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30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर विशेष

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‘कोरोनाकाल में मीडिया मालिकान की निष्ठुरता’

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🔲 डॉ.आशीष द्विवेदी

तीन-चार रोज से दिमाग मेंं उथल-पुथल चल रही है। कुछ मित्र कह रहे थे कि मीडिया मालिकान के बारे मेंं मत लिखिए, आप भी मीडिया का संस्थान चला रहे हैं।लेकिन दिल है कि मानता नहीं। अंदर कुछ केमिकल लोचा होने लगा तो लगा कि अब रहा नहीं जाएगा।इन असंवेदनशील मीडिया मालिकों की करतूतें सार्वजनिक होना ही चाहिए।जो मीडिया के साथी ‘कोरोना वारियर्स’ की मानद उपाधि के बगैर अपनी जान हथेली पर रखकर ड्यूटी कर रहे हों, उन पर वायरस से ज्यादा संकट आजीविका का सता रहा हो तो भला उनकी मन:स्थिति कैसी होगी?

महज दो माह मेंं ही ‘ गुरबत ‘ मेंं आ चुके मीडिया के मालिकों ने राष्ट्रव्यापी छंटनी अभियान छेड़ दिया है। दादर से दिल्ली और मेवाड़ से मुंबई तक।

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क्या टाइम्स, क्या एच टी, क्या टेलीग्राफ, क्या पत्रिका, क्या लोकमत और क्या भास्कर। अमूमन देश के सभी संस्थानों में पत्रकारों की नौकरी पर तलवार लटक रही है। दिल्ली भास्कर ने कोरोनाकाल की आड़ लेकर अपनी यूनिट के करीब डेढ़ दर्जन साथियों की अचानक छुट्टी कर दी।सुबह जब वे मीटिंग को पहुंचे तो एच.आर.महोदया ने इसे सबकी फेयरवेल मीटिंग बना दिया। उन लोगों पर क्या गुजरी होगी, जिनमें कोई बिहार, कोई यूपी तो कोई हमारे ही राज्य का है। न पूर्व नोटिस, न अपील, न दलील, सीधे छुट्टी।

यह पराकाष्ठा है कि कैसे ये धनकुबेर मालिक अपने मातहतों से बेदर्दी का भाव रखते हैं।अब भला दिन-रात मजदूरों और किसानों का दर्द दिखाने वालों की पीड़ा कौन दिखाएगा? टाइम्स जैसे ‘बरगदी’ समूह ने कोरोना का हवाला देकर 91 लोगों को निकाल दिया, कुछ एडिशन ही बंद कर डाले। रोजाना अपने अखबार मेंं लंबे-चौड़े उपदेश देने वाले जयपुर के परमज्ञानी मालिक ने देश भर से अपने सैकड़ों कर्मचारियों को घर का रास्ता दिखा दिया ,जिन सबने कभी खून-पसीने से अखबार की जड़ों को सींचा था।

वे तो पहले ही अपने एडिशन समेटने का चोरी छुपे गुंताड़ा चला ही रहे थे, अकेले सागर में गार्ड, आई टी सेल और एक मात्र महिला पत्रकार को बेरहमी से बुलाकर नमस्ते कर ली। दूसरा कोई छपन्न इंची पत्रकार ‘चीं’ भी नहीं बोला जैसे उनका नंबर कभी आएगा ही नहीं। अखबारों ने पत्रकारों के वेतन भी कही 10 तो कही 30 तो कही 50 फीसदी तक काट कर दिए जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि एक बारिश न होने से बरगद और पीपल की जड़े सूख जाएंगी। ये सालों से माखन खा रहे मालिकान अपने पत्रकारों को जो थोड़ी बहुत छाछ देते हैंं, उससे उनका कभी पेट भरता भी है ? इसकी खबर लेने ने इन्हें भला क्या पड़ी है।

ये अफरे पेट वाले तो हमेशा भैैराए रहते हैं। अखबार की आड़ मेेंं तेल, नमक,रियल एस्टेट , माइन्स सभी मेंं तो जुुटे पड़े हैं। पहले बछावत फिर मणिसाना और मजीठिया तीन-तीन बैज बोर्ड बन चुके हैं कि भैया इन पत्रकारों को कम से कम कलेक्टर रेट जैसा वेतन ही दे दो। मजाल है कि किसी एक आयोग की भी सिफ़ारिश मानी गयी हो। एकाध अखबार को छोड़ सभी मालिकान और शातिर किस्म के सलाहकारों ने शकुनि षड़यंत्र कर नई चालें चल डालीं।

अब आप किसी अखबार में नौकरी करेंगे तो उसके कर्मचारी नहीं कहलाएंगे। उन्हें एक पोर्टफोलियो से हायर किए जाने लगा। यह निष्ठुरता का ही एक पहलू है। उसके बाद मीडिया समूह ने अपने पत्रकार साथियों के कंधे पर बन्दूक तान हस्ताक्षर कराए हैंं कि हमे बड़ा हुआ वेतन नहींं चाहिए। किसी तरह का मजीठिया नहीं मागेंगे। उसमें से एकाध क्रान्तिवीर विरोध करते तो उनको बुरी तरह टॉर्चर किया जाता, उसकी ऐसी गत कर दी जाती की वे नौकरी छोड़ दे। सागर के आदमी को आप श्री गंगानगर 15000 की सैलरी में भेजोगे तो उसकी शामत आई है जो वह जाएगा, मालिक और उनके चंगू-मंगू इस काम में माहिर हैं।

कोरोना काल में मीडियाकर्मियों के परिवार घनघोर चिंता में हैंं। दूर देश मे डले हुए देश की सेवा, पुलिस प्रशासन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कर रहे हैंं। ऐसे समय में उन्हें आजीविका का दंश देकर हाथ झाड़ना अमानवीय, असंवेदनशील नहीं इसके लिए पाश्विक शब्द ज्यादा उपयुक्त बैठता है। कभी इन संस्थानों की बैलेंस शीट उठाकर देखिए सभी करोड़ो के मुनाफे में हर साल होते हैं। लेकिन दो महीने विज्ञापन की कमी क्या आई यह छाती कूटने लगे की भैया हमारा तो दिवाला निकल गया है, अब तुम्हें नहीं झेल सकते अपना दूसरा इंतजाम करो।

आपने शायद ही गौर किया हो कि इस दौरान बड़ी चतुराई से अखबारों ने पेज कम कर दिए गए हैंं और रेट भी बढ़ाये जा रहे हैंं, लेकिन वेतन देने के नाम पर वायरस जकड़ लेता है। कभी पूछिए हम पाठकों ने शिकायत की है कि आप लोग जब गले भर कर विज्ञापन देते थे जैकिट पर जैकिट ,समाचार तो उस समय अल्पसंख्यक हो जाते थे तब आपने इन पत्रकारों के वेतन में 20 फीसदी वृद्धि कर दी हो ।

ये सभी मालिकान दिखने के लिए समाज के पहरुए बनने का ढोंग पीटते हैंं पर यथार्थ में ऐसा है नहीं। क्या अंबानी, क्या जैन, क्या माहेश्वरी, क्या अग्रवाल, क्या गुप्ता, क्या गोयनका, क्या बिड़ला, क्या दर्डा, सभी वणिक बुद्धि हैं। जिनका एक मात्र मकसद है मुनाफा। तभी रूपक मेट्रोक याद आते हैंं जो बड़ी साफगोई से कहे गए -‘ अखबार केवल मुनाफा कमाने के लिए निकलते हैंं पूर्णविराम ‘ असलियत यह है कि कलमकारों पर होने वाले इस अमानवीय प्रकरण की जानकारी कभी सार्वजनिक नहींं हो पाती, बस जरा बहुत खुसर- फुसर से होकर बात समाप्त हो जाती है। यहां चिराग तले अंधेरा नहीं पूरी अमावस जो है। एक और बात मीडिया बिरादरी में जितनी फूटन है, इसका अहसास मालिकों को बखूबी है। पत्रकारों के दर्जनों संघ, संगठन, क्लब केवल अधिकारियों और नेतागणों की नज़रों में और अपना रौब दिखाने या थोड़ी बहुत झाँकेबाजी तक ही सीमित हैंं।

दूर क्यों जाए हमारे शहर में ही कुछ नहीं तो एक दर्जन से ज्यादा क्लब, संगठन मौजूद हैंं। सभी निर्जीव अवस्था में हैंं। वे एक बार भी पत्रकारों के हक के लिए सड़कों पर नही दिखे, सब अपनी-अपनी आत्ममुग्धा में आनंदित हैंं। दुनिया को ज्ञान और एका की अलख जगाने वाली बिरादरी को इन मालिकान के इस घोर आपत्तिजनक रवैये के खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी वरना कल आपकी बारी आएगी तो फिर कौन खड़ा होगा। बेदर्द मालिकों से रहम की भीख कब तक मागेंगे। उदय प्रकाश की बात याद आती है ‘आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता, आदमी मरने के बाद कुछ नही बोलता, कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है’ ।

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