किया, लेकिन केंद्र सरकार ने इसकी रिपोर्ट रोक ली और अब तक डेटा जारी नही किया है। फ़िलहाल लॉकडाउन में हर हफ़्ते देश को क़रीब 2 लाख करोड़ का नुक़सान हो रहा है। उद्योग धंधे ताला बंदी की वजह से ठप्प हैं। देश की जीडीपी में इसका योगदान 70%, जबकि कृषि का 30% है।

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रेटिंग एजेंसी क्रिटिल के मुताबिक़ 4% जीडीपी ग्रोथ नीचे आने से देश 90 के दशक में पहुंच जाएगा। यूएन संस्था इंटर नेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन का कहना है कि गांवों से शहर आकर मज़दूरी और छोटे-मोटे काम कर जीवन यापन करने वाले ग़रीब-मज़दूरों के पलायन का भयावह चेहरा लॉकडाउन के बाद सामने आएगा। इस दौरान ही लोग भूख से मरने लगे हैं। आगे के हालात क़रीब 40 करोड़ लोगों को ग़रीबी की रेखा से नीचे पहुंचा देंगे।

देश की आबादी 130 करोड़ के क़रीब है, जिसमें 40 करोड़ लोगों का ग़रीब हो जाना और देश की आर्थिक स्थिति का ध्वस्थ होना बहुत बड़े संकट की तरफ़ इशारा कर रहा है। हालांकि इस वैश्विक महामारी में भी देश के अन्नदाता ने लक्ष्य से ज़्यादा अन्न का उत्पादन कर नया कीर्तिमान बनाया है। 130 करोड़ आबादी का पेट भरने के लिए कच्चा अनाज खेतों से गोदामों तक पहुंच जाएगा, मगर इसके पकने में लगने वाला ईंधन और संसाधन जुटाकर ग़रीबों, ज़रुरतमंदों के पेट तक पहुंचने के लिए सरकारी नीति और नियत का पाक-साफ़ होना बेहद ज़रूरी है। लोगों के हाथों में काम के बगैर पेट का भरना और देश का आगे बढ़ना नामुनासिब सी बात है।

लॉकडाउन में देशभर से मज़दूरों का पलायन चरमराई आर्थिक व्यवस्था के लिए एक और संकट है। जैसे-तैसे उद्योग धंधों में काम की शुरूआत हो जाएगी, मगर मज़दूर कहां से आएंगे? ख़ासतौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, बंगाल के मज़दूर-कामगार शहरों के बड़े-छोटे उद्योगों के साथ कंस्ट्रक्शन, ज्वेलरी और फुटपाथों, झुग्गी, तंग गलियों, बस्ती मोहल्लों के काम-धंधों की रीढ़ थे, वे अब पलायन कर चुके हैं और बचे हुए भी हर हाल में वापस लौटना चाहते हैं। ऐसे में देश की 70% जीडीपी कैसे पटरी पर आएगी, अनुमान लगाया जा सकता है।

देश व्यापी पलायन का बड़ा कारण कोरोना से ज़्यादा मज़दूरों के प्रति संकट में सहानुभूति के बजाए उनका अपमान और तिरस्कार भी है। जिन मज़दूरों ने आधुनिक भारत बनाया उन्हें संकट में रोटी और रिहाईश से वंचित कर दिया गया। तड़फते, सिसकते मज़दूर परिवार समेत सैकड़ों, हज़ारों किमी का पैदल सफ़र कर अपने गांव-शहर लौट आये। इस दर्दनाक सफ़र में कईयों की रास्ते में ही सांसे उखड़ गईं, उनकी देह भी अपनों को नसीब नही हुई। जो देश दुनिया मज़दूरों के पसीने से बनी उनके लिए सरकारी लापरवाही और दिखावे के लिए मुक़र्रर 1 दिन, 1 मई। लॉकडाउन के दौरान पलायन करते लाखों भूखे मज़दूरों की तस्वीर, उनके प्रति सरकारी सम्मान नही उदासीनता और दोग़लेपन का ज़िंदा उदाहरण हैं।

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